Wednesday, August 25, 2010

स्वस्ति-वाचन

   स्वस्ति-वाचन
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः ।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे ॥
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम् ।
देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे ॥
तान् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् ।
अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत् पिता द्यौः ।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम् ।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः ।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह ॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम ॥
(ऋक॰१।८९।१-१०)
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रगति को न रोकने वाले, प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। सरल मार्ग से जाने वाले देवों की कल्याणकारक सुबुद्धि तथा देवों की उदारता हमें प्राप्त होती रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त करें, देव हमें दीर्घ आयु हमारे दीर्घ जीवन के लिये दें। उन देवों को प्राचीन मन्त्रों से हम बुलाते हैं। भग, मित्र, अदिति, दक्ष, विश्वास योग्य मरुतों के गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार, भाग्य युक्त सरस्वती हमें सुख दें। वायु उस सुखदायी औषध को हमारे पास बहायें। माता भूमि तथा पिता द्युलोक उस औषध को हमें दें। सोमरस निकालने वाले सुखकारी पत्थर वह औषध हमें दें। हे बुद्धिमान् अश्विदेवो तुम वह हमारा भाषण सुनो। स्थावर और जंगम के अधिपति बुद्धि को प्रेरणा देने वाले उस ईश्वर को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। इससे वह पोषणकर्ता देव हमारे ऐश्वर्य की समृद्धि करने वाला तथा सुरक्षा करने वाला हो, वह अपराजित देव हमारा कल्याण करे और संरक्षक हो। बहुत यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करे, सर्वज्ञ पूषा हमारा कल्याण करे। जिसका रथचक्र अप्रतिहत चलता है, वह तार्क्ष्य हमारा कल्याण करे, बृहस्पति हमारा कल्याण करे। धब्बों वाले घोड़ों से युक्त, भूमि को माता मानने वाले, शुभ कर्म करने के लिये जाने वाले, युद्धों में पहुँचने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी जिह्वावाले, मननशील, सूर्य के समान तेजस्वी मरुत् रुपी सब देव हमारे यहाँ अपनी सुरक्षा की शक्ति के साथ आयें। हे देवो कानों से हम कल्याणकारक भाषण सुनें। हे यज्ञ के योग्य देवों आँखों से हम कल्याणकारक वस्तु देखें। स्थिर सुदृढ़ अवयवों से युक्त शरीरों से हम तुम्हारी स्तुति करते हुए, जितनी हमारी आयु है, वहाँ तक हम देवों का हित ही करें। हे देवो सौ वर्ष तक ही हमारे आयुष्य की मर्यादा है, उसमें भी हमारे शरीरों का बुढ़ापा तुमने किया है तथा आज जो पुत्र हैं, वे ही आगे पिता होनेवाले हैं, सब देव, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद), जो बन चुका है और जो बनने वाला है, वह सब अदिति ही है। (अर्थात् यही शाश्चत सत्य है, जिसके तत्त्वदर्शन से परम कल्याण होता है)

" आत्मा " की आवाज : -

" आत्मा " की आवाज : -

by Swami Mrigendra Saraswati on Tuesday, August 10, 2010 at 6:43pm
" आत्मा " की आवाज : -
मानसिक अस्वास्थय का मूल कारण है सुख - वासनावश अन्तररात्मा के विरुद्ध आचरण करना । मन , वचन और कर्ममेँ जब विलगता एवं विपरीतता होती है , तब मनुष्य भीतर से अशान्त और दुःखी रहने लगता है , अन्तरात्मा की इच्छा के प्रतिकुल बाह्यपरिस्थितिवश मनुष्य सोचता कुछ और है , कहता कुछ और है , और करता कुछ और है । आत्मा की आवाज को वह बिल्कुल सुन नही पाता अथवा सुन कर भी अवलेहना करता है । अन्दर अचेतन उस अन्याय को अधिक सहन नही कर पाता , तो वह मनुष्य को चैन नहीँ लेने देता । अन्तरात्मा प्रवल शक्ति - समपन्न है । उसके सशक्त प्रतिरोध के कारण मनुष्य के भीतर अन्तर्द्वन्द चलता है , उन सभी अनैतिक कार्यो के लिये दुःखी रहना पड़ता है ,जिन्हेँ वह आत्मा की सदिच्छाओँ के प्रतिकुल करता है । यह आन्तरिक दुःख , अशान्ति और असंतोष ही मानसिक अस्वास्थ्य का मूल कारण है । अत्यधिक आधिभौतिकवादि और तृष्णालु व्यक्तियोँ को सदा अन्तरात्मा के विपरीत कार्य करना पड़ता है , इस लिए वे भीतर से अहर्निश दुःखी रहते है । उनकी आत्मिक प्रसन्नता लुप्त हो जाती है । जिससे उनमेँ स्फूर्ति नहीँ रहती और वे थकित , म्लान , अशान्त और पराजित से रहते है । आत्म - प्रसन्नता के बिना रहा भी नही जाता , इस लिए ऐसे लोग प्रसन्नता प्राप्ति के अन्य कृत्रिम प्रकारोँ से सुख प्राप्ति की चेष्टा करते हैँ । यह चेष्टा ही व्यसन बन जाता है । दुःखी मन को बहलाने के लिए उपन्यासादि पढ़ना ,नाटक सिनेमादि देखना , व्यभिचार करना .मादक पेय पीना - यह सब कृत्रिम प्रसन्नता प्राप्त करने के अस्वाभाविक उपक्रम हैँ । ये उपक्रम कभी मन को पूर्ण तुष्ट करने मेँ सफल नही होते ।इनसे धीरे - धीरे मन और भी अधिक अशान्त रहने लगता है , फलतः मनुष्य और अधिक उद्विग्न रहने लगता है । उधर आत्मा की निरन्तर फटकार से वह स्वयं को दुःखी अनुभव करने लगता है । इन सब का परिणाम मानसिक विकारोँ की उत्पत्ति मेँ होता है । कुछ पाश्चात्य विचारक अतृप्त वासना को मानसिक विकारोँ का मूल कारण मान कर , वासना - तृप्ति को ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य बताते हैँ । इन पाश्चात्य विचारकोँ की यह धारणा है कि नारी के प्रति पुरुष या पुरुष के प्रति नारी के आकर्षण और " अपोजिट सेक्स " मेँ प्रेम का कारण काम - वासना मात्र है । इसी आधार पर बहन - भाई और माता - पुत्र के स्वाभाविक प्रेम मेँ भी पाश्चात्य लोग काम - वासना को ही अन्तर्निहित आधार मानते हैँ । यह धारणा बड़ी विचित्र है और हमारी सास्कृतिक विचार धारा से एकदम उल्टी है । निश्चय हीँ पाश्चात्योँ का यह निष्कर्ष सत्य नही है , क्योँकि समान योनी के भाई - भाई , पिता - पुत्र , माता - पुत्री और मित्रोँ मेँ भी अविरल प्रेम होता है । ऐसे अनेक उदाहरण हैँ जब कि समान योनीवाले एक - दुसरे के लिए प्राण देते देखे गये हैँ । फिर यही कैसे मान लिया जाय कि विरोधी योनीवालोँ के पारस्परिक प्रेम का मूल कारण काम - वासना मात्र ही हैँ ।
नारायण । नारायण ।। नारायण ।।।