" धर्म मनुष्यकृत नही ! "नारायण । धर्म किसी एककी बाप की बपौती नहीँ । यह समझ लेनेसे मेरा धर्म और तेरा धर्मरूप कलह स्वयं शान्त हो जाएगा । हमारे पूर्वज ऋषियोँने केवल मानवधर्म का ही विचार किया । ऋषियोँ की दृष्टि मेँ धर्म मेँ कोई भेद नहीँ थे । वे तो केवल यही देखते थे कि वह मनुष्य है या नहीँ और मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए ही प्रयन्त करते थे । जिस प्रकार शक्कर मेँ मिठास
वस्तुतः तो मेरा धर्म और तेरा धर्मरूप कलह उत्पन्न होने का कारण ही नहीँ है । क्योँकि सभी मानवोँ मेँ ये शक्तियाँ तो है ही । इसलिए तेरा और मेरा का भेद होना नहीँ चाहिए । सभी मनुष्योँ का एक ही मानवधर्म होना चाहिए । मानवधर्म के जैसे विचार ऋषियोँ के बाणी मेँ प्रकट हुए है । उसी तरह वे इतर पैगम्बरोँ की बाणी मेँ प्रकट हुए नहीँ दिखाई देते । इस प्रकार जो धर्म शान्ति बढ़ाने का कारण बनना चाहिए था
ऋषि प्रतिपादित धर्म
इस धर्म मेँ सब मानवोँ का एकत्र लाने का सामर्थ्य है । श्रेष्ठ मनुष्योँ का निर्माण करना हो तो इसी धर्म का आश्रय लेना चाहिए । धर्म के विषय मेँ वैर
भारतीय संस्कृति इस धर्म के साथ सुसम्बद्ध है । अतः भारतीय संस्कृति का विचार करनेवालोँ को इस स्वाभाविक सहज जन्म के साथ मनुष्य के साथ जुडजानेवाले धर्म का ही ही विचार करना चाहिए ।
धर्म या संस्कृति साथ
श्री नारायण हरिः , मिर्च मेँ तीक्षणता , और करेले मेँ कडवापन स्वाभाविक है , उसी तरह मनुष्य की आत्मा मेँ सामर्थ्य , बुद्धि मेँ ज्ञान , मन मेँ मनन शक्ति , ज्ञानेन्द्रियोँ मेँ ज्ञानग्रहण शक्ति और कर्मेन्द्रियोँमेँ कर्म करने की शक्ति स्वाभाविक है । ये शक्तियाँ अनेक प्रकार की है । ये सभी शक्तियाँ मनुष्यकृत न होकर ईश्वरीय हैँ । इन शक्तियोँ को सन्मार्ग मेँ प्ररित करना , योग्य मर्यादा तक उनको बढ़ाना , उन सबको अपने अधिन रखना , उन्हे उन्नतिकारक मार्ग मेँ प्रवृत्त करना , ये सब काम धर्म के है। इस धर्म से जनसमुदाय का महान् हित होना चाहिए , पारस्परिक प्रेम बढ़ना चाहिए , पारस्परिक द्वेष और वैर न्यून होना चाहिए । इन्हीँ सब प्रयोजनोँ के लिए धर्म का आचरण करना होता है ।, वही द्वेष बढ़ाने का कारण बन रहा है । सभी मनुष्योँ मेँ आत्मा - बुद्धि - मन और इन्द्रिय समान है । भले और बुरे गुणधर्म भी सब मनुष्योँ मेँ है । उनको संयम मेँ रखने की शक्ति भी समान है । तो भी सब मानवधर्म का विचार छोड़कर मेरा धर्म तेरा धर्म का नगाडा बजाते हुए एक दूसरे मारेँ . अपने ही पंथ मेँ लोगोँ को खीँचने की कोशिश करेँ , मानवधर्म के बारे मेँ निष्कारण स्पर्धा करेँ , इससे बढ़कर शोक का विषय और क्या हो सकता ? अतः मनुष्य विभिन्न पंथो का विचार तज देँ और मानवीय शक्ति का एक ही लक्ष्य अपने सामने रखेँ , ऐसे विचारकोँ के विचारोँ का जो संग्रह होगा , वही मानवधर्म होगा । और वह ऋषि प्रतिपादित धर्म की तरह होगा ।- " सहजधर्म " है । " सहजधर्म " अर्थात् जन्मके साथ उत्पन्न हुआ धर्म । मनुष्य के शरीर की शक्तियाँ उसके शरीर के साथ ही जन्म लेती है । उनके गुणधर्म भी जन्म के साथ ही आते हैँ , इसलिए उनके विकाश का मार्ग भी सबके लिए समान ही होगा , यह स्पष्ट है । इसलिए यह धर्म जन्म के साथ आता है , जीवनपर्यन्त साथ - साथ रहता है और मृत्यु के बाद साथ ही साथ चला भी जाता है । - द्वेष आदिको दूर भगाने का सामर्थ्य इस धर्म है ।- साथ चल सकते है या नही . यह प्रश्न ही नहीँ उठता । क्योँकि इन दोनोँ का सहगमन शाश्वत है और सनातन हैँ । भारतीय संस्कृति इसी मानवधर्म के साथ सुसम्बद्ध है । इस धर्म के अभाव मेँ भारतीय संस्कृति भी नहीँ रह सकती । इसलिए भारतीय संस्कृति का विचार करने वालोँ को इस स्वाभाविकधर्म का भी विचार करना चाहिए ।
श्री नारायण हरिः !
वस्तुतः तो मेरा धर्म और तेरा धर्मरूप कलह उत्पन्न होने का कारण ही नहीँ है । क्योँकि सभी मानवोँ मेँ ये शक्तियाँ तो है ही । इसलिए तेरा और मेरा का भेद होना नहीँ चाहिए । सभी मनुष्योँ का एक ही मानवधर्म होना चाहिए । मानवधर्म के जैसे विचार ऋषियोँ के बाणी मेँ प्रकट हुए है । उसी तरह वे इतर पैगम्बरोँ की बाणी मेँ प्रकट हुए नहीँ दिखाई देते । इस प्रकार जो धर्म शान्ति बढ़ाने का कारण बनना चाहिए था
ऋषि प्रतिपादित धर्म
इस धर्म मेँ सब मानवोँ का एकत्र लाने का सामर्थ्य है । श्रेष्ठ मनुष्योँ का निर्माण करना हो तो इसी धर्म का आश्रय लेना चाहिए । धर्म के विषय मेँ वैर
भारतीय संस्कृति इस धर्म के साथ सुसम्बद्ध है । अतः भारतीय संस्कृति का विचार करनेवालोँ को इस स्वाभाविक सहज जन्म के साथ मनुष्य के साथ जुडजानेवाले धर्म का ही ही विचार करना चाहिए ।
धर्म या संस्कृति साथ
श्री नारायण हरिः , मिर्च मेँ तीक्षणता , और करेले मेँ कडवापन स्वाभाविक है , उसी तरह मनुष्य की आत्मा मेँ सामर्थ्य , बुद्धि मेँ ज्ञान , मन मेँ मनन शक्ति , ज्ञानेन्द्रियोँ मेँ ज्ञानग्रहण शक्ति और कर्मेन्द्रियोँमेँ कर्म करने की शक्ति स्वाभाविक है । ये शक्तियाँ अनेक प्रकार की है । ये सभी शक्तियाँ मनुष्यकृत न होकर ईश्वरीय हैँ । इन शक्तियोँ को सन्मार्ग मेँ प्ररित करना , योग्य मर्यादा तक उनको बढ़ाना , उन सबको अपने अधिन रखना , उन्हे उन्नतिकारक मार्ग मेँ प्रवृत्त करना , ये सब काम धर्म के है। इस धर्म से जनसमुदाय का महान् हित होना चाहिए , पारस्परिक प्रेम बढ़ना चाहिए , पारस्परिक द्वेष और वैर न्यून होना चाहिए । इन्हीँ सब प्रयोजनोँ के लिए धर्म का आचरण करना होता है ।, वही द्वेष बढ़ाने का कारण बन रहा है । सभी मनुष्योँ मेँ आत्मा - बुद्धि - मन और इन्द्रिय समान है । भले और बुरे गुणधर्म भी सब मनुष्योँ मेँ है । उनको संयम मेँ रखने की शक्ति भी समान है । तो भी सब मानवधर्म का विचार छोड़कर मेरा धर्म तेरा धर्म का नगाडा बजाते हुए एक दूसरे मारेँ . अपने ही पंथ मेँ लोगोँ को खीँचने की कोशिश करेँ , मानवधर्म के बारे मेँ निष्कारण स्पर्धा करेँ , इससे बढ़कर शोक का विषय और क्या हो सकता ? अतः मनुष्य विभिन्न पंथो का विचार तज देँ और मानवीय शक्ति का एक ही लक्ष्य अपने सामने रखेँ , ऐसे विचारकोँ के विचारोँ का जो संग्रह होगा , वही मानवधर्म होगा । और वह ऋषि प्रतिपादित धर्म की तरह होगा ।- " सहजधर्म " है । " सहजधर्म " अर्थात् जन्मके साथ उत्पन्न हुआ धर्म । मनुष्य के शरीर की शक्तियाँ उसके शरीर के साथ ही जन्म लेती है । उनके गुणधर्म भी जन्म के साथ ही आते हैँ , इसलिए उनके विकाश का मार्ग भी सबके लिए समान ही होगा , यह स्पष्ट है । इसलिए यह धर्म जन्म के साथ आता है , जीवनपर्यन्त साथ - साथ रहता है और मृत्यु के बाद साथ ही साथ चला भी जाता है । - द्वेष आदिको दूर भगाने का सामर्थ्य इस धर्म है ।- साथ चल सकते है या नही . यह प्रश्न ही नहीँ उठता । क्योँकि इन दोनोँ का सहगमन शाश्वत है और सनातन हैँ । भारतीय संस्कृति इसी मानवधर्म के साथ सुसम्बद्ध है । इस धर्म के अभाव मेँ भारतीय संस्कृति भी नहीँ रह सकती । इसलिए भारतीय संस्कृति का विचार करने वालोँ को इस स्वाभाविकधर्म का भी विचार करना चाहिए ।
श्री नारायण हरिः !
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