Thursday, February 2, 2012


                           ।। श्रीपरमशिवेन्द्रगुरुवे नमः  ।।
                                                                 " ध्यान विधि " -
शिव । शिव ।। श्रुतिमहारानी कहती है -
" त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं
हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य ।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्
स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ।। "
अर्थात् तीनोँ को उन्नत रखकर , और शरीर को सीधा रखकर , और मन के द्वारा इन्द्रियोँ को हृदयमेँ संनिविष्ट करके विद्वान प्रणव - ब्रह्मरूपी नौका का आश्रय लेकर समस्त भयानक सरिताओँ को तर जाता है ।
तो आईये  । अगर , आपको प्रणव - ब्रह्मरूपी परमसदाशिव का ध्यान करना है तो , बताता हूँ । ध्यान कैसे करेँ -
" श्रुतिमहारानी जी कहती हैँ - " त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम् " अर्थात् शरीर से थोड़ा उपर उठेँ । क्योँकि शरीर तो एक दिन मर जाने वाला है , यह आपका शरीर तो एक दिन छूटने वाला है । शरीर छूटने वाला है तो इसके साथ मत जुड़ेँ । थोड़ा दर्द भी होतो सहलेँ , और धीरे -धीरे इसको अभ्यास करके साध लेँ , सधा लेँ । जब एक दिन यह मरने ही वाला है तो जरा इसको सीधा करने मेँ क्या लगता है ? कई लोग कहते कि महाराज , सीधा करने मेँ बड़ा कष्ट होता है । तो भाई जब इस शरीर को सीधा करने मेँ कष्ट होता है तब मरते समय भी बहुत तकलीफ होगी। मरते समय जब बन्धन टूटने लगेँगे , और यह गाँठ टूटी और वह गाँठ टूटी जब होने लगेगा , तब उसको जरूर कष्ट होगी । इसलिए आप थोड़ा शरीर को जरूर से जरूर साध ले आज से ही अभी से ही अभ्यास अवश्य शुरु कर देँ ।
" शीर्यते इति शरीरम् " - सड़ने वाला होने के कारण इसको  शरीर बोलते हैँ । और उर्दु भाषा मेँ तो शरीर को कहते है जो शरारत करे । उर्दु भाषा मेँ शरीर माने होता है शरारती - बड़ा शरीर  है । यदि इस शरीर को थोड़ा आप कहो कि रह जा बेटा थोड़े दिन , तो , यह तो आपके रखे रहने बाला नहीँ है । जब इसको भागना होगा  तब यह भाग जायेगा , इसलिए यह शरीर है । बहुत शरीर है , रखे नहीँ रहता , भगाये नहीँ भागता है । इसलिए श्रुति कहती है - " त्रिः उन्नतं स्थाप्य  " जब ध्यान करने आप बैठेँगे तो तीन जगह इसको ऊँचा करके बैठेँगे । कहने का अर्थ है कि थोड़ी साँस भीतर रोक लेँगे , जब आप थोड़ी साँस को भीतर रोकेँगे तो आपका छाती जो है वह थोड़ी उपर हो जायेगी । तो उन्नत हुआ न आपका वक्षस्थल , और दूसरी बात कि आँख बन्द करके थोड़ा सिर को ऊँचा कर लेँगे , जिससे आपका सिर लटकेगा नहीँ , सिर उन्नत हो गया न । और तीसरी बात भाई गर्दन जो आपका उसको भी थोड़ा ऊँचा कर लेँगे । ये तीन बाते है आपके निन्द्रा तन्द्रा और आलस्य को दूर कर देगी । हुई न बात बड़ी काम की ! बिलकुल पीछे की ओर सिर का गर्दन को नहीँ करना चाहिए । क्योँकि सुषुम्णा सीधी रहे यह सबसे  सबसे बढ़िया रहता है । सर्वोत्तंम यह होता है की सुषुम्णा जो है वह मूलाधार , स्वानिष्ठान , अनाहत् आदि के क्रम से बिलकुल ठीक संचारित हो। सहस्तरदल कमल जो सिर मेँ है वह बिलकुल खिला हुआ उपर रहे , इस ढ़ंग से बैठना चाहिए । " त्रिरुन्नतं स्थाप्य " तीन जगह से शरीर मेँ थोड़ी ऊँचाई ध्यान के समय आ जानी चाहिए ।
" त्रिः स्थाप्य " अथवा दिनभर मेँ कम - से - कम तीन बार जरूर करना चाहिए । क्या चीज़ करना चाहिए ? उन्नतं शरीरं अपने शरीर को सम और उन्नत करना चाहिए ।
" समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः " ।
ध्यान मेँ " सम " की बड़ी भारी महीमा है - धरती भी सम चाहिए , जो आसन बिछावेँ वह भी सम चाहिए । समतल भूमी मेँ आसन लगाना चाहिए , ऊँची - नीची , उबड़ - खाबड़ नहीँ , नहीँ तो कुछ चुभने लग जायेगा ।
आसन ऐसा होना चाहिए कि जिसके नीचे वायु पार कर सके , इसका बहुत महत्त्व है । बढ़िया काले कम्बल पर बैठ जाने से गर्मी बढ़ जाती है, बढ़िया कालीन - ऊनीपर बैठने से भी ऐसा होगा । तो थोड़ा कुशासन चाहिए , थोड़ा वस्त्र चाहिए , जिससे हवा नीचे से आती - जाती रहे , नही तो अर्श रोग अर्थात् बवासीर हो जाता है । डनलप पर या रबड़पर या रूई पर या खाली ऊन पर बैठते हैँ उनके निचे थोड़ी गर्मी बढ़ जाती है , जिससे बवासीर होने का डर रहता है । यह बात पहले तो ध्यान करने वाले साधक को मालूम नहीँ पड़ती है और वह दूसरे से सलाह लेना नहीँ चाहता , अपनी ही अक्कल सब जगह लगाना चाहता है , हम क्या बेवकूफ हैँ कि दूसरोँकी सलाह लेँ ? और ऐसा रास्ता है कि बिना सलाह लिए एक कदम इसपर चल नहीँ सकते हैँ । हाँ , भगवान् का नाम बिना सलाह के भी ले लेँ तो ठीक है ।
स्थाप्य का अर्थ है कि ध्यान के समय खड़े न रहेँ और उन्नत स्थाप्य का अर्थ निद्रा न आवे , आलस्य न आवे , प्रमाद न आवे - इस ढ़ंग से बैठना चाहिए ।
" मनसा हूदीन्द्रियाणि संनिवेश्य " अर्थात् मन के द्वारा इन्द्रियोँ हृदय मेँ ले जाकर सन्निविष्ट करना अर्थात् सुलाना । सन्निविष्ट का अर्थ सुलाना होता है । प्रवेश नहीँ है , इन्द्रियोँ को हृदय मेँ प्रवेश कराना नहीँ । इसको भी ऐसा समझे कि एक आदमी बैठा और बैठकर उसने कहा कि अब इन्द्रियोँ को हृदय मेँ ले जाना है , तो उसने अपने पलकोँ को  जोर से  आँख दबाया  - आँख  दबाया अर्थात् अपनी पुतली को और आँखको दबाकर कहीँ भीतर कलेजे मेँ ले जाना हो । अब थोड़ी देर बाद सिर मेँ भी दर्द होने लगा और आँखोँ मेँ दर्द होने लगा । तो यह दबाने से मतलब नहीँ है - दबाना बिलकुल नहीँ है , एक दम ढीला छोड़ने का है । तब इन्द्रियोँ को हृदय मेँ ले जाने का क्या अर्थ है ? यह नहीँ की कबन्ध की तरह हृदय मेँ भीतर रख लेँ । कबन्ध का मुँह कहाँ था ? रामायण मेँ अरण्यकाण्ड मेँ कथा है कि श्रीराम ने कबन्ध को मारा था , तो उसकी आँख , उसका मुँह  सब पेट मेँ था । इस तरह कबन्धासुर की तरह आपको अपने आँख - कान - नाक - मुँह को पेट मेँ नहीँ ले जाना है , बल्कि मन से इनकी जो वृत्तियाँ है उनको हृदय मेँ ले जाना है । लोग कई ऐसे है जो तथाकथित ध्यान के लिए संकल्प करते है कि ध्यान के समय आँख से देखेँगे नहीँ , कान से सुनेँगे नहीँ , त्वचा से छुने नहीँ , सब संकल्प छोड़ दो । कह तो देते है कि संकल्प छोड़ दो , संकल्प छोड़ दो , हम तो संकल्प को छोड़ देते हैँ , लेकिन संकल्प हमको छोड़े तब न भाई । लोक मेँ एक कथा बड़ा प्रसिद्ध है  - दो मित्र कहीँ नदी के किनारे घूम रहे थे । उनको दिखा की कोई कम्बल बहा जा रहा है नदी मेँ । एक ने कहा तुम खड़े रहो , मैँ जाकर लाता हूँ । नदी की धारा मेँ कूद पड़ा और जाकर कम्बल पकड़ने लगा तो वह कम्बल नहीँ , भालू था । भालू ने उसको पकड़ लिया । अब वह भालू के साथ बहे जा रहा है। किनारे से जो दूसरा मित्र था उसने पुकार कर कहा कि छोड़ दो , छोड़ दो । जो भालू के साथ बहा जा रहा है वह कहता है कि मैँ तो छोड़ना चाहता हूँ , लेकिन कम्बल मुझे नहीँ छोड़ना चाहता । तो किसी को ऐसे ही हुक्म दे देना कि सब संकल्प छोड़ दो , छोड़ दो , तो लोग समझते है कि हमने कह दिया और संकल्प छूट गया । यही छूड़ाने के लिये महाराज लोग बहुत जल्दी चेला बनाते हैँ । कहते है कि देखो , हम तुम्हे अभी संकल्प से मुक्त करते हैँ - कोई बुर्का है जो फाड़कर फेँक देँगे । पर , यह कोई बुर्का नहीँ है जो फाड़कर फेँका जा सकता है । फिर ? जब चन्दन , अक्षत , चढ़वा लिया , भेँट दक्षिणा ले ली , चेला बना लिया , तब , बोले की हम एक मन्त्र बताते हैँ , इसका जप करना । चेला बोलता है कि मन्त्र का जप तो हम पहले से करते है , तो महाराज कहते हैँ कि हम जो बताते हैँ उसी का जप करो , पहले बाले मन्त्र को छोड़ो , पहले बाले गुरु को छोड़ो तब हम गुरु बनते है , हमारे मन्त्र का जप करो । फिर चेला बोलता है कि एक महीना तो हो गया जप करते, तो महाराज बोलते कि " अरे । " बारह वर्ष इसका अभ्यास करो तब तुम्हारा ध्यान लगेगा । बात तो वही - की - वही रही। इष्ट छोड़ने का अपराध और लगा , गुरु छोड़ने का अपराध और लगा , मन्त्र छोड़ने का अपराध और लगा । रहे कहाँ , जहाँ - के - तहाँ ।
 शिव । शिव ।। संकल्प को छोड़ना " महाराज " , कोई खिलवाड़ नहीँ है । इसको कैसे पार करना? मनसा अर्थात् मन से इन्द्रियोँ को हृदय देश मेँ ले जाईये। कैसे ले जाँये ? श्वास आती है और जाती है , जो श्वास आप भीतर लेते हैँ , और फिर जब बाहर निकालते हो । तो जहाँ साँस की सीमा है वहाँ हृदय है और उस हृदय मेँ " वामन भगवान् " रहते हैँ अपान - वायुका क्षेत्र जहाँ से अलग होता है और प्राण - वायुका क्षेत्र जहाँ से अलग होता है वहाँ नन्हे - मुन्ने वामन भगवान् बैठे हैँ । सारी इन्द्रियोँ के वृत्ति को वहाँ ले चलना है । यह दो तरह से होता है - एक आलम्बन सहित और एक निरालम्ब सहित । आलम्बन से जो होता है वहाँ तो वामन भगवान् को बैठा लेँ - अर्थात् राम को , कृष्ण को , वामन को , शिव को अर्थात् अपने इष्टदेव को जो " अङ्गुष्ठ - मात्र पुरुषः " है - आत्मा को अपना आत्मा ही तो अंगुष्ठ मात्र है - उसको बैठा लेँ और मन को उसमेँ सन्निविष्ट करते हुए सारी वाह्य - वृत्तियोँ को छोड़ देँ । वहीँ शब्द है , वहीँ रूप है , वहीँ रस है , वहीँ गन्ध है । अथवा वहाँ शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गन्ध का अभाव है ।
अपने नाम - रूप मेँ आग्रह करनेवाले नहीँ है - केवल आलम्बन के रूप मेँ नाम - रूप की चर्चा करते हैँ । क्योँकि इससे मन एकाग्र होता है , मन पवित्र होता है , मन शुद्ध होता है । एक नाम - रूपमेँ जिनका आग्रह होता है वे सम्प्रदाय दूसरे होते हैँ । और अपने को तो कोई भी नाम- रूप जो शास्त्रोक्त है उसको लेकरके अपने मन को एकाग्र कर लेँ - " राम - राम " करके मन एकाग्र करेँ , " कृष्ण - कृष्ण " करके मन एकाग्र करेँ , " नारायण - नारायण " करके मन को एकाग्र करेँ , " शिव - शिव " कह करके मन को एकाग्र करेँ - कैसे भी मन को आलम्बन रहित एकाग्र करेँ । कोई - कोई भगवद् भक्त निरालम्ब होते हैँ , कोई आलम्बन नहीँ लेते हैँ । उनके मन मेँ ही इतनी शक्ति होती है कि सारी इन्द्रियोँ की वृत्ति को बिना आलम्बन के ही अन्तर्मुख कर लेते हैँ । श्री रामकृष्ण परमहंस देव कहते थे - नग्न खड़े हो जाओ और दोनोँ हाथ ऊपर उठा दो - निरालम्ब , निर्भय । इसी प्रकार हृदय लोक मेँ जाकर के कोई भी आलम्बन मत रखेँ । परन्तु यहाँ तो श्रुति के इस मन्त्र मेँ आलम्बन का वर्णन है -
" ब्रह्मोडुपेन इन्द्रियाणि हृदि संनिवेश्य " ।
" ब्रह्मोडुपेन " अर्थात् ब्रह्म अर्थात् ॐ कार ही है नाव । इस ओँकार रूपी नाव से दो काम करना है - एक तो बड़े भयानक झरने हैँ , नदी है उसको पार करना है और दूसरा परमात्मा के धाम पहुँचना है । अपने लक्ष्य पर पहुँचना और बीहड़ नदी - नाले को पार करना - ये दो काम है। इसलिए " उभयत्र संबध्यते ब्रह्मोडुपेन " अर्थात् प्रणव - ओँकार के द्वारा मन से इन्द्रियोँ को हृदय मेँ ले जाने का दो कामोँ से सम्बन्ध है ।
परमात्मा के धाम हृदय मेँ ले जाने के लिए भी , इन्द्रियोँ को मन के पीछे ले जायेँ । तो क्या करना ? " दीर्घँ प्रणवमुच्चार्य मनोराज्यं विलियते" - अगर इन्द्रियोँ के वृत्ति पर विजय प्राप्त करना है तो दीर्घ अर्थात् लम्बा प्रणव का उच्चारण करेँ । कैसा लम्बा ? कभी कमल की नाल को तोड़ और उसको खीँचे तो उसमेँ से ताँत निकलती है , ताँत , तो जैसे उसको खीँचने पर ताँत निकलती जाती है , वैसे ही ॐ कार का उच्चारण करे कि ताँत मेँ से ताँत , ताँत मेँ से ताँत , ताँत मेँ से ताँत निकलती जाती है . ऐसे लगातार ॐ - ॐ - ॐ - ॐ - ॐ उच्चारण काल को लम्बा कर देँ। जैसे यदि राम बोलना हो तो एक , एक ओर हुआ " रा " और एक ओर हुआ " म " बीच मे खाली जगह है कि नहीँ? जब आप लिखते हो " राम " बीच मेँ खाली जगह नहीँ रहेगी तो " राम " दो अक्षर ही नहीँ होँगे । तो " नारायण " , राम को ऐसे ढंग से बोलेँ , कृष्ण को ऐसे ढंग से बोलेँ , ॐ कार को ऐसे ढंग से बोलेँ जिसमेँ  " ओ " और " म " के बीच मेँ थोड़ा अन्तर बढ़ जाये - अवकाश बढ़ जाये। तो " नारायण " , " ओ " और " म " के बीच मेँ जो काल होगा , अवकाश होगा उतने काल मेँ आपका मन " निःसंकल्प " हो जायेगा।
" ओ " और " म " या " रा " और " म " - दोनोँ की सन्धि मेँ ब्रह्म होता है । जैसे आप बैठे हो और कोई पुस्तक देख रहे हो , और फिर देखते हैँ चन्द्रमा को तो चन्द्रमा और आपके आँख के बीच मेँ कितनी दूरी है - हजारोँ लाखोँ योजन की दूरी है । अब ? अभी तो आप देख रहे थे पुस्तकको और अभी देखा चन्द्रमा को , तो पुस्तक मेँ से चन्द्रमा की ओर मन पहुँचने मेँ कितनी देरी लगी ? कुछ तो देरी लगी न भाई । इतनी देरी मेँ कौन है ? ब्रह्म है . विषय नहीँ है । इसलिये जब आप दीर्ध प्रणव ( ॐ कार ) का उच्चारण करेँगे तो " प्रणव उच्चार्य मनोराज्यं विलीयते " अर्थात् आपके मनोराज्य का नाश हो जायगा । इसका तात्पर्य है कि उस समय आपकी आँख रूप नहीँ देखेगी , आपका कान शब्द नहीँ सुनेगा - " इन्द्रियाणि हृदि संनिवेश्य " - इन्द्रियोँ की सारी शक्ति जाकर हृदय मेँ " सन्निविष्ट " हो जायेगी , सो जायेगी हृदय मेँ । उस समय शब्द - ग्रहण शक्ति , रस - ग्रहण शक्ति , रूप - ग्रहण शक्ति , गन्ध - ग्रहण शक्ति , स्पर्श - ग्रहण शक्ति - ये सब - की - सब शान्त हो जायेगी - दीर्घ प्रणव - ॐ कार के उच्चारण करने से ।
अब " नारायण " , प्रणव से क्या - क्या लाभ है इस बात को हम आपको बताते है । एक तो प्रणव दोषोँ को दूर करता है । दूसरा इन्द्रियोँ को हृदय मेँ ले जाता है और तीसरा - परमात्मा का साक्षात्कार कराता है - " नारायण " , ये तीनोँ बात " ब्रह्मोडुपेन " से होती है । समझदार आदमी होवे तो प्रणव के जप से ही सब खाइयाँ पट जायेँगी , प्रणव जप से ही मन एकाग्र हो जायेगा और प्रणव के जप से ही निश्चित परमात्मा का साक्षात्कार हो जायेगा । यह जो प्रणव शब्द है यह भगवन्नाम मात्रका उपलक्षण है - जितने भगवान् के नाम हैँ उन नामोँ का उपलक्षण है । परन्तु यदि कोई वेदान्ती हो और क्रिया - शक्तिको और शब्द - शक्तिको यथार्थ मान करके उनमेँ आसक्त हो जाये , तो यह समझेँ कि अभी वेदान्त का संस्कार उसके चित्तमेँ बहुत कम है । क्या शब्द - शक्ति और क्या क्रिया - शक्ति और क्या द्रव्य - शक्ति - ये जो होती है ये अध्यारोपित न्याय से होती है और अध्यारोपित न्यायसे जब होती है तब भगवान् के सर्व - नामकी शक्ति और सर्व - क्रियाकी शक्ति और सर्व- रूपकी उपासना की शक्ति मेँ कोई भेद नही किया जाता । सर्व उपासनामेँ - मिट्टीमेँ भगवान् , पानीमेँ भगवान् , आगमेँ भगवान् , वायुमेँ भगवान् ! रोज बोलते हैँ - " वायु त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि " , यह उपासना की रीति है । तो , जैसे " वायु त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि " , इसी प्रकार " प्रणव त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि " , " राम त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि " , " कृष्ण त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि " - यह उपासना की पद्धति चलती है ।
शिव । शिव । काम - क्रोधादि दोषोँका निवारण करना , इन्द्रियोँ को ले जाकर हृदय मेँ पहुँचाना और फिर पवित्र और तीक्ष्ण बुद्धिके द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करना - ये तीनोँ काम परम्परा - साधन , बहिरङ्ग - साधन और अन्तरङ्ग - साधन - ये तीनोँ साधन प्रणव - ॐ कार के द्वारा सम्पन्न होते हैँ । दोषोँ की निवृत्ति परम्परा - साधन हैँ और मन की एकाग्रता " मेरे बन्धु " , बहिरङ्ग साधन है और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान अन्तरङ्ग साधन है , और स्वयं प्रणव - ॐ कार जो है " नारायण " , जब " महावाक्य " का बोध हो जाता है तब वह साक्षात् साधन हो जाता है । परम्परा - साधन , बहिरङ्ग - साधन , अन्तरङ्ग - साधन साक्षात् - इन चारोँ मेँ भगवान् सदाशिव का नाम चलता है ।
अब आपको ध्यान की बात कहता हूँ । क्योँकि ज्ञान की बात तो सब समय जान लेते हैँ । ध्यान ज्ञान मेँ सदा सहायक होता है और ध्यान करने से जो एक मस्ती आती है जीवन मेँ , वह व्यवहार काल मेँ सदा बनी रहती है । अगर कोई विवेकी है और ध्यान न करे , तो जब वह व्यवहार मेँ पड़ेगा तो जल्दी - जल्दी चिड़चिड़ा जायेगा , घबड़ा जायेगा , उसकी मस्ती चली जायेगी । विवेक बहुत होने पर भी जब उस विवेकी को व्यवहार मेँ उतरना पड़ेगा , तब व्यवहार - मेँ उसमेँ " दैन्य " आ जायेगा , हीनता आजायेगी , और ध्यान करनेवाला यदि होगा तो वह चिड़चिड़ायेगा और न घबड़ायेगा और न वह दीन - हीन होगा , बल्कि उसकी मस्ती हमेशा बनी रहेगी । ध्यान का नशा होता है , यह बिना कुछ खाये - पीये ही नशा होता है । ध्यान का जो नशा होता वह बुद्धि को बढ़ानेवाला और बुद्धिको बनाये रखनेवाला है जब की अन्य जो नशा होता है बह बुद्धि का नाश करने वाला होता है । और " मेरे भगवन् " , अन्य जो नशा है वह जब उतर जाता है तो सुस्ती आजाती है और ध्यान का नशा उतर पर शान्ती आती है । और जब तक यह जागता है तबतक मनुष्य जगमगाता रहता है । ध्यान के नशे चमक है " मेरे भाई " , चमक।
ध्यान हृदय मेँ करना है न , तो हूदय कहाँ है ? नाभी से 12 बारह अङ्गुल ऊपर कमलाकार जो मांस - पिण्ड है , उसकी शकल तो है कमलकी और वह पहले नीचेको लटकता हुआ रहता है और ध्यान करने ऊपरको उठकर खिल जाता है । ऐसा जो 12 बारह पंखुड़ीवाला यह कमल है , इसकी पंखुड़ीयोँ पर " क " से लेकर " ठ " तक - क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ . ट ठ - ये बारह अक्षरोँ का न्यास है । इसी का नाम " कठ " होता है । " कठ "  अर्थात् हृदय - इसलिए " कठोपनिषद् " अर्थात् क से लेकर ठ तकके अक्षरोँ का जिसपर न्यास किया जाये - योगाभ्यास मेँ कुण्डलनी जागरण के समय - उसका  " कठ " । " कठ " माने काठ नहीँ समझेँगे । जिनका हृदय काठकी तरह होगा उनको तो ध्यान लगेगा नहीँ - ध्यान करते समय भी हृथय मख्खन के जैसा होना चाहिए तब ध्यान लगता है ।
हृदय मेँ इन्द्रियोँ के " संनिवेश्य का क्या अर्थ है ? यह नहीँ कि आँख , नाक , कान सबको दिल मेँ गड़ाना पड़ता है । " मनसा संनिवेश्य " अर्थात् ध्यान के समय , शब्द की , स्पर्श की , रूप की , रस की , गन्ध की जो कल्पनाएँ चित्त मेँ जाग्रत अवस्था मेँ होती है इन सब कल्पनाओँ को छोड़ देँ- ईन कल्पनाओँ का छूट जाना ही इन्द्रियोँ का हृदय मेँ जाकर सो जाना है । इन्द्रियोँ को कार्य - कारिणी अवस्था मेँ मत रखेँ , इनका हृदय मेँ संनिवेश करेँ । संनिवेश अर्थात् हृदय के 5 पाँच छेद जो हैँ आजकल के चिकित्सक को चार छेद मिल गये हैँ , पाँचवा नहीँ मिला है , तो यह पाँचवा छेद जो है वह परमात्मा से मिलने के लिए - तो जो चार छेद है इनमेँ से मनोवृत्ति न निकलने पावे । थोड़ी देर के बाद रक्त संचार भी बन्द हो सकता है , वायु संचार भी बन्द  हो सकता है , नाभि - संचार भी बन्द हो सकता है  - मनुष्य बिलकुल निःस्पन्दित होकर ध्यानमेँ बैठ सकता है । यह हमारा सिद्ध अनुभव है ।
इन्द्रियोँ को ले जाने के लिए श्रुतिमहारानी ने नौका बतलायी - " ब्रह्मडुपेन " । अर्तात् प्रणव - " ॐ कार " का सहारा । " उडुप " अर्थात् छोटी नाव । बड़े - बड़े पाठ करके मनको एकाग्र नहीँ करेँ, छोटी नाव  से ही " ब्रह्मसरोवर मेँ पहुँच जायेँ  । " उडुप " छोटी नाव , यह छोटी नाव क्या है? प्रणव " ऊँ कार " । लम्बे जो मन्त्र होते है न उनमेँ अक्षर बहुत होने से चित्र को भिन्न - भिन्न अक्षरोँ पर जाने मेँ चंचल होना पड़ता है और छोटा जो मन्त्र है वह चित्तमेँ एकाकारता को कायम रखने मेँ समर्थ होता है । छोटा मंत्र चित्तमेँ एक ही आकार लाता है और बड़ा मन्त्र जो होता है वह चित्तमेँ बहुत से अक्षरोँ को और अर्थोँ के आकार लाकर भरता है । इसलिए " हे मेरे साधक मित्रवर। " एक होवे तो बहुत अच्छा । कृष्ण का नाम हो , राम का नाम हो , नारायण का नाम होवे , वासुदेव का नाम होवे । मरजी आपकी । बारम्बार वही नाम आवे तो बहुत - बहुत अच्छा ।
मेरे नारायण । " ब्रह्मौडुप " का और भी अर्थ है । " उपनिषद् " की नाव से  - ब्रह्म माने उपनिषद्। " ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव " इस श्रुतिवचन से " बह्मोडुपेन " अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रियोँ मेँ जो पहली अवस्था है ब्रह्मा की , उस ब्रह्मा - " हिरण्यगर्भ " का चिन्तन करके इन्द्रियोँ को मन मेँ लीन कर करेँ । यह क्या बात हुई ? यह जो आपकी इन्द्रिया जो पाँचभूत है , इनको  " तन्मात्रा " मेँ और " तन्मात्रा " को " अहंकार " मेँ और " अहंकार को " महत्तत्त्व " मेँ लीन करेँ । महत्तत्त्व अर्थात् " समष्टि बुद्धि । उस समष्टि बुद्धि से उपहित जो चैतन्य है " हिरण्यगर्भ " - ब्रह्मा , उसको बना ले नाव " ब्रह्मोडुपेन " । हिरण्यगर्भ का जो चिन्तन करेँगे  वह होगी आपकी नाव ।
 " हे मेरे जिज्ञासु साधको ! " यह कभी भी नहीँ समझेँगे कि उपासनाओँ से चित्तकी एकाग्रता नहीँ होती है । बहुत बढ़िया एकाग्रता होती है । बल्कि एक बात और आपको बताता हूँ प्रेम से विचार करेँगे उस पर ।  जैसे एक पिता ने कहा बालक से बेटा तुम यह काम कर दो तो तुमको मिठाई देँगे । अब बेटे ने काम कर दिया । बोला पिता जी अब मुझे मिठाई दो , मैने आपका काम कर दिया । तो पिता जी ने लाकर पेड़ा जो एक तरह का मिठाई होता होता है , बच्चे को दिया । बेटे ने कहा कि पिता जी , यह तो मिठाई नहीँ है , यह तो पेड़ा है । पेड़े लेने से मना कर दिया । बर्फी दिया तो कह दिया की यह तो बर्फी है । गुलाब जामुन , रसगुल्ले लाकर दिया गया । सब को बच्चे ने मना कर दिया । मिश्री दिया , चीनी दिया , बच्चा बोला यह तो मिश्री है चीनी है , सबको मना कर दिया - बोला यह तो मिठाई नहीँ है । अब आपही बतायेँ लड़के को मिठाई कैसे मिलेगी ? मिठाई अनेक नाम , अनेक रूप लेकर प्रकट हो रही है  - मिठास ही तो है सबमेँ - सबका सार , सबका तत्त्व , सबका हृदय मिठास है । मगर वह लड़का न पेड़े को मानता है , न बर्फी को मानता है , न शक्कर को मानता है , न मिश्री को मानता है , तो उस बालक को मिठास कहाँ से मिलेगी ? इसी प्रकार से जो मिठास रूप ब्रह्म है , उसका हृदय मेँ आस्वादन करने के लिए " ब्रह्मोडुपेन " है । जिसमेँ आपकी ब्रह्मबुद्धि हो उसीको नौका बनायेँ , जिसमेँ ब्रह्म - रूप नौका , इष्टदेव रूप नौका , गुरु - रूप नौका , सूर्य - मण्डल रूप नौका - ये सब नौका होती है । इससे क्या होगा कि आपको इद्रियोँ को बाहर से भीतर  ले जाने मेँ सहायता मिलेगी । " नारायण " , यह ध्यान की रीति है । इन्दियोँ को अगर मन मेँ ले जाना है और मिठाई खिलाना है तो गुलाब जामुन को , बर्फी को , रसगुल्ले को , पेड़े को आश्रय बनाकर उसमेँ ब्रह्म - रूप मिठास का आस्वादन करेँ ।
हृदय मेँ जो छेद है उस छेद मेँ से सब नाम - रूप को निकाल देँ । अब नाम - रूप का अभाव हो गया । बहुत बढ़िया हो गया । अब तो " वेदान्त " हो गया । क्योँकि " नेति - नेति " कहकर नाम - रूप का अभाव कर दिया । बहुत बढ़िया । आपके मुँह मेँ घी - शक्कर है । आप यही "  नेति - नेति " करके निषेधावधि का ध्यान करेँ । लेकिन यह भी परिच्छिन्न है । क्योँ ? आपके हृदय के मांस - खण्ड से आवृत एक छिद्र विशेष है , इसलिए पहले भावात्मक नाम - रूप का वर्णन कर रहे थे और अब बीजात्मक नाम - रूप का वर्णन कर रहे हैँ । आपने आश्रय तो लिया पर जबतक इसकी ब्रह्मताका ज्ञान न हो जाये तबतक यह भी एक मूर्ति है । कैसे ? आपने चिदम्बरम ( दक्षिण भारत ) मेँ देखा होगा - एक माला केवल । इसके भीतर कौन है ? यह शिव की मूर्ति है । यह तो आकाश है , शिव की मूर्ति कहाँ से है ? है तो यह आकाश , लेकिन यह माला की उपाधि से चिदाकाश भासता है । इसमेँ न पृथ्वी है , न अग्नि है , न जल है , न वायु है - है केवल आकाश । इसी प्रकार आपका हृदय जो है सो मालाकी उपाधि की तरह उपाधि है और उसके भीतर प्रतियामान जो ब्रह्म है वह " चिदम्बर - शिव " की मूर्ति है । चिदम्बर अर्थात् चिदाकाश - अम्बर अर्थात् आकाश । यह चिदाकाश , शुद्ध चिदाकाश जो है उसका शिव के रूप मेँ हृदय के आकाश मेँ ध्यान किया तो आपने अपने को निराकारी मानकर संतोष किया जरूर , लेकिन यह निराकार मेँ ही कल्पित एक आकार विशेष है और वह भी नाम विशेष है , वहाँ मीठास का अनुभव करेँ ।
कैसे - न - कैसे भी एक परिच्छिन्न आलम्बन को हृदय मेँ धारण करके - प्यारा - प्यारा होवे या रूखा - रूखा होवे - किसी तरह से कैसे भी अपनी चित्तवृत्ति को एकाग्र करेँ । विरक्त साधक मित्र जो है वे रूखे आधार मेँ भी मन को एकाग्र कर सकते हैँ और जो प्रेमी लोग है वे साकार आधार मेँ अपने मन को एकाग्र करते है । " हृदि " अर्थात् हृदय मेँ - जो निर्विशेष सत्ता है परब्रह्म परमात्मा , उसको ब्रह्मा " उडुप " अर्थात् नाव बनाकर इन्द्रियोँ को मन मेँ लीन करेँ । वही " हिरण्यगर्म " है राम रूप मेँ , कृष्ण रूप मेँ , विष्णु रूप मेँ , शिव रूप मेँ । और उसका जो लोक है- ब्रह्मलोक , वही शिव भक्तोँ को कैलाशके रूप मेँ , राम भक्तोँ को साकेत के रूप मेँ , कृष्ण भक्तोँ को गोलोकके रूपमेँ और नारायण भक्तोँ को वैकुण्ठके रूप मेँ अनुभव मेँ आता है । उपनिषदोँ का जो ब्रह्मलोक है वह ब्रह्मलोक ही भिन्न - भिन्न रूप मेँ अनुभव आता है । यह है नाव , इसका आलम्बन लेकेकर इन्द्रियोँको हृदयमेँ लीन करेँ ।
" प्रतरेत विद्वान् स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानी " ।
साधक मित्र जो है वे रूखे आधार मेँ भी मन को एकाग्र कर सकते हैँ और जो प्रेमी लोग है वे साकार आधार मेँ अपने मन को एकाग्र करते है। " हृदि " अर्थात् हृदय मेँ - जो निर्विशेष सत्ता है परब्रह्म परमात्मा , उसको ब्रह्मा " उडुप " अर्थात् नाव बनाकर इन्द्रियोँ को मन मेँ लीन करेँ । वही " हिरण्यगर्म " है राम रूप मेँ , कृष्ण रूप मेँ , विष्णु रूप मेँ , शिव रूप मेँ । और उसका जो लोक है - ब्रह्मलोक , वही शिव भक्तोँ को कैलाशके रूप मेँ , राम भक्तोँ को साकेत के रूप मेँ , कृष्ण भक्तोँ को गोलोकके रूपमेँ और नारायण भक्तोँ को वैकुण्ठके रूप मेँ अनुभव मेँ आता है । उपनिषदोँ का जो ब्रह्मलोक है वह ब्रह्मलोक ही भिन्न - भिन्न रूप मेँ अनुभव आता है । यह है नाव , इसका आलम्बन लेकेकर इन्द्रियोँको हृदयमेँ लीन करेँ ।
" प्रतरेत विद्वान् स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानी " ।
एक आदमी सीढ़ी पर से उतर रहा था और एक रस्सी लगी हुई थी उसके उपर , पर वह रस्सी ( डोरी ) थोड़ी गन्दी थी । तो जब वह उतरने लगा तब सीढ़ीपर से उसका पाँव फिसल गया और वह गिरने लगा । तो एक दूसरे आदमी ने गिरते  देखकर कहा कि यह रस्सी पकड़ लो । बोला ना - ना - ना , यह रस्सी गन्दी है , यह हम नहीँ पकड़ेँगे । "अरे यार " , गन्दी भी थी तो पकड़ लेते तो गिरने से तो बच जाते न ? वह आदमी जो गिर रहा था बोला - वाह , " मैँ भला यह रस्सी पकड़ूँ ? अब गिर पड़े । अब आपहीँ विचार करेँ की कोई कूँए मेँ गिरा हो और कोई रस्सी पकड़ावे कि इसको पकड़कर निकल आओ और वह कुँए मेँ गिरा हुआ आदमी कहे कि नहीँ रेशम की रस्सी लाओ तब हम पकड़कर निकलेँगे यह सन - सूत की रस्सी हम पकड़ने वाले नहीँ हैँ । तो कुँए मेँ ही रहेगा न ? इसी प्रकार " नारायण " , " स्रोतांसि सवाणि भयावहानि " - बड़े - बड़े भयंकर सोते बह रहे है । " स्रोतांसि " अर्थात् स्रोत  । इसको भी ठीक - ठीक समझे - एक स्रोत मनको बहने के लिए आँख का खुला है - रूप के गड्ढे मेँ जाये , एक स्रोत कान के रास्ते खुला है - संगीत मेँ फँस जाये , त्वचा का एक स्रोत खुला जो छुने मेँ फँस जाये । आप जानते ही हैँ -
" कुरङ्ग मातङ्ग पतङ्ग भृङ्ग मीन हतः पंचभिरेव पंच । "
कुरङ्ग - हरिण जो वह केवल शब्द सुनकर फँस जाता है , हाथी छूकर फँस जाता है , पतङ्ग देखकर आग मेँ गिर पड़ता है , और इसी तरह से एक - एक विषय से मनुष्य संसार मेँ फँस जाता है और मनुष्य के लिए तो पाँच - पाँच सोते बड़े भयंकर रुप से बह रहे हैँ ।
अपने जीवन मेँ भयावह स्रोत हैँ - " भयं आवहन्ति " - जो भय लाते हैँ , जिनको देखकर आदमी डर जाता है , इन सोतोँ को पार करना है तो कौन पार करेगा - एक तो विद्वान . समझदार होना चाहिए । समझदारी यही है कि यह मत देखेँ कि सबसे मजबूत नाव कौन - सी है ; यह देखेँ कि हम इससे पार हो जायेँगे या नहीँ ? समझदारी यह है कि इससे पार होने की कोशिश करेँ - हम इन सोतोँ को पार हो जायेँ । पार होने के लिए नाव क्या है " ब्रह्मोडुपेन " । " हिरण्यगर्भ " जो जगद्गुरु है उसकी नौका , वेद - उपनिषद् की नौका , प्रणव की नौका - इस नौका पर सवार होकर विद्वान् पुरुष को ये सोते पार कर लेना चाहिए ।
" स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि " का पौराणिक अर्थ क्या है ? " स्रोत " का अर्थ है - " योनि योन्यन्तर । कोई " ऊर्ध्व - स्रोत " है , कोई " तिर्यक - स्रोत " है , तो कोई " अधः - स्रोत " है। जो मनुष्य की योनियाँ हैँ , प्राणियोँ की जो यह योनियाँ है ये ही स्रोत ( सोतेँ ) हैँ । पेड़ - पौधोँ की योनि जो है वह " उर्ध्व - स्रोत " हैँ , पशु - पक्षीकी योनि " तिर्यक् - स्रोत " है , और मनुष्य की योनि " अधः - स्रोत है । इस प्रकार ये नाना - प्रकार की जो योनि - योन्यन्तर हैँ उनका नाम स्रोत ( सोता ) है । यह जीव इन सोतोँ मेँ पड़ गया है और बहता हुआ एक योनी से दूसरी योनिमेँ और दूसरी योनिसे तीसरी योनीमेँ बहता जा रहा है । और भाव से तो दिन - भरमेँ कई बार कितनी ही योनियाँ प्राप्त कर लेता है । कई बार मनुष्य गिद्ध हो जाता है - लालच मेँ आया तो गिद्ध बन गया । संस्कृत भाषा मेँ लालच को " गृद्धः " बोलते हैँ , अंग्रेजी भाषा मेँ " ग्रीड " बोलते हैँ । दिन भरमेँ ही बदलने वाले कई प्रकार को स्रोत हैँ , और बड़े भयंकर हैँ । इन्हीसे मनुष्य को जन्म - से - जन्मान्तर , भाव - से - भावान्तर की प्राप्ति होती है ।
एक महात्मा हमको एक बार मिले तो कहे कि महाराज , यह जन्म - जन्मान्तर जो है यह कोई एक देश से दूसरे देश मेँ जाने का नाम नहीँ है कि यहाँ मरे और मगध मेँ पैदा हो गये । फिर जन्मान्तर क्या है ? एक भाव से दूसरे भावका बदल जाना ही " जन्मान्तर " है । माँ - बाप से जन्म हुआ तो मनुष्य जन्म हुआ और यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो ब्राह्मण का जन्म हुआ और उसके बाद दण्डी - स्वामी हो गये तो अब सन्यासी का जन्म हो गया , और जब सारे अभिमान छूट गये तब ? अब तो बह्म ही हूँ " अहंब्रह्मास्मि " तो अजन्मा हो गये ।
आजकल लोग बाह्मण जन्मसे मनुष्य का जन्म ऊँचा समझते है और पहले मनुष्य जन्म से ऊँचा ब्राह्मण का जन्म समझा जाता था । क्योँकि संस्कार के द्वारा कर्माधिकार संक्षिप्त कर दिया जाता था - मनुष्य के लिए बहुत सारे कर्तव्य हैँ और ब्राह्मण के लिए कर्म - संक्षेप करके उसको अन्तर्मुख बनाने के लिए थोड़ा - कर्तव्य है । तो मनुष्य से बड़ा ब्राह्मण , ब्राह्मण से बड़ा सन्यासी और सन्यासी से बड़ा ब्रह्म - क्योँकि उसमेँ सारे अभिमान निवृत्त हो जाते हैँ । हमारा ब्राह्मण से मतलब संस्कार - सम्पन्न जाति से है और असंस्कृत जो मनुष्य है - मनुष्य मात्र जो है वह असंस्कृत है - अर्थात् उसके अन्दर कोई संस्कार अभी डाला नहीँ गया है कि तुम कौन और तुम्हारा कर्तव्य क्या ? कर्तव्य का निश्चय होनेपर एक विशेष जाति , विशेष ड्युटी , विशेष ओहदा जो प्राप्त होता है , उसको संस्कृत जाति बोलते हैँ । यह वर्णाश्रम का जो तत्त्व है वह कोई साधारण तत्त्व नहीँ है , इसका भी एक विज्ञान है , एक दर्शन है ।
सोतोँ को पार करना होवे तो " ब्रह्मोडुपेन " - अर्थात् ब्राह्मणत्वरूप नौका को धारण ब्राह्मणत्वरूप नौका अर्थात् शमः , दमः , तपः , शोचं ये जो ब्राह्मण के गुण हैँ , इनको अपने अन्दर मेँ लायेँ ।
" शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।" इन सब धर्मोँ को धारण करेँ तो पार हो जायेँगे । ब्रह्म का अर्थ वेद भी होता है , वेद का आश्रय लेँ और पार हो जाएँ । समाप्त । 

No comments:

Post a Comment