Wednesday, August 25, 2010

" आत्मा " की आवाज : -

" आत्मा " की आवाज : -

by Swami Mrigendra Saraswati on Tuesday, August 10, 2010 at 6:43pm
" आत्मा " की आवाज : -
मानसिक अस्वास्थय का मूल कारण है सुख - वासनावश अन्तररात्मा के विरुद्ध आचरण करना । मन , वचन और कर्ममेँ जब विलगता एवं विपरीतता होती है , तब मनुष्य भीतर से अशान्त और दुःखी रहने लगता है , अन्तरात्मा की इच्छा के प्रतिकुल बाह्यपरिस्थितिवश मनुष्य सोचता कुछ और है , कहता कुछ और है , और करता कुछ और है । आत्मा की आवाज को वह बिल्कुल सुन नही पाता अथवा सुन कर भी अवलेहना करता है । अन्दर अचेतन उस अन्याय को अधिक सहन नही कर पाता , तो वह मनुष्य को चैन नहीँ लेने देता । अन्तरात्मा प्रवल शक्ति - समपन्न है । उसके सशक्त प्रतिरोध के कारण मनुष्य के भीतर अन्तर्द्वन्द चलता है , उन सभी अनैतिक कार्यो के लिये दुःखी रहना पड़ता है ,जिन्हेँ वह आत्मा की सदिच्छाओँ के प्रतिकुल करता है । यह आन्तरिक दुःख , अशान्ति और असंतोष ही मानसिक अस्वास्थ्य का मूल कारण है । अत्यधिक आधिभौतिकवादि और तृष्णालु व्यक्तियोँ को सदा अन्तरात्मा के विपरीत कार्य करना पड़ता है , इस लिए वे भीतर से अहर्निश दुःखी रहते है । उनकी आत्मिक प्रसन्नता लुप्त हो जाती है । जिससे उनमेँ स्फूर्ति नहीँ रहती और वे थकित , म्लान , अशान्त और पराजित से रहते है । आत्म - प्रसन्नता के बिना रहा भी नही जाता , इस लिए ऐसे लोग प्रसन्नता प्राप्ति के अन्य कृत्रिम प्रकारोँ से सुख प्राप्ति की चेष्टा करते हैँ । यह चेष्टा ही व्यसन बन जाता है । दुःखी मन को बहलाने के लिए उपन्यासादि पढ़ना ,नाटक सिनेमादि देखना , व्यभिचार करना .मादक पेय पीना - यह सब कृत्रिम प्रसन्नता प्राप्त करने के अस्वाभाविक उपक्रम हैँ । ये उपक्रम कभी मन को पूर्ण तुष्ट करने मेँ सफल नही होते ।इनसे धीरे - धीरे मन और भी अधिक अशान्त रहने लगता है , फलतः मनुष्य और अधिक उद्विग्न रहने लगता है । उधर आत्मा की निरन्तर फटकार से वह स्वयं को दुःखी अनुभव करने लगता है । इन सब का परिणाम मानसिक विकारोँ की उत्पत्ति मेँ होता है । कुछ पाश्चात्य विचारक अतृप्त वासना को मानसिक विकारोँ का मूल कारण मान कर , वासना - तृप्ति को ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य बताते हैँ । इन पाश्चात्य विचारकोँ की यह धारणा है कि नारी के प्रति पुरुष या पुरुष के प्रति नारी के आकर्षण और " अपोजिट सेक्स " मेँ प्रेम का कारण काम - वासना मात्र है । इसी आधार पर बहन - भाई और माता - पुत्र के स्वाभाविक प्रेम मेँ भी पाश्चात्य लोग काम - वासना को ही अन्तर्निहित आधार मानते हैँ । यह धारणा बड़ी विचित्र है और हमारी सास्कृतिक विचार धारा से एकदम उल्टी है । निश्चय हीँ पाश्चात्योँ का यह निष्कर्ष सत्य नही है , क्योँकि समान योनी के भाई - भाई , पिता - पुत्र , माता - पुत्री और मित्रोँ मेँ भी अविरल प्रेम होता है । ऐसे अनेक उदाहरण हैँ जब कि समान योनीवाले एक - दुसरे के लिए प्राण देते देखे गये हैँ । फिर यही कैसे मान लिया जाय कि विरोधी योनीवालोँ के पारस्परिक प्रेम का मूल कारण काम - वासना मात्र ही हैँ ।
नारायण । नारायण ।। नारायण ।।।

1 comment:

  1. KITNI SUNDAR BATEN KAHI AAP NE SWAMI JI HRIDAYA JHAKOJOR DETA HI .
    SHIV -SHIVA .

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