Tuesday, May 15, 2012

दुःखी कौन ? -  " प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत्-
" दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " -
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 76 }
वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धः नामक ग्रन्थ में कहते है -
" दुःखि यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । "
कितनी सुन्दर बात हमारे आचार्य जी कह रहे हैं - यदि आत्मा दुःखी होता , तो " मैं दुःखी हूँ " या " मैं दुखी था " - इसका गवाह कौन है ? इसका साक्षी कौन है ? क्योंकि , किसी वस्तु की सिद्धि दो तरह से होती है । अदालत में मुकदमा जाये तो जज को दो चीज चाहिए - एक तो लिखन्त दस्तावेज हो और दूसरे , गवाह { साक्षी } चाहिए । शास्त्र तो दस्तावेज हैं , निर्णय करने के लिए लिखित प्रमाण है और फिर साक्षी भी चाहिए । तो , देखिए मेरे भाई , यदि दूसरे के बारे में कोई बात जाननी हो तो जैसी लिखी हो , वैसा मानना पड़ेगा और अपने बारे में कोई बात जाननी हो तो वहाँ स्वानुभूति का प्रमाण मुख्य होगा । अपनी आँख से देखी हुई जो चीज़ होती है , उसके लिए लाख लिखा मिल जाय , लेकिन अपनी आँख की देखी हुई जो चीज़ होती है , उसपर अविश्वास नहीं होता है । माने हमारी प्रमाण्य - बुद्धि जो है , वह स्वानुभूति में अधिक है । बेटा भी आकर कहे , पत्नी भी कहे , माँ भी कहे , लेकिन अपनी आँख से देखी हुई चीज़ होवे तो किसीकी भी बात नहीं मानते हैं , अपनी आँख की बात मानते हैं ।
अब यह जो " मैं दुःखी हूँ " - यह कहाँ लिखा हुआ है , इसलिए आप अपने को दुःखी मानते हो कि आप अपने दुःखीपने के स्वयं साक्षी हो ? कोई दूसरा कहे कि " आप दुःखी हो " तो आप कैसे मान सकते है ? दूसरे के कहने से नहीं मानेंगे , दूसरे के लिखने से नहीं मानेंगे। हम ही तो अपने दुःखीपने के साक्षी हैं । अब जो जिसका साक्षी होता है , वह उससे भिन्न होता है - यह नियम है भाई । हम घड़े को जानते हैं , तो घड़े से अलग होते हैं । देह को जानते हैं तो देह से अलग होते हैं । अपने दुःखीपने को हम जानते हैं , सो दुःखीपने से हम अलग होते हैं । यदि हम अपने दुःखीपने को नहीं जानते है तो हम दुःखी नहीं हैं और यदि दुःखीपने को जानते र्है , तो भी दुःखी नहीं हैं । यह क्या आश्चर्य है ? " दुःखी यदि भवेदात्मा , कः साक्षी दुःखीनो भवेत् " ? " दुःखीनो साक्षिता नास्ति " - जो दुःखी है , वह गवाह नहीं है । वह तो लड़ाई करने वाला है । और , " साक्षिणो दुःखिता तथा " - जो साक्षी है , वह दुःखी नहीं है ।
भाई साहब , यह आत्मा जो है वह दुःखी नहीं है । भगवान् आचार्य सुरेश्वर कहते हैं -
" नर्ते स्याद् विक्रियां दुःखी , साक्षिणा का विकारिणः "
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 77 }
आचार्य जी कहते हैं कि - विकार के बिना कोई दुःखी नहीं हो सकता है ।
जब सड़ाँध पैदा होती है , तब मनुष्य दुःखी होता है । चाहे शरीर में सड़ाँध पैदा हो कि इन्द्रियों में सड़ाँध पैदा हो कि मन में सड़ाँध पैदा हो । विकार अर्थात् किसी चीज़ का सड़ना । एक रूप से दूसरे रूप मेँ बदल जानां । बिना परिवर्तन के कोई दुःखी नहीं हो सकता । हमारी जो चीज़ थी , वैसी नहीं रही , बदल गयी , तब न हम दुःखी हुये ! तो बिना विकार के कोई दुःखी नहीं हो सकता और " साक्षिका का विकारिणः " - जो विकारी है, वह साक्षी नहीं है । जो बदल रहा है , वह गवाह नहीं है । बदलने  का तो गबाह है न । अतः -
" धीविक्रिया सहस्त्रणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः "
मैं सहस्त्र - सहस्त्र विकारों का साक्षि हूँ । दिन भर में बुद्धि सैकड़ों रूप बदल लेती है - यह प्रिय है , यह अप्रिय है , यह मेरा है और यह तेरा है ? यह दुःख है , यह सुख है । यह बुद्धि बहरूपिया है । " माया महाठगिनि हम जानी " , " रमैया का दुलहिन , लूटा बाजार " । यह तो वेश्या की तरह श्रृङ्गार करती रहती है , रूप बदलती रहती है । कभी आँसू गिराती है , कभी हँसाती है , मुस्कुराती है । इस वेश्या के समान बुद्धि के हजारो विकारों के हम साक्षी हैं । " अतोऽहमविक्रियः " - मैं तो निर्विकार हूँ और निर्विकार में दुःखीपना होता नहीं है ।
तो फिर यह दुःखीपना कहाँ से आया ?
यह भूल से दुःख माना गया है । भूल के सिवाय दुःख का कोई कारण नहीं है ।
" प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् "
जिसकै हम दुःखी कहते हैं , वह प्रज्ञा का अपराध है अर्थात् समझ का कसूर है ।
जब - जब हम दुःखी होते है . तब समझना हमारी समझ कुछ गलती कर रही है ।
जय हो सदाशिव !

Thursday, May 10, 2012




॥ सप्रदाय परंपरा श्लोकानि ॥

ॐ नमो ब्रह्मादिभ्यो ब्रह्मविद्यासंप्रदायकर्तृभयो वंशऋषिभ्यो महद्भ्यो नमो गुरुभ्यः ।
सर्वोपप्लवरहितः प्रज्ञानघनः प्रत्यगर्थो ब्रह्मैवाहमस्मि ॥ १ ॥
ॐ नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च ।
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यं ॥ २ ॥
श्रीशंकराचार्यमथास्य पद्मपादं च हस्तामलकं च शिष्यम् ।
तं तोटकं वार्तिककारमन्यानस्मद्गुरून्संततमानतोऽस्मि ॥ ३ ॥
श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम् ।
नमामि भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम् ॥ ४ ॥
शंकरं शंकराचार्यँ केशवं बादरायणम् ।
सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥ ५ ॥
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद्व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥ ६ ॥
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Wednesday, May 9, 2012


" वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष  " -
वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान " श्रीहर्ष " { खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ के रचनाकार } । इनके पिता वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान थे और कन्नौज राज्य के मुख्य पण्डित थे । उस काल मेँ " उदयनाचार्य " न्याय के एक प्रकाण्ड पण्डित हुए । उदयनाचार्य ने श्रीहर्ष के पिता से कहा कि " हम तुमसे शास्त्रार्थ करेँगे । " उदयना चार्य बड़े विद्वान भी थे और बड़े भक्त भी थे लेकिन " नैयायिक " होने के कारण कट्टर द्वैतवादी थे । बड़े अच्छे भक्त थे लेकिन द्वैतवादी थे । सभा बैठी हुई थी , शास्त्रार्थ हुआ । शास्त्रार्थ मेँ श्रीहर्ष के पिता यद्यपि वेदान्त के पक्ष को लिये हुए थे लेकिन उदयनाचार्य से वे हार गये , क्योँकि शास्त्रार्थ बुद्धि का खेल है और विद्वान् उदयनाचार्य प्रकाण्ड थे । उस काल मेँ राजा ही धर्म का निर्णायक होता था । श्रीहर्ष के पिता जी बड़े दुःखी होकर घर आये । उस समय कान्यकुब्ज बहुत बड़ा राज्य था । भारत मेँ उसका स्थान प्रायः सम्राट जैसा था । श्रीहर्ष के पिता को मन मेँ बड़ा दुःख हुआ कि " मैँ ऐसा नालायक निकला कि मैने वेदान्त पक्ष को हारने दिया । अब राजा सर्वत्र द्वैतवाद का प्रचार करेगा । " नियम था कि शास्त्रार्थ मेँ जो विजयी हो जाये , चूँकी विचार के द्वारा निर्णय होता था , इसलिये वही ठीक है ऐसा निश्चय किया जाता था । जैसे कोई बहुत बड़ा सेनाध्यक्ष हो और उसकी किसी सैन्य व्युहरचना मेँ कोई खराबी आ जाने से वह बड़ा भारी युद्ध हार जाये तो उसके हृदय मेँ बड़ी चोट लगती है कि " मैँने अपने देश को अपनी गलती से खराब कर दिया " , इसी प्रकार धर्म के आचार्य का शास्त्र और बुद्धि ही सैन्यव्युह है , उसमेँ कोई विरोधी जीत जाये तो उसके मन मेँ भी होता है कि " मैँने अपने धर्म को अपनी बेवकूफी से नष्ट कर दिया है । " उसे हृदय मेँ कसक होती है । लेकिन जिसके हृदय मेँ यह कसक नहीँ होती , देश प्रेम नहीँ होता है , वह व्याख्या दिया करता है कि मैँ अमुक - अमुक कारणोँ से हार गया । इसी प्रकार जहाँ धर्म के प्रति कसक नहीँ होती , वह बैठकर बातेँ करता है कि हिन्दुस्तान के हिन्दु धर्म के पतन का क्या कारण है । कोई कहेगा छुआछूत कारण है , कोई कहेगा कि गरीबोँ की मदत नहीँ करते यह कारण है । ये सब बाते तो करेँगे लेकिन स्वयं कोई कदम नहीँ उठायेँगे । यदि मानते हैँ कि छुआछूत कारण है तो आपने उसे हटाने के लिये क्या किया है ? यदि आप मानते हो कि गरीबोँ के प्रति हमारी दृष्टि नहीँ थी तो उसके लिये क्या आपने अपनी आमदनी का आधा रुपया निकालकर मदत करने के लिये दे दिया ? जैसे देशद्रोही सेनाध्यक्ष ऐसे ही धर्म - द्रोही विद्वान भी हुआ करते हैँ । लेकिन श्रीहर्ष के पिता ऐसे नहीँ थे । उन्हेँ इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि वेदान्त धर्म , अद्वैतवाद की जगह अब द्वैती जीतेँगे । उदयनाचार्य वहाँ सभापण्डित बन गया । घर वापिस आकर श्रीहर्ष के पिता के मन मेँ इतना दुःख हुआ कि सप्ताह भर मे उनका शरीर छूट गया । उनका दो साल का पूत्र था । मरने से पहले अपनी पत्नी से कहा कि " मैँ तो वह दिन नहीँ देखूँगा , क्योँकि मेरे से अब सहन नहीँ होगा , लेकिन मेरे पुत्र को तुम अच्छी तरह तैयार करना । मैँ तेरे को वह मन्त्र बता जाता हूँ , पाँच वर्ष की उम्र मेँ इसका उपनयन करा देना और उसी दिन इस मन्त्र को इसे देकर इसे किसी शव पर बैठाना । शव पर बैठकर रात भर यह इस मंत्र का जप करता रहे तो इसे वाक् सिद्धि हो जायेगी और यह फिर वेदान्त - ध्वज को ऊँचा करेगा । वे तो उसी दिन मर गये ।
तीन साल बाद श्रीहर्ष पाँच साल का हो गया । माँ सोचने लगी कि " मैँ इसे शव पर कैसे बैठाऊँ ? यदि बैठा भी दिया तो इसे डर लगेगा । " लेकिन पति की आज्ञा थी कि जिस दिन उपनयन हो , उसी दिन यह भी कार्य करना । वह भी पूर्ण धर्मनिष्ठा वाली थी क्योँकि ऐसे पति की पत्नी थी । " हे मेरे नारायण ! " उसने जहर खा लिया और श्रीहर्ष को अपनी छाती पर बैठाकर कहा कि " रात भर इस मन्त्र का जप करते रहधा । " बेटे को इस बात का क्या पता था , वह तो माँ की छाती पर बैठा था , थोड़ी देर मेँ वह मर गई और वह रात्री भर जप करता रहा । प्रातःकाल चार बजे " भगवती वाणी " { श्रीमाता वाग्देवी } ने दर्शन दिया और बड़े प्रेम से स्पर्श करके कहा " बेटा क्या चाहिये ? " श्रीहर्ष ने कहा " मुझे पता नहीँ माँ से पूछो । " भगवती वाणी की आँख से पानी आ गया , कहा " अब तेरी माँ नहीँ रही । आज से " श्रुति " ही तेरी माता है । श्रुति का कोई मन्त्र ऐसा नहीँ होगा जो तुमको उपस्थित नहीँ होगा । " भगवती ने यह वर दिया , कहा कि " अब तुम सीधे कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ जाकर उदयनाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करना । मैँ ही तेरी वाणी पर बैठकर शास्त्रार्थ करूँगी । " भगवती के स्पर्श से उसके हृदय मेँ विद्या का प्रादुर्भाव हुआ । वहाँ से गया और जाकर राजा के द्वारपाल से कहा कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ , राजा को खबर कर दो । " द्वारपाल हँस पड़ा और बच्चे को प्यार करने लगा जैसे छोटे बच्चे को करते हैँ । श्रीहर्ष ने कहा " मैँ ऐसे ही बात नहीँ कर रहा हूँ । " द्वारपाल श्रीहर्ष को लेकर राजा के पास पहुँचे और राजा ने देखा कि सुन्दर लड़का है , यज्ञोपवीत धारण किये हुये , भस्म लगा हुआ है । द्वारपाल ने राजा से कहा कि यह कहता है कि " मैँ सभापण्डित उदयन से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ । श्रीहर्ष झट से बोला " सभापण्डित नहीँ , उदयन से शास्त्रार्थ करूँगा ! मैँ उसे सभापण्डित नहीँ मानता । वह तो मैँ उसे शास्त्रार्थ के बाद मानूँगा । " राजा ने कहा " तेरे को किसने बताया है ? " कहा " इन सब बातोँ मेँ कुछ नहीँ रखा , राजन ! इन्हेँ मेरे सामने बैठाओ , मैँ शास्त्रार्थ करूँगा । " श्रीहर्ष ने देववाणी संस्कृत मेँ जबाब दिया तो उदयनाचार्य भी कुछ घबराये कि यह छोटा - सा बच्चा कैसे बोलता है ! अगले दिन शास्त्रार्थ का समय तय हुआ । सब समझे कि यह कोई तमाशा होगा । लेकिन 28 दिनोँ तक शास्त्रार्थ हुआ । सब आश्चर्यचकित हो गये कि यह कैसा लड़का है । श्रीहर्ष ने उदयन को शास्त्रार्थ मेँ हरा दिया और वेदान्त की ध्वजा फहराया । तब उसने बताया " मेरे पिता अमुक थे । तुने उनका अपमान किया , इसलिये मैँने यह किया । मुझे तुमसे कोई द्वेष नहीँ है । " फिर उन्होने वेदान्त - ग्रन्थोँ और अन्य ग्रन्थो की रचना की । साहित्य का ग्रन्थ उन्होँने पहले - पहले लिखना शुरु किया तो अपने मामा , जो साहित्य के बड़े विद्वान थे , उन्हेँ अपना ग्रन्थ दिखाया । मामा जी ग्रन्थ को देगर पहले तो बड़े प्रसन्न हुए और फिर रोने लगे ! श्रीहर्ष ने पृछा तो कहा " मेरे काल मेँ मेरा भांजा इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा वाला उत्पन्न हुआ इससे मेरे को बड़ी प्रसन्नता हुई और रोया इसलिये कि तेरी किताब बाँचेगा कौन ? मेरे जैसा साहित्य - मीमांसक एक - एक श्लोक को पचास - साठ बार पढ़ता है तो समझ मेँ आता है । बाकी कौन ऐसा है जो तेरी किताब बाँचेगा । इसलिये मुझे दुःख हुआ । उनके " खण्डनखण्डखाद्य " ग्रन्थ को समझना महान् कठिन है । आज भी इस महान् ग्रन्थ पर किसी भी विद्वान ने अपना टीका नहीँ लिख सके ।
माँ भारती सपुत को शत - शत प्रणाम करता हूँ ।

                         
                       " परमेश्वर- पशुपति "
                    
शिव । शिव ।। परमेश्वर का एक नाम है " पशुपति " । यहाँ जो पशु कहा जाता है वह उसके वाहन ऋषम या पहरेदार " नन्दी " को सूचित नहीँ करता । पशु हम ही हैँ । जीव सब पशु है । उनके मालिक अर्थात् स्वामी के रूप मेँ जो ईश है वही पशुपति है ।
पशु जिस स्थान मेँ हरे पत्ते हो उस स्थान की ओर भागते हैँ । उनके समान हम भी इन्द्रियसुख को खोजते - खोजते भागते रहते हैँ । मालिक जैसे अपने पशु को बाँध रखते है वैसे पशुपति ईश्वर हमेँ बाँध रखता है ।
दीख सकता है कि - " कहाँ बाँध रखा है ? कोई बन्धन आँखोँ के किए दिखाई नहीँ देता है । फिर भी अनजान मेँ ही हम इस बंधन के बारे मेँ समय समय पर बोलते हैँ । एक कार्य के लिए हम बहुत प्रयत्न करते हैँ । फिर भी वह सफल नहीँ होता । उस समय हम यह कहकर अपने आप को तसल्ली दिला लेते हैँ कि " यथा शक्ति किया । फिर भी कर्मबन्ध किसको छोड़ता है ? काम सफल नहीँ हुआ । कर्म बंध जो है वही बन्धन है। पशुपति ने हमेँ पूर्वकर्मो से बाँध दिया है । "
रस्सी से बंधे जानवर को उस रस्सी पर गुस्सा होगा , पर उसे खोल दिया जाय तो क्या होता है ? वह दूसरे बगीचे मेँ चरता है । बाद मेँ बगीचे का मालिक उसे मारमार कर उसका कचुमर निकाल देता तो हम उसे बाँध देते हैँ । हममेँ इच्छा नामक बदमाशी है , इसलिए पशुपति ने हमेँ बाँध रखा है । अगर बच्चे की विषमबुद्धि चली जाय तो हम उसे बाँध कर न रखेँगे । हमारी इच्छा न रहे तो भगवान् भी हमेँ मुक्त करेँगे । इच्छा के कारण ही हम कई लोगोँ को कष्ट देकर खुद कष्ट उठाते हैँ । इच्छा मिट जाय तो किसी को हमारी ओर से कोई कष्ट नही होगा । ईश्वर खोल देँगे ।
बन्धन मिट जाय तो हम दूसरे के बगीचे मेँ नहीँ चरेँगे , क्योँकि दूसरे के बगीचे न चरने की बुद्धि हममेँ आ जाय तभी पशुपति बन्धन को निकालते हैँ । बन्धन के निकलने के बाद बन्धन की स्थिति से उन्नत होकर हमेँ  जिसने बाँधा था उसकी स्थित मेँ पहुँच जायेँगे । बन्धन जब तक रहे तब तक हम अलग हैँ , और भगवान् अलग । इसलिए हम उनकी पूजा करते हैँ । " बन्धन चला जाय तो हम जान लेँगे कि हम ही वह है । " बाद मेँ पूजा की भी जरूरत नहीँ होती ।
श्रुतिमहारानी कहती है कि एक स्थिति तक जीव पशु है । वह कौन स्थिति है ? कहा है-
" देवतां अन्यां उपासते "
इसका सामान्य अर्थ बताया जाता है कि अपने इष्ट देवता को छोड़कर उससे अन्य किसी देवता का उपासक पशु है । यह गलत है । " अपने पूजित देवता अपने लिए अभी इतनी होड़ , ईर्ष्या , लड़ाई . झगड़ा है तो तब कैसे होगा ? उसकी कल्पना भी नहीँ कर सकते। अपनी सभी इच्छाओँ को , सबको कार्यरूप मेँ लाने के प्रयत्न न करने की रीति से हमेँ कर्म ने बन्धन मेँ बाँध रखा है न ? इससे हम बचते गये न ?
पशु को न बाँध रखे तो वह पौधोँ का नाश करता है । स्वयं मार खाता है । उसी तरह कर्म से हमेँ ईश्वर बाँध न रखता तो हम अपने आपको भ्रष्ट कर लेते और संसार को भ्रष्ट कर करते । अब भी हम संसार को भ्रष्ण करते हैँ । अगर कमजोरी मेँ ऐसा करेँ तो स्वेच्छा का पूर्णबल हो तो हम कितना बिगाड़ेँगे ? रस्सी लगाकर बाँधने के कारण ही कम से कम किसी समय मेँ पशु को खूँटे के पास लेटना संभव होता है । कर्म हमेँ बांध देता है । इसलिए हम कभी न कभी उसके खूँटे ईश्वर पर चित्त को लगाते है । नहीँ तो ईश्वर को एकदम भूलकर योँ संसार सागर मेँ उलझे रहेँगे ।
भगवान् ने हमेँ इसलिये बांध रखा है कि हम अपनी भलाई के लिए खुद अपने को कष्ट देने न रहेँ। उनसे पूछे कि - कब खोल देँगे ? तो वे कहते है - अगर तुममेँ किसी को कोई कष्ट न देकर और उससे अपने लिए कोई पाप न कमाने की परिपक्वता आ जाये तो मैँ खोल दूँगा ।
बच्चा नटखटपन करता है है । बाद मेँ उसे कांची हाउस मेँ बन्द कर देता है । तमी पशु को मालूम होता है कि हमेँ रस्सी से बाँध कर ही रखना अच्छा है । इसी तरह हमेँ भी कर्म बन्धन के प्रति गुस्सा होता है । अगर भगवान् ऐसा बंधन नहीँ लगाता तो हमेँ हार व दुःख सब नहीँ होते । हार व दुःख के आने पर हम बुद्धि पाते हैँ कि हमेँ इतना ही बंधा है और जीवित रहते समय तृप्ति से , शान्ति से जीवन बिताने का यत्न करते हैँ । अगर यह नहीँ होता तो हमारी इच्छा व योजना का कोई अंत नहीँ होता । इतने जोर के बंधन रहते ही हर एक की इच्छा भले ही उसके लिए सारी सृष्टि की आहुति करेँ तब भी पर्याप्त नहीँ होती । द्युलोक को काफी न मानकर चन्द्रमण्डल , मंगलग्रह की बाते करते हैँ। बंधन ही रहा तो पूछने की ही जरूरत ही नहीँ रहती । है । बाद मेँ उसे कांची हाउस मेँ बन्द कर देता है । तमी पशु को मालूम होता है कि हमेँ रस्सी से बाँध कर ही रखना अच्छा है । इसी तरह हमेँ भी कर्म बन्धन के प्रति गुस्सा होता है । अगर भगवान् ऐसा बंधन नहीँ लगाता तो हमेँ हार व दुःख सब नहीँ होते । हार व दुःख के आने पर हम बुद्धि पाते हैँ कि हमेँ इतना ही बंधा है और जीवित रहते समय तृप्ति से , शान्ति से जीवन बिताने का यत्न करते हैँ । अगर यह नहीँ होता तो हमारी इच्छा व योजना का कोई अंत नहीँ होता । इतने जोर के बंधन रहते ही हर एक की इच्छा भले ही उसके लिए सारी सृष्टि की आहुति करेँ तब भी पर्याप्त नहीँ होती। द्युलोक को काफी न मानकर चन्द्रमण्डल , मंगलग्रह की बाते करते हैँ। बंधन ही रहा तो पूछने की ही जरूरत ही नहीँ रहती ।अन्य है । यह सोचकर जो पुजा करता है वही पशु है । " यही इसका ठीक अर्थ है । योँ भगवान् अलग हैँ भक्त अलग है । यह भेद बुद्धि जब तक रहती है तब तक कर्म है । कर्म जब तक है तब तक बन्धन भी है ।
शास्त्र मेँ कहे धर्म कार्य का बंधन दूसरी रस्सी ( रज्जु ) के समान है । वह गाँठ के साथ लगता बंधन नहीँ है । बन्धन के समान लगेगा । शास्त्र के नियम बहुत कठोर , अनिवार्य और वन्धित करने के समान लगेँगे , पर इन्द्रियोँ के द्वारा जो पक्की गाँठ का बन्धन लगता है , उस इच्छा के बन्धन से छूटकर अन्त मेँ पूर्णशान्ति , सुख व मुक्ति प्राप्त करनी है तो यह बन्धन अवश्य लगे रहना है ।
इच्छा का बन्धन चला जाय तो शास्त्र का बन्धन भी चला जायेगा । पर उसके दूर होने के लिए हमेँ दूसरे बन्धन को अपने आप लगा लेना चाहिए । धार्मिक रूप से मनुष्य कार्य, देवकार्य , पूजा . यज्ञ , परोपकार , जीवात्मकैँकर्य आदि सब करना चाहिए । इच्छा चली जाय तो ये दैवकार्य , वैदिक कार्य , समाजिक कार्य सब रुक जायेँगे ।
अगर व्यक्ति इस स्थिति को पहुँच जाय तो देवता लोगोँ को उक्त साधक पर गुस्सा आता होगा । मनुष्य वैदिक कार्य करे तो ही देवताओँ को आहुति मिलेगी , नहीँ तो वे भूखे रहेँगे । इसलिए अगर यह कर्म को छोड़कर , यज्ञ . तर्पण . पूजा आदि को रोक लेँ तो देवोँ को भोजन नहीँ मिलेगा । इससे उन्हे क्रोध होगा । अगर गाय का दूधारूपन रुक जाये तो उससे कोई लाभ नहीँ होगा । तुरन्त उसको घास या चारा देना बन्द करते है न? मनुष्य की इच्छाएँ सब अन्त हो तो वह ऐसी स्थिति मेँ आएगा कि उसे किसी भी देवता का अनुग्रह न हो । उसके लिए उसका आहुति देना भी बन्द होगा । मनुष्य का कर्म रुक जाये तो बाद देवताओँ को उससे कोई लाभ नहीँ होगा । इसी कारण पुराणोँ मेँ देखते हैँ कि जब कोई ऋषि ब्रह्मज्ञान पाने के लिए तपस्या करते थे तब देवता विध्न उपस्थित करते थे ।
इसीसे मुर्ख और अज्ञानी को " देवानांप्रियः " का नाम पड़ा है । देवानांप्रियः का अर्थ है देवोँ का प्यारा । वह स्तुति के शब्द जैसे लगेगा । अशोक चक्रवर्ति ने भी शिलालेखोँ और स्तूपोँ मेँ अपना वर्णन " देवानां प्रिय अशोक " अंकित कर लिया है । पर असल मेँ देवताओँ को तृप्त करने की स्थिति मेँ ज्ञान की खोज न करके कर्म मेँ ही जो मूर्ख उलझा है वही देवानांप्रियः है ।- पुराने समय मेँ ज्ञान प्राप्त लोग भी शास्त्र कर्म को छोड़ने मेँ झिझकते थे । दूसरोँ को मार्ग दर्शाने के लिए वे लोग , चाहे अपने लिए अनावश्यक क्योँ न हो , तो भी , निरन्तर कर्म किया करते थे । हमने तो जरा भी बिना झिझक के , खुशी से सकल शास्त्र धर्मो को छोड़ ही दिया है , पर ज्ञानी भी न बने ।
ज्ञानी नहीँ थे तो देवानांप्रियः होते तो देवोँ की प्रीति से हम मरने के बाद लोक जा सकते। देवलोक मनोरंजन का लोक है । वह मोक्ष नहीँ है , मेरे मित्र । मोक्ष आत्मानन्द शाश्वत रूप मेँ देता है जो इन्द्रियोँ से परे आनन्द से बढ़कर है । देव लोक वह लोक है जो हमेँ तब तक भोग्य सुख प्रदान करता है जब तक हमेँ वैदिक कर्म से प्राप्त पुण्य खर्च नहीँ होता । पुण्य के खतम होने पर हमेँ भूलोक ही लौटना पड़ेगा । मोक्ष सुख और देवलोक बनाम स्वर्ग सुख के बीच अजगजान्तर है यानी आकाश - पाताल का अन्तर है। फिर भी दुःख व कष्ट से मनुष्य लोक से कम - से - कम देवलोक पहुँचे तो वह श्रेष्ठ ही है , मेरे भैया । क्या हम उसके लिए मार्ग बना रहे हैँ ? वह भी नहीँ है । देवोँ को तृप्ति देनेवाले वैदिक कर्मो को छोड़ने के बाद हम कैसे उनको प्यारे लगेँगे ? हम " नरकानांप्रिय" ही बने है - हम ऐसी स्थिति मेँ हैँ कि नरकवासी ही हमारे साथी के रूप मेँ आएंगे और वे ही हमेँ अपने प्यारे मानेँगे । दुष्ट रहने से मूर्ख रहना उत्तम है । पहले हमेँ मूर्ख देवानांप्रिय बनना चाहिए । बाद " पशुपति " थोड़ा - थोड़ा करके बन्धन को खोल देँगे । देवलोक की इच्छा , कर्म के प्रति आसक्ति - इन दोनोँ के बिना कर्म करेँ तो वह कर्म ही शुद्धि देकर ज्ञान की मार्ग की नीँव ड़ालेगा । बाद मेँ हम ऐसे ज्ञानी सकेँगे जो देवोँ के प्यार और धृणा की परवाह न करेँ । तब पशु ( जीव ) - पाश ( रस्सी - बन्धन) - पति ( ईश्वर) आदि तीनोँ मेँ पशु व पाश मिटकर पति मात्र रहेगा । हम पशु ही पति के रूप मेँ रहेँगे । शैव सिद्धान्त मेँ पति - पशु - पाश के नाम से जो कहा जाता है वही भगवान श्रीआद्य शङ्करभगवत्पादचार्य के अद्वैत वेदान्त मेँ जीव - ब्रह्म - माया कहा जाता है । आचार्य शङ्कर नेँ भी पशु - पाश के शब्दोँ का प्रयोग " सौन्दर्यलहरी " के श्लोक मेँ किया है । श्लोक इस प्रकार है -
" चिरं जीवन्नेव क्षपित पशु पाश व्यतिकरः ।
परानंदाभिख्य रसयति रसं त्वत्भजनवान् ।।
अर्थात् हे अंबिके । जो तुम्हारी पूजा करता है वह पशु - पाश आदि के मिलन से उत्पन्न कष्ट दूर करके सदा परमानन्द का रस लेता है ।
शिव । शिव ।।
" महावाक्याणि "
                                      
                                    
                                    

                                      " महावाक्याणि "

              
नारायण । " महाश्रोत्रिय " , " महायात्रा " " महाप्रस्थान " , " महाज्ञानी " आदि जैसे शब्द हैँ , वैसा ही श्रुति महावाक्य " है । इसका एक यह भी अर्थ हो सकता है कि - जिससे बड़ा , जिससे व्यापक अर्थ वाला कोई अन्य वाक्य नहीँ हो सकता । दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि - जिसके पश्चात् दूसरा वाक्य बोलना ही पड़ता हो । या योँ कहे कि बोलने की आवश्यता ही न रह जाती हो । जो प्राणी दिन - रात बहिर्मुख बने रहते हैँ , जो प्राणी आठो प्रहर इन्दियद्वारोँ पर ही डटे रहते है , उनमेँ से जब कीसी नाटक के नटोँ या पालतू तोते - मैनाओँ के समान इन महावाक्योँ को बोल उठे तो उसकी बात हम नहीँ कहते हैँ । हम तो केवेल उन  महामना - महामुनियो.की ओर को संकेत करना चाहते हैँ , जिनके हृदयधाम मेँ धधकती हुई ज्ञानाग्नि की ज्वाला मेँ सृष्टि के पदार्थोँ की स्वाधिन सत्ता सरकण्डे की रूई के समान भड़भड़ा कर भस्म हो चुकी हो । वे जब एकान्त हृथय मन्दिर के मौनप्रदेश मेँ बैठकर इन वाक्योँ को बोल बैठते हैँ और जब उनके हृदय - प्रदेश मेँ सदा के लिये सन्नाटा छा जाता है - जिसके बाद एक भी अन्ववर्थ वाक्य ऐसा सुनाई नहीँ पड़ सकता जो उनके उस गंभीर सन्नाटे को कभी भी भंग कर सकता हो , तब इन वाक्योँ को  " महावाक्य " कहना बड़े ही गौरव की बात प्रतीत होती है । श्रुति न जिन महावाक्यो को गान की है वे सभी प्राणीयोँ के अन्दर गुप्तभाव से रहने वाले " पूण अहं " का वर्णन करने वाला है । क्षुद्र अहं ने जीवात्माओँ को संकुचित कर रक्खा है । विचार की आँच से जब क्षुद्र अहं जल जाता है तब वही पूर्ण अहं प्रत्यक्ष दर्शन दे देता है । आँख का पलक खुलते ही जैसे अनन्त आकाश आँखोँ के सामने आ खड़ा होता है इसी प्रकार क्षुद्र अहं को हटाते ही अनन्त आत्मतत्व साधक को दीखने लग पड़ता है । उसी पुण्यकीर्ति अवस्था की ओर संकेत करने वाले ये " महावाक्य" हैँ । जितने भी वेदादि सद्शास्त्र है वे इसी पूर्ण अहं की ध्वनियाँ है , आवाज़े हैँ । मनन के सागर मेँ गहरे उतरे हुये लोगौँ को ही ऐसी ईश्वरीय आवाज़ेँ सुनाई पड़ा करती हैँ । इसी कारण वेदोँ को " अपौरुषेय " कहा जाता है । वेदोँ को कोई पुरुष बनाता नहीँ किन्तु ये तो शुद्ध मन से सुनने की बाते हैँ । इसीलिये वेदोँ को ऋषियोँ द्वारा प्रकट होना बताया जाता है । महावाक्योँ की मृतप्राय आवाजेँ जनसाधारण के हृदय मेँ भी सुनाई तो पड़ती है , परन्तु वे अपने क्षुद्र अहंकार के परवश होने के कारण इनको अनसुनी कर देते हैँ । सभी प्राणी अपने जी मेँ अपने आपको बड़े से बड़ा और अच्छे से अच्छा मानते हैँ । सभी को अपना आपा सर्वगुणसम्पन्न और सबसे अच्छा प्रतीत है । सभी अवसर पाते ही अपनी बड़ाई बघारने से चुकते नहीँ हैँ । परन्तु ऐसी सर्वहृदयेश्वरी महत्ता का जो गुप्त कारण है उसका किसी को पता नहीँ है । " नारायण " ! हम तो इसी गुप्त महत्ता को ही सोया पड़ा हुआ " अहँ ब्रह्मास्मि " कहते है । अन्दर जो निःशब्द भाषा मेँ " अहं ब्रह्मास्मि " की अखण्ड रटना चल रही है , उसी से यह प्राणी अपने को सर्वोत्तम समझ रहा है । हमारे रोम - रोम मेँ " अहं ब्रह्मास्मि " यह महामन्त्र समाया हुआ है । मौत ने सारे संसार को अपने जबड़े मेँ दबा रखा है परन्तु उस मौत को भी निगल जाने वाला यह अन्दर का " अहं ब्रह्मास्मि " कभी मरना जानता ही नहीँ । इस अन्दर के " अहं ब्रह्मास्मि " को इस मांस की चादर ने लपेट रखा है । अब तो हमेँ क्षुद्र देहाभिमान के रूप मेँ इस " अहं ब्रह्मास्मि " की निर्बल ( मुर्दा ) आवाज़ कभी कभी सुनाई पड़ जाती है । अब इसमेँ ब्रह्मतेज नहीँ रह गया है । अन्दर के इस " अहं ब्रह्मास्मि " को - सोय पड़े हुये इस ॐ को हम साधकोँ को धीरतापूर्वक जगाना पड़ेगा । जब यह पूरा पूरा जाग उठेगा और इस मांस की चादर को तोड़ फोड़ डालेगा , तब यह देहाभिमान को , क्षुद्र अहंकार को जलाकर राख कर देगा । देहाभिमान के जलने का बहाना पाकर यही " अहं ब्रह्मास्मि " फिर ब्रह्माण्ड भर मेँ फैल जायेगा और इस अनन्त ब्रह्माण्ड पर फिर अपना एकछत्र आधिपत्य जमा लेगा । ऐसी दिव्य अवस्था जब आ जाती है तब ही " अहं ब्रह्मास्मि " आदि महावाक्योँ के बोलने का सच्चा अधिकार प्राप्त होता है । नहीँ तो कोरे शाब्दिक ( शास्त्रीय ) ज्ञान से कुछ भी होने वाला नहीँ है । गुड़ कहने मात्र से किसी का मुह मीठा नहीँ हो जाता है - राम राम रटने से तोता मुनि नहीँ हो जाता है । ऐसी दिव्य अवस्था जब आती है तब शान्ति का अनन्त समुद्र उमड़ पड़ता है । तब शोक , भय , दीनता आदि ठहर नहीँ पाते हैँ । जिन लोगोँ के पवित्र मानस मेँ इस तरह के " अपौरुषेय" महावाक्य सुनाई पड़ने लगते हैँ , जिनके हूदय मेँ पूर्णता की गुंजार रहने लग जाती है , वे ही मुनि हैँ , वे ही जीवनमुक्त हैँ , उनको ही विदेह मुक्ति का  मिल सकती है । जिसकी वाणी के पीछे अनुभव का बल नहीँ होता है ऐसी निस्तेज वाणी से बोले हुए " अहं ब्रह्मास्मि " आदि महावाक्य उसी तरह बन्धनकारक होते हैँ , जिस प्रकार अन्य अपशब्द बन्धनकारक होते हैँ। क्योँकि अनुभव रहित पुरुष जब इन महावाक्योँ को कहते हैँ तब वे आत्मघात कर बैठते है क्योँकि उनमेँ दम्भ आदि दोष बहुतायत से उत्पन्न हो जाते हैँ ।
मुख्य महावाक्य चार हैँ -
( 1 )  - " अहं ब्रह्मास्मि " , ( 2 ) - " प्रज्ञानं ब्रह्म "  , ( 3 ) - " तत्त्वमसि " ,   ( 4 ) - " अयमात्मा ब्रह्म "  ।  ब्रह्म और आत्मा की एकता रूप जो मोक्ष का साधन है- उसका ज्ञान इन या इन जैसे वाक्योँ से ही हो पाता है । आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है , यह ज्ञान तो युक्ति से भी हो जाता है । परन्तु यह आत्मा और वह ब्रह्म तत्त्व दोनोँ एक ही तत्त्व है , इस बात जानने का उपाय शब्द प्रमाण के अतिरिक्त और कुछ भी नही है ।
" येनेक्षते श्रृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च
स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ।। "
 प्रज्ञानं ब्रह्म " चक्षु और श्रोत्र के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति बाहर निकलती है , उस वृत्ति से उपहित जो चैतन्य किंवा ज्ञान है , उसी से तो यह संसार रूपादि पदार्थोँ को देखा करता है और शब्दोँ को सुना करता है । नासिका के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति जो बाहर निकलती है अन्तःकरण की उस वृत्ति से उपहित जो चैतन्य किँवा " प्रज्ञान " है , उसी " प्रज्ञान " से तो यह संसार भले - बुरे गन्दोँ को सूँघा करता है । वागिन्द्रय से ढके हुए उसी चैतन्य किँवा " प्रज्ञान " से ये सब शब्द बोले जाते हैँ ।
रसना के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति बाहर निकलती है , उसको जिस चैतन्य अपनी उपाधि बना लिया है , उसी से तो ये स्वादु या अस्वादु रस पहचाने जाते हैँ । इतना ही नहीँ और भी इन्दियोँ तथा अन्तःकरण की वृत्तियोँ से जिस चैतन्य किँवा जिस " प्रज्ञान की सूचना जब - तब मननशील पुरुष को मिला करती है उसी को आचायोँ ने " प्रज्ञान " कहा है । ब्रह्मा , विष्णु , इन्द्र , देवता , मनुष्य तथा पशु - पक्षियोँ मेँ यही " प्रज्ञान " व्याप्त हो रहा है । वेदादि - शास्त्र सभी इसी " प्रज्ञान - सुर्य " की बिखरी हुई किरणे हैँ। इसी के सहारे से जगत् के जन्म , स्थित और प्रलय हो रहे हैँ - इस कारण कहना पड़ रहा कि " सर्वान्तर्वासी " यह " प्रज्ञान " ही " ब्रह्मतत्व " है । क्योँकि सर्वत्र व्याप्त यह " प्रज्ञान " ही ब्रह्म है , इसी से मैँ मुमुक्षु अब यह बात बेधड़क होकर कह रहा हूँ कि मुझ मेँ जो " प्रज्ञान " है वह भी " ब्रह्मतत्व " ही है । आज से मैँ इस " महामहिम - प्रज्ञान " पर झूठा अहंकार ( क्षुद्र अहंकार ) करना छोड़ देता हूँ । इतना जानने पर भी यदि मैँ इस सर्वत्र व्याप्त " प्रज्ञान " पर क्षुद्र अहंकार करूँगा तो मैँ " ब्रह्मद्रोही " हो जाऊँगा । व्यापक ब्रह्म को " क्षुद्र अहम् " मेँ परिच्छिन्न करने का " घोर पातक " मुझे लगेगा।
" अहं ब्रह्मास्मि " योँ सिद्धान्तरूप से तो सभी देहोँ मेँ वह परमतत्व परिपूर्ण हो रहा है और सभी की बुद्धियो का साक्षी भी है । सभी प्राणी अपने को सबसे बड़ा और सबसे गुणी मान कर " अहं ब्रह्मास्मि " की रटन अज्ञानपूर्वक करते ही रहते हैँ । परन्तु इतने मात्र से साधक का कुछ भी उपकार नहीँ हो पाता । जब तो किसी साधक को उसके साथ ही यह स्फूर्ति अथात् प्रतीति भी हो जाय कि वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्व ही मेरी बुद्धि का साक्षी है , तो वैसे स्फुर्तियुक्त आत्मा के विस मेँ ही हम " अहम् " ( मैँ ) शब्द कह रहे है । जब कोई साधक अपने उपर पड़ी हुई अविद्या की चादर को बार - बार उतार कर फेँकने लगता है , जब कोई साधक मांस के झोँपड़े मेँ से निकल कर बाब - बार बाहर बैठने लगता है , तब उस साधक को ही हम " अहम् " ( मैँ ) कहना चाहते हैँ । देश काल या वस्तु परिच्छिन्न मेँ न आने वाली स्वभाव से ही परिपूर्ण वस्तु है वह " ब्रह्म " कही जाती है । इस " मैँ " को और उस " ब्रह्म " को परस्पर एक बता देना " अस्मि " इस तीसरे पद का काम है । जिसका भाव यही होता है कि " मैँ " अर्थात् साधक " ब्रह्मतत्व " ही हूँ अथवा मैँ साधक ही तो ब्रह्म हूँ । अविद्या के प्रताप से जो मैँ अपने आपको संसारी आदि मान बैठा था वह भी मैँ नहीँ हूँ । देहेन्द्रियादि के साथ जल मरने वाला क्षुद्र प्राणी मैँ कदापि नहीँ हूँ । अथवा अविद्या के प्रताप से जो मैँ " ब्रह्मतत्व " को अपने से पृथक् - सातवे आसमान पर रहने वाला - तत्व मान बैठा था वह " ब्रह्मतत्व " मुझसे पृथक् पदार्थ नहीँ है ।
" तत्त्वमसि " जो अभी तक वृथा ही ( न मालूम क्योँ ) शरीरोँ के वेष्टनो से लिपटा पड़ा था , जो शरीर के साथ वृथा ही बार - बार मर और जी रहा था , श्रवणादि का अनुष्ठान करके महावाक्य की समझने की योग्यता अब इसमेँ आ गयी है , जो तीनोँ देहोँ अर्थात् तीनोँ पुरोँ से अलग रहने लगा है , जो तीनोँ देहोँ के साक्षि की हैसियत मेँ आ गया है , उसी को हम " लक्षणावृत्ति " से " त्वं " अर्थात् " तू " कह रहे हैँ । सृष्टि बनने से पूर्व सम्पूर्ण भेदोँ से रहित जो एक नामरूप रहित वस्तु थी , सृष्टि बन जाने के बाद अब भी जो वस्तु वैसी की वैसी ही है , जिस सद्वस्तु मेँ अब भी कोई विकार नहीँ आया है , उसी निर्विकार सद्वस्तु को हम " लक्षणावृत्ति " से " तत् " अर्थात् " वह " कह रहे हैँ । इन दोनो शब्दोँ के लक्ष्यार्थोँ की जो छिपी हुई एकता है , उसी गुप्त एकता का ग्रहण " असि" ( है ) यह पद करा रहा है । परन्तु कितना भी प्रयत्न करे इस लक्ष्यार्थ तक तो केवल अधिकारी लोँगोँ की ही उदार दृष्टी पहुँचेगी । दूसरे अनाधिकारी लोग तो इस महावार्ता को हँसी - ठिठोली मेँ टाल देँगे और परम पद के साथ खिलबाढ़ कर बैठेँगे । मुमुक्षु साधकोँ को चाहिये कि " तत् " " त्वं " पदोँ की जो एकता प्रमाणपुष्ट हो चुकी है , उसका दिव्यानुभव वे भी ले लेँ , और वैसा अनुभव करके अनादि काल की इस वृथा खटपट को भूल जाँय । वे अनुभव करेँ कि क्या हम अनादि काल से इसी " भवजाल " मेँ उलझे रहने को यहाँ उतरे हैँ ? क्या इस संसार की बेमतलब उखाड़ - पछाड़ ही हमारे इस जीवन का चरमलक्ष्य है ? या हमारा अपना कोई स्थाई रूप भी है ? जिसके आधार से हमको शान्ति के सुखद दर्शन मिल सकते हैँ । इसी गंभीर प्रश्न का उत्तर " तत्त्वमसि " ( तुम तो वह हो ) आपको खटपट की कुछ भी आवश्यकता नहीँ है । यह " तत्त्वमसि " महावाक्य आपको संकेत कर रहा है ।
" अयमात्मा ब्रह्म " जो तत्व स्वयंप्रकाश होने के कारण ही यद्यपि सबको प्रत्यक्ष हो रहा हैफिर भी मायामोहित प्राणी ने इस स्वयंप्रकाशतत्व की भी ऐसी अपेक्षा की है जैसी कदाचित् कदाचित् शत्रुओँ की भी कोई न करता हो । कोटिजन्मोँ के पुण्योँ के परिपाक से जब किसी साधक की सूक्ष्म दृष्टि उस तत्व तक जा पहुँचे तब सूक्ष्म दृष्टि से पकड़ लिये हुए उसी तत्व को हम " अयम् ( यह) कह रहे हैँ - अर्थात् यह तत्व कभी किसी से छिपता नहीँ है और यह कभी किसी का दृश्य नहीँ नहीँ होता है । अहंकार , प्राण , मन , इन्द्रिय तथा देह का जो समुह है , उस सभी का अधिष्ठान , सभी का साक्षी , सभी से प्रत्यक् , सभी से आन्तर , जो कोई तत्व है उसी को हम आत्मा कहते हैँ। यह जो आकाशादि संसार हमेँ दिख रहा है यह सब क्षणभंगुर है । यह क्षणभंगुर संसार अपने स्वभाव के अनुसार जब शेष नहीँ रह जायगा , तब जो तत्व शेष बचेगा उस तत्व को हम " ब्रह्म " कहते हैँ ।  वह ब्रह्मतत्व साधक की समझ मेँ आया हुआ स्वयं प्रकाश आत्मा ही तो है । इस आत्मा से भिन्न कोई ब्रह्मनाम का पदार्थ होता होगा यह विचार प्रमाणानुमोदित नहीँ है । इस आत्मा से भिन्न किसी को ब्रह्म समझना भारी से भारी भूल है ।
श्री नारायण हरिः ।    
!! छिन्नमस्ता रहस्य!!
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!! छिन्नमस्ता रहस्य!!
शिव ! शिव !! " छिन्नमस्ता " मूर्ति मेँ देखेँ भगवती खड़ी है । अपने सिर को काट कर अपने हाथ मेँ रखा है । मुंह उपर कर रखा है । हाथ मेँ रखे सिर का मुख खुला हुआ है । उस मुंह मेँ अपने कटे हुए गले से एक रक्त की धारा अपने ही मुख मेँ जा रही है । एक रक्त की धारा एक सखी के मुंह मेँ जा रही है और अन्य धारा दूसरी सखी के मुंह मेँ । यह अपने ही मस्तक की बलि भगवती ने अपने को दे रखी है । बलि का अर्थ होता है उपहार ( gift ) । आजकल यज्ञ मेँ अन्तिम बलि नारियल की दी जाती है । नारियल अपने सिर का प्रतिक है । " गोपथ ब्राह्मण " मेँ उसे नर बलि कहा है । अपने सिर को काट कर देने का विधान कहीँ नहीँ है । नारियल या सिर चढ़ाने का अर्थ अन्तिम बलि देना ही है । अतः " छिन्नमस्ता " ने अपनी सिर रूपी अहन्ता की बलि देकर उसे " पाणि " मेँ रखा है
भगवति की " स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च " ज्ञान , बल और क्रिया रूपी तीन रक्त की धारायेँ बह रही है । उसमेँ ज्ञान , इच्छा और क्रिया समकालिक है । जीव मेँ अभी ये समकालिक नहीँ है । हम इच्छा करते हैँ सत्य बोलेँ , पर क्रिया करते हैँ दूसरे को ठगने की । इन तीनोँ को समकालिक हो कर स्वतन्त्र होना है । अतः भगवती के छिन्न मस्तक होने पर ये तीन धारायेँ निकली । एक रक्त की धारा ज्ञान की अपने ही मुंह मेँ पड़ी । कटी हुई अहन्ता माया रूपी अन्तःकरण से कट कर साक्षी के मुंह मेँ पड़ी । इच्छा और क्रिया रूपी दो रक्त की धारायेँ दाहिनी सखी विद्या और बांयी सखी अज्ञसेविका के मुंह मेँ पड़ी। दाहिनी सखी साधक है । बांयी सखी अज्ञ है । जो भी उसकी सेवा करता है वह उसकी क्रियाओँ से लाभ उठाता है ।
यह " छिन्नमस्ता " की मूर्ति " वेदान्त " की मूर्ति है । " समित्पाणिः " मेँ कहा गया है कि समिधा को पाणि मेँ लेकर गुरु के पास जाओ । तो समिधा को पाणि मेँ ही क्योँ रखा ? क्योँकि जिससे काटोगे उसी मेँ रखना है । जिस आत्मतत्त्व से अविद्या को काटोगे उसी मेँ रखना है । जिस आत्मतत्त्व से अविद्या को काटोगे उसी आत्मत्त्व मेँ अविद्या लीन होगी । सूर्यकान्तामणि या आतशी शीशा स्वयं कागज को नहीँ जलाता बल्कि सूर्य जलाता है पर सूर्यकान्तमणि मेँ चढ़ा हुआ सूर्य ही जलाता है । उसी प्रकार ब्रह्माकार वृत्ति मेँ उपारूढ़ ब्रह्म ही अज्ञान को काट रहा है । ब्रह्माकार वृत्ति तो स्वयं माया है वह अज्ञान को क्या काटेगी ।
शिव ! शिव !!


।।  अहं ब्रह्मास्मि ।।

।।  अहं ब्रह्मास्मि ।।
नारायण । आप महामाक्य श्रवण करते है - " अहं ब्रह्मास्मि " ।
यदि हम इतना ही बोलेँ कि  " अहं ब्रह्मास्मि " तो यह महावाक्य हुआ कि नहीँ हुआ ? नहीँ हुआ । अहं अस्मि अर्थात् मैँ हूँ । तो भगवन् , " मैँ हूँ " यह बात चीँटीको मालुम है कि नहीँ ? मच्छर को मालुम है कि नही ? नारायण , कोई छुता है तो क्योँ भागता है , कोई उड़ाता है तो क्योँ उड़ता है ? " मैँ हूँ " यस बात तो माथे के बालमेँ ( केशमेँ ) जो जुँए होती है उसे भी मालूम है , मच्छरको भी मालूम है , पागलको भी मालूम है , बेवकुफको मालूम है - " मैँ हूँ "  यह तो सबको मालूम है । " अहं अस्मि " - यह वाक्य है कि नहीँ ? कि वाक्य तो है " यह मैँ हूँ " । अगर आपको इतनेसे ही संतोष हो जाये कि " मैँ हूँ " तो आपको यह कहना पड़ेगा कि जन्म होते हुए भी आप हैँ , मरण होते हुए भी आप हैँ । राग - द्वेष करते हुए भी आप हैँ।
" वेदान्त " यह नहीँ कहता है कि " मैँ हूँ " । यह वेदान्त - महावाक्य - जन्य अनुभवका उल्लेख नहीँ है । हमारे दिलमेँ यह अगर हो गया कि " मैँ हूँ " तो वेदान्त बोध हो गया ऐसा समझना गलत है । महावाक्य बोलता है - " अहं ब्रह्म अस्मि " । अब देखेँ , इसमेँ एक बात और आ गयी , " मैँ ब्रह्म हूँ " । कि आपका नाम एक तो पहले था " मैँ " और अब दूसरा नाम रख रहे हैँ - " ब्रह्म " , तो यह दूसरा नाम काहे को रख रहे हैँ " ब्रह्म " पहले तो ब्रह्म शब्दका अर्थ समझ ले मेरे - भाई । यदि " ब्रह्म " शब्दका अर्थ नहीँ समझेँगे तो - " मैँ का ब्रह्म समझना " व्यर्थ हो जायेगा ।
" ब्रह्म " शब्दका अर्थ - सत्य , ज्ञान  , अनन्त " सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म " - यह ब्रह्म शब्दका अर्थ होता है । ब्रह्म किसे कहते है ? कि जो सत्य होवे अथात् जिसको कभी , कहीँ , कोई , किसी भी वस्तुमेँ " ना " ना बोल सके , उसका नाम हुआ सत्य , कभी अर्थात् किसी कालमेँ , कहीँ अर्थात् किसी स्थानमेँ , किसी अवस्थामेँ , कोई भी मनुष्य चाहे " आस्तिक " हो चाहे " नास्तिक " , चाहे वैदिक हो चाहे अवैदिक किसी भी प्रकारसे ना न कर सके , न समाधिसे , न विवेकसे , न उपासना से  जिसे ना न कर सके , उसका नाम सत्य है । सत्य अर्थात् अबाध्य जिसके मिथ्यात्वका निश्चय न हो सके उसको सत्य बोलते है ।
" ज्ञान " का अर्थ है जो स्वयं प्रकाश है - सत्य होवे और जड़ होवे तो बोले कि नहीँ चैतन्य होना चाहिए । चैतन्य होवे और बाधित होवे , क्षणिक होवे तो ? कि नहीँ वह भी नही होना चाहिए , सत्य होना चाहिए ।
" अनन्तं " अर्थात् देश - काल - वस्तुसे अपरिच्छन्न , परिपूर्ण , अविनाशी , अद्वय - ऐसी वस्तुका नाम " ब्रह्म " है ।
" अस्मि " कि जिसको आप मैं बोल रहे हैँ सो और जिसको आप ब्रह्म समझ रहे हो सो , " वह दोनोँ दो नहीँ एक है " , नारायण  !
उपासकोँने इसमेँ क्या झगड़ा लगाया कि यह " महावाक्य " तो है - ही - है , ( परन्तु इसका अर्थ दूसरा है ) कि जैसे " शालग्राम " कि शिला या " नर्मदा - शिला ( नर्मदेश्वर- शिला )  शंकर देखनेमेँ तो छोटे से हैँ या गोल - मटोल हैँ या लम्बे हैँ परन्तु वे नारायण है अथवा शिव हैँ तो यह हम शास्त्र - जन्य प्रज्ञासे श्रीशालग्रामजी मेँ " नारायणत्व " और नर्मदा - शिला ( नर्मदेश्वरजी ) मेँ " श्रीशिवत्व " आरोपित करके उपासना करते हैँ , वैसे ही " अहं " मैँ मेँ " ब्रह्मत्व " का आरोप करके उपासनाकी जाती है कि " मैँ ब्रह्म हूँ " ! पहले " अहं " को जाने , ब्रह्मको जाने , अहं मेँ ब्रह्मत्वका आरोप करेँ और फिर अहं मेँ ब्रह्मकी उपासना करेँ । उपासक लोगोँने कहा कि यह भी एक वैसी उपासना है कैसी ? कि जैसी देखनेमेँ गोल - मटोल शालग्राम - शिला या लम्बी - लम्बी - सी नर्मदा शिला - वह जड़ है , वह पाषाण है , वह अल्पदेश . अल्पकाल और अल्प- रूपमेँ है लेकिन जैसे उसमेँ ईश्वरत्वका आरोप करके हम उसकी उपासना करते हैँ वैसे ही यह अपना " मै " भी देह देशमेँ है , अमुक कालमेँ वर्तमान कालमेँ है - ऐसे समझेँ और अहं - अहं - अहं जो शब्द है इसके अर्थ - रूपमेँ है , तो जैसे शालग्राम - शिलामेँ ब्रह्म बुद्धि करते हैँ , उपासना करते हैँ वैसे ही इस नन्हे - मुन्ने " अहं " मेँ भी ब्रह्म - बुद्धि करके इसकी उपासना करनी चाहिए । " अहं ब्रह्मास्मि " जो है वह क्या है कि उपासनाका ही अंग यह वाक्य ही है । यह बात उपासक लोग कहते हैँ - नाम नहीँ लेते हैँ क्योँकि आचार्योँका नाम लेनेसे फिर बहुतोँका नाम लेना पड़ेगा और बहुतोँका नाम लेने से क्या फायदा ?
उपासकोँके मतमेँ जैसे " इदं " मेँ ब्रह्म - बुद्धि आरोपित है वैसे ही अहं मेँ भी ब्रह्म - बुद्धि आरोपित है । अद्वैत - वेदान्ती कहते हैँ कि इदंमेँ जो ब्रह्म - बुद्धि है वह तो आरोपित है और अहंमेँ जो ब्रह्मबुद्धि है वह वास्तविक है क्योँकि इदं पदका जो  भी अर्थ होता है वह अहं के आश्रित होता है ।
 अद्वैत - वेदान्ती कहते हैँ कि इदंमेँ जो ब्रह्म - बुद्धि है वह तो आरोपित है और अहंमेँ जो ब्रह्मबुद्धि है वह वास्तविक है क्योँकी इदं पदका जो भी अर्थ होता है वहं अहं के आश्रित होता है । यह कैसे होता है कि  , आप जब किसीको " यह " बोलेँगे जैसे यह घड़ी तो " मैँ " होगा तब यह घड़ी बोलेँगे - यह घड़ी मालूम तब पड़ेगी जब " अहं " होगा - अहं के बिना " इदं " की उपलब्धि नहीँ होती । इसलिए एक व्यक्ति वस्तुओँमेँ जो सुषुप्ति कालमेँ भासती नहीँ ऐसी " शालग्राम " - शिलामेँ या ऐसी " नर्मदा " - शिलामेँ जो ब्रह्म बुद्धि है  वह तो अहंकी अपेक्षासे दृश्यमान पदार्थमेँ आरोपित ब्रह्म - बुद्धि है , क्योँकि वह एक देशमेँ है , एक कालमेँ है , एक द्रव्यके रूपमेँ है और अहंके आश्रित है - पहले अहं वृत्ति भासे तब इदं वृत्ति भासती है । इदं - वृत्ति , अहं - वृत्तिपूर्वक होती है । तो अहंवृतिके आश्रित होने से इदं मेँ जो ब्रह्म - वुद्धि है वह तो आरोपित है लेकिन अहंमेँ जो ब्रह्म - बुद्धि है वह वास्तविक है । कि वह कैसे अहं तो शरीर है ? वस बोले यही गलती है , अहं माने शरीर नहीँ - " य एष सुप्तेषु जागर्ति स अहं " जो जाग्रत अवस्था न होनेपर भी , सुषुप्ति अवस्थामेँ रहकर सुषुप्तिको प्रकाशता है , उसका नाम अहं है , अहं माने द्रष्टा , स्वं ज्योति जो जाग्रत - अवस्थामेँ पाप - पूण्य कमा सकता है , वह कमाऊ बेटा विश्व जो स्वप्नावस्थाकी प्रयोगशालामेँ सारी सृष्टिका " मॉडल " तैयार कर सकता है वह प्रयोगशालामेँ विद्यमान तैजस - तैजस्वी - सारी सृष्टिके निर्माणमेँ समर्थ , तेजस कहेँ या स्वयं ज्योति कहेँ उसमेँ कोई फर्क नहीँ है भला , और जो प्रज्ञाका घनीभाव होनेपर उसके लीन हो जानेपर भी सुषुप्तिमेँ जो जागता है सो , ऐसा जो जाग्रतमेँ विश्व , स्वप्नमेँ तैजस और सुषुप्तिमेँ प्राज्ञ संज्ञा धारण करता है और वस्तुतः तीनो अवस्थाओँमेँ एक होनेसे तीनोँसे न्यारा है । ऐसा है यह " मै " । यह मै आत्मा है । 
 अब एक दूसरी बात - जाग्रतमेँ स्वप्न - सुषुप्ती नहीँ , स्वप्नमेँ जाग्रत सुषुप्ती नहीँ और सुषुप्तीमेँ जाग्रत - स्वप्न नहीँ और आत्मा तीनोँ मेँ विद्यमान । तो जाग्रत  - देश , जाग्रत - काल , जाग्रत - द्रव्य तीनोँसे जो न्यारा है , स्वप्न - देश , स्वप्नकाल , स्वप्न - द्रव्य - तीनोँसे जोरा है , और और सुषुप्तीमेँ धनीभूत देश , घनीभूत - काल , और घनीभूत द्रव्य जो कि दृष्टीमेँ , वृत्तिमेँ लीन हो गये है उनमेँ अलीन जो आत्मवस्तु है वह असलमेँ वस्तुतः देश - काल - वस्तुसे अपरिच्छिन्न है और ब्रह्म भी देश - काल वस्तुसे अपरिछिन्न है । यह " मैँ " स्वयं प्रकाश है और ब्रह्म भी स्वयं प्रकाश है और मैँ परम - प्यारा है और अनन्तता भी परम प्यारी है कि इसलिए वस्तुतः द्रष्टा ब्रह्म ही है - हम द्रष्टाको ब्रह्म नहीँ जानते , " यही अज्ञान है " ।
द्रष्टा ब्रह्म है तो दुनिया है , एक दुनिया है जिसका द्रष्टा मै , तो मैँ तो हो गया ब्रह्म और जिसका मैँ द्रष्टा था उस दुनियाका क्या हुआ ? वही कष्ट देती है । दृश्य अर्थात् देह और कुछ नही समझेँ , दृश्य माने हाथी - घोड़ा नहीँ , दृश्य माने देह ( काय ) - बारम्बार द्रष्टा देहसे एक होकर ,  सूक्ष्म देहसे एक होकर स्थूल - देहसे एक होकर अपनेको परिच्छिन्न देखता है और सृष्टिको अपने से न्यारी देखता है । यदि द्रष्टा अपनेको द्रष्टा जाने तो दृश्य उससे न्यारा हो ही नहीँ सकता ।
" येन यत् दृश्ते तत् ततः पृथक न भवति " ।
" येन यत् सिद्धयति येन यत् दृश्यते " - अर्थात् जिस वस्तुकी सिद्धि होती है माने जिसके रहनेपर जो चीज मालूम पड़े वह चीज उससे जुदा नहीँ होती यह  वेदान्त - शास्त्र का नियम है एक । क्या नियम है - रोशनी रहे तब तो लाल और पीलेका भेद मालूम पड़े और रोशनी न रहे तो लाल और पीलेका भेद न मालूम पड़े , इसलिए लालपना और पीलापना रोशनी ही है , यह बात ध्यान मेँ आयी न । लाल और पीला कब मालूम पड़ेगा कि जब रोशनी होगी और रोशनी नहीँ होगी तो लाल - पीलेका भेद नहीँ होगा , इसलिए लाल और पीला दोनो रोशनी से जुदा नहीँ है , रोशनी ही है ।
यह राम है और यह श्याम है - दोनोँका  दो नाम है - एकका नाम राम और एकका नाम श्याम ! परन्तु शब्द है , ध्वनी है तब तो राम शब्द है और श्याम शब्द है और यदि ध्वनि नहीँ है तौ न राम शब्द है और न श्याम शब्द है , इसलिए राम शब्द और श्याम शब्द दोनो ध्वनिसे भिन्न नहीँ है - यह नियम देखेँ - " येन विना यत् न दृश्यते , येन विना यन् न सिद्धयति तत् तेन स्व साधकेन स्वप्रकाशकेन पृथङ् न भवति ।
अब देखे , सम्पूर्ण दृश्य प्रपञ्च द्रष्टाके बिना दिख ही नहीँ सकता । इसलिए द्रष्टासे भिन्न दृश्य नहीँ है । " यत् कार्य तत् कारणात् न भिद्यते " - दूसरा नियम लेँ जो कार्य होता है वह अपने कारण - द्रव्यसे पृथक नहीँ होता । " यथा मृदो घटः " - जैसे मिट्टी से घड़ा । मिट्टी कारण - द्रव्य है और घट कार्य द्रव्य है , द्रव्य तो दोनोँ मिट्टी है - एक जगह शकल बनी हुई है घड़ेकी  और एक जगह नहीँ बनी हुई है इतना ही भेद है । शकल जो है वह मिट्टीमेँ आरोपित है , आकृति जो है वह मिट्टीमेँ आरोपित है - मिट्टीके बिना घड़ेकी आकृति किसमेँ बनायु जाये ? इसलिए मिट्टीसे भिन्न घड़ा नहीँ है , तो कारणसे कार्य भिन्न नहीँ होता ।
 नारायण । अब देखेँ ; जिस सर्व परमात्माने अपने स्वरूप मेँ अपने संकल्पसे स्वप्नवत् इस सृष्टिकी रचना की है , उस ईश्वरसे ( परमात्मा ) अलग यह सृष्टि नहीँ है । और जो द्रष्टा अपनी दृष्टिसे इस सृष्टिको देख रहा है , उस द्रष्टासे भिन्न यह सृष्टि नहीँ है । यह तो बाबा , बड़ा टेढ़ा हुआ कि द्रष्टासे भिन्न भिन्न भी यह सृष्टि नहीँ है और ईश्वर , परमेश्वर , परमात्मासे भिन्न भी सृष्टि नहीँ है । देखेँ  , द्रष्टाको द्रष्टा आप बोलते हो परिच्छिन्न " अहं " की उपाधि से युक्त करके , और ईश्वरको ईश्वर आप बोलते हो कारणकी उपाधिसे चैतन्यको युक्त करके इसलिए परिच्छिन्न अहमर्थको और पूर्ण अहमर्थको , सर्वज्ञको , ईश्वरको जीव पदका अर्थ और ईश्वर - पदका अर्थ दोनोँको व्यवहारमेँ रहने देँ । जैसे द्रष्टाके बिना दृश्यकी सिद्धि नहीँ हो सकती वैसे ईश्वरके बिना भी दृश्यकी सिद्ध नहीँ हो सकती । जो दृश्य - सृष्टिका कारण है , जो दृश्य - सृष्टिका द्रष्टा है वो दोनोँ एक है जुदा - जुदा नहीँ है - कारणत्व उपलक्षित चैतन्य और प्रमातृत्व उपलक्षित चैतन्य हमारे शरीरके भीतर जो जानकार है उस जानकारसे जिस चैतन्यको सूचना होती है और सारी सृष्टिमेँ जो सर्वज्ञ - सर्वशक्तिमान चैतन्यकी सूचना होती है उन दोनोँमेँ एक ही चैतन्य ब्रह्म है । माने ईश्वर असलमेँ ब्रह्म है और हमारा " अहं " असलमेँ ब्रह्म है और ब्रह्मसे भिन्न सृष्टि नहीँ है इसलिए मुझसे भिन्न सृष्टि नहीँ है । ऐसे बोलेँ कि सब ईश्वर है , सब मैँ हूँ , सब ब्रह्म है , " सर्वम ब्रह्मेति " और चूँकि मैँ ब्रह्म हूँ इसलिए मेरे अतिरक्त सृष्टि नहीँ है । " यह वेदान्तका डिण्डिम घोष " है ।
आप जल्दी मानो या न मानो यह आप जिसको अपना दुश्मन समझते हो वह भी आप ही हैँ । मानले सपनेमेँ आपको अपना एक दुश्मन मिल जाये और आपसे खुब गुथ्थम - गुथ्थी हो जाये और दोनो  - दोनोपर तलबार चला दे और दोनोँ के शरीरसे खुन बहने लगे तो आपका शत्रु कौन है ? आपही है न । यह जो घायल हुआ वह भी और जिसने घायल किया वह भी , आपका मैँ ही शत्रु और मैँ के - रूपमेँ प्रकाशित हो रहा है । और वह तलबारके रूपमेँ कोन है ? आपका मैँ है ।
नारायण । अध्यात्म - विद्या क्या कोई साधारण वस्तु है ? यह जिसको आप महाराष्ट्री और गुजराती समझते हैँ , जिसको आप हिन्दू और मुसलमान समझते हैँ , भारतीय और पाकिस्तानी समझते है . जिसको युरोपीय और ऐशियाई समझते हैँ और जिसको मंगल - ग्रहका , शुक्र - ग्रहका और चन्द्रमा - ग्रहका और अपने पृथिवी - ग्रहका अलग - अलग समझते है , जिसको ब्रह्मलोकका और नरकका समझते हैँ वह ब्रह्मलोकके रूपमेँ आपही प्रकाशित हो रहे हो । नरक के रूपमेँ आपही प्रकाशित हो रहे हो अनन्तकोटी ब्रह्माण्डके रूपमेँ आपही प्रकाशित हो रहे हो , आप । जब इस देहकी ओर से उठना होता है तब यह साधना की जाती है कि मैँ देह से न्यारा हूँ और जब अपने " मैँ " को ब्रह्मके साथ मिला दिया जाता है तब स्पष्टम् - स्पष्टम् मालूम होता पड़ता है कि सब " मैँ " हूँ । जड़ा अपने मैँ को , ब्रह्मसे मिलाकर के तो देखें ! समाप्त ।
सर्वज्ञ शंकर । कामकोटी शंकर ।।
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।              

                                     ।। श्रीगुरुभ्यो नमः ।।
                      " अद्वैत वेदान्त और परमाभक्ति " -
भारतीय संस्कृति धर्म तथा दर्शन का मूल स्रोत वेद ज्ञान का अक्षय भण्डार है । मानवीय धर्म तथा तत्त्वज्ञान का उद्गम यह वेद अनादि काल से मनुष्य को इष्ट प्राप्ति तथा अनिष्ट परिहार के अलौकिक मार्ग का प्रदर्शन कर धर्म , अर्थ , काम और मोक्षरूप चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा है । " मन्त्र ब्राह्मणात्मको वेदः " अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणात्मक वेद है । मन्त्र समुदाय को संहिता भी कहते हैँ , संहिता एवं ब्राह्मणात्मक वेद के अन्तिम भाग उपनिषद् हैँ । उपनिषद् को ही वेदान्त कहते हैँ क्योँकि वे वेद के अन्तिम भाग हैँ । " वेदस्य अन्तः " - इस व्युत्पत्ति के अनुसार वेद का अन्तिम भाग अथवा वेद का सार भाग को " वेदान्त " कहते हैँ जो उपनिषद् ही है , " वेदान्तो नाम उपनिषद् प्रमाणम् तदुपकारिणि शारीरिक सूत्रादीनि च । " उपनिषद् ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद्मगवद्गीता ये तीनोँ ग्रन्थ वेदान्त के " प्रस्थानत्रयी " के नाम से जाने हैं। इस प्रस्थानत्रयी के उपर भाष्य की रचना कर आचार्योँ ने उपनिषदादिका गंभीर और निगूढ़ अर्थ का प्रतिपादन करने का प्रयास किया है । आचार्योँ के मत की भिन्नता के कारण शास्त्रोँ का तात्पर्यार्थ भी अनेक रूप से गृहित हुआ है । प्रस्थानत्रयी के सुप्रसिद्ध भाष्यकारोँ मेँ आचार्य शङ्कर का नाम अग्रगण्य है । आचार्य शङ्कर ने उपनिषद् , ब्रहसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता के उपर जो भाष्य की रचना की है वह " अद्वैत - भाष्य " के नाम से ख्यात है । यद्यपि अद्वैत परम्परा अनादि काल से आचार्य परम्परा के माध्यम से प्रवाहित होती आ रही है तथा आचार्य शङ्कर के पूर्व भी अनेक आचार्यो द्वारा सुसमृद्ध हुई है तथापि आचार्य शङ्कर ने अपने विश्व प्रसिद्ध एवं विद्वतापूर्ण भाष्य के माध्यम से अद्वैत मतवाद को एक सुव्यवस्थित एवं सर्वजन ग्राह्य स्वरूप प्रदान किया । अद्वैत वेदान्त के अनुसार सच्चिदानन्द स्वरूप एक अद्वितीय निर्गुण निर्विकार सर्वधर्म रहित ब्रह्म ही सत्य है । " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः " जीव का वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है । " न विद्यते द्वैतं यत्र " इस व्युत्पत्ति के अनुसार अद्वैत मेँ केवल एक ही तत्त्व की वास्तविकता मानी गयी है । एक तत्त्व ब्रह्म के अतिरिक्त यद्यपि सम्पूर्ण संसार को मिथ्या माना गया है , परन्तु यहाँ मिथ्या का तात्पर्य आकाश - कुसुम के तरह अलीक नहीँ है ।इस सिद्धान्त मेँ तीन सत्ता मानी गयी है । जगत् की व्यावाहारिक सत्ता , ब्रह्म की परमार्थिक सत्ता ओर रज्जू - सर्प आदि की प्रतिभासिक सत्ता है । अतः जगत् की यद्यपि ब्रह्म के तुल्य पारमार्थिक सत्ता नहीँ है , तथापि व्यावहारिक सत्ता है जो व्यवहार काल मेँ सत्य है और जबतक ब्रह्मज्ञान नहीँ होता तबतक स्थायी है । कहा गया है कि -
" देहात्मप्रत्ययो यद्वत् प्रमाणत्वेन कल्पितः
लौकिकं तद्वदेवेदं प्रमाणं त्वाऽऽत्मनिश्चयात् ।। "
अपना वास्तविक स्वरूप अखण्डाद्वैत सच्चिदानन्द ब्रह्मरूपता को भूलकर अपने को कर्त्ता , भोक्ता आदि संसार धर्म से युक्त मानता है एवं अनादि काल से संसार मेँ जन्म मृत्यु आदि अनन्त दुःख से त्रस्त होता है । कर्म परिपाक होने पर वह दुःख निवृत्ति एवं परमानन्द स्वरूपता की प्राप्ति की इच्छा कर सद्गुरुके शरणापन्न होता है और सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त कर अपने स्वरूप मेँ स्थित हो जाता है । इस मत मेँ ज्ञान को ही परम पुरुषार्थरूप मोक्ष का साधन माना गया है । " आत्मा वाऽरे द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्याऽऽत्मनो वाऽरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वँ विदितम् " , " तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नायः पन्था विद्यतेऽयनाय "
" ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः " इत्यादि श्रुति प्रमाण से यह ज्ञात होता है कि ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है , ऐसा सिद्ध किया गया है ।
अब यदि " अद्वैत वेदान्त " मेँ एक अद्वितीय तत्त्व की सत्ता है तथा ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है तो सहज ही प्रश्न उठता है कि अद्वैत वेदान्त मेँ भक्ति की कोई सम्भावना बनती है अथवा नहीँ । इस समस्या पर विचार से पूर्व संक्षेप मेँ जान लेना अपेक्षित होगा कि " भक्ति " से क्या तात्पर्य है । भक्ति का लक्षण अद्वैत के परमाचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने करते हुए कहा है -
" द्रुतस्य भगवद्धर्माद्धारावहिकतां गता
सर्वेशे मनसो वृत्तिर्भक्तिरित्याभिधीयते ।। "
भगवद्धर्म अर्थात् भगवद्गुण श्रवणादि से द्रविभूत हुए चित्त की सर्वेश्वर भगवान् विषयक तैल धारावत् अविच्छिन्नवृत्ति ही भक्ति कही जाती है ।
" मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ।। "
" लक्षणं भक्ति योगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृत ॥ "
जिस प्रकार गङ्गा का प्रवाह अखण्ड रूपसे समुद्र की ओर बहता रहता है उसी प्रकार मेरे गुणोँ के श्रवण मात्र से मन की वृत्ति का अविच्छिन्न रूप से सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना ही निर्गुण योग का लक्षण है ।
" भज सेवायाम् " धातु से क्तिन् प्रत्यय करने से भक्ति शब्द निष्पन्न होता है । भक्ति के स्वरूप के विषय मेँ नारद भक्तिसूत्र मेँ कहा गया है कि-
" सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा " " अमृत स्वरूपा च " अर्थात् वह भक्ति ईश्वर के प्रति परमप्रेमरूपा और अमृत स्वरूपा है । जिसको पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है , तृप्त हो जाता है , जिसके प्राप्त होनेपर मनुष्य न किसी वस्तुकी इच्छा करता है , न शोक करता है , न द्वेष करता है , न किसी वस्तु मेँ आसक्त होता है और न उसे विषय भोगोँ की प्राप्ति मेँ उत्साह होता है । जिसको जानकर ही मनुष्य उन्मत हो जाता है स्तब्ध हो जाता है वह भक्ति है । क्रमशः .....
.नारादीय भक्ति सूत्र मेँ ही बताया गया है कि पराशर नन्दन व्यास जी के मतानुसार भगवान् की पूजा आदिमे अनुराग होना भक्ति है । ऋषि शाण्डिल्य के मतमेँ आत्मरतिके अविरोधि विषय मेँ अनुराग होना भक्ति है । देवर्षि महामुनी नारद के मत मेँ अपने सब कर्मोँ को भगवान् को अर्पण करना और भगवान् का थोड़ा - सा भी विस्मरण होने मेँ परम व्याकुल होना ही भक्ति जैसे - व्रजगोपियोँ की भक्ति है । इस भक्ति सूत्र मेँ 11 ग्यारह प्रकार की भक्ति का वर्णन किया गया है यथा -
* गुणमहात्मयासक्ति * रूपासक्ति * पूजासक्ति * स्मरणासक्ति * दास्यासक्ति * सख्यासक्ति * कान्तासक्ति * वात्सल्यासक्ति * आत्मनिवेदसक्ति * तन्मयतासक्ति * और * परमविरहासक्ति ।
नवधा भक्ति का वर्णन बहुशास्त्रोँ मेँ प्राप्त होता है ।
" श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।"
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि वेदान्त शास्त्र मेँ विशेषतः अद्वैतवेदान्त मेँ भक्ति सम्भव है अथवा नही ?
अद्वैतवेदान्त मेँ भक्ति की क्या उपयोगिता है ? इन प्रश्नोँ के उत्तर मेँ यह कहा जाता है कि न केवल अद्वैतवेदान्त मेँ भक्ति सम्भव है अपितु इसमेँ भक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर देशिकेन्द्र एवं उनके अनुयायी आचार्यगण द्वारा सैद्धान्तिक रूप से अद्वैतात्मबोध से ही मुक्ति सम्भव है , यह शास्त्र प्रमाण और तर्कादिके द्वारा प्रतिपादन किया गया है अर्थात् अद्वैतात्म निश्चय ही वह चरम कारण है जिसके होने पर मनुष्य का अज्ञान नष्ट होकर अपने स्वरूप की स्थिति प्राप्त होती है पर मुक्ति के प्रति या अद्वतात्मबोध के प्रति भक्ति की कारणता का किसी भी आचार्य के द्वारा खण्डन न किये जाने से यह प्रमाणित होता है कि भक्ति वेदान्त सिद्धान्त की विरोधिनी नहीँ अपितु उपादेया है । जिसको मूलतः वेदान्त कहते हैँ , उस उपनिषद् मेँ अनेकानेक उपासनाओँ का वर्णन उपलब्ध है । " श्वेताश्वतरोपनिषद् " मेँ यह भी बताया गया है कि -
" यस्य देवे परा भक्तिर्यथादेवे  तथा गुरौ
तस्यैते कथिताः ह्यार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। "
और " बृहदारण्यक श्रुति " मेँ भी कहा गया है कि " आत्मेत्येवोपासीत अत्र ह्येते सर्वँ एकं भवन्ति "
आचार्य भाष्यकार शङ्कर के भाष्य समेत समस्त वेदान्त ग्रन्थ मेँ भक्ति का कहीँ प्रत्यक्ष - प्रतिपादन तो कहीँ पर परोक्ष प्रतिपादन हुआ है । समस्त वेदान्त शास्त्र के" मंगलाचरण " मेँ कहीँ परमेश्वर की तो कहीँ गुरु की भक्ति अराधना आदि किया गया है । आचार्य शङ्कर सैद्धान्तिक रूप मेँ अद्वैततत्त्व का प्रतिपादन करते हैँ , श्रुति - स्मृति आदि प्रमाण और तर्क आदि के द्वारा केवल एकमेवाद्वितीय परमार्थतत्त्व ही शास्त्र प्रतिपाद्य है पर उनके द्वारा किया गया श्रीबद्रीनाथ आदि धामोँका उद्धार और स्तोत्र आदि का प्रणयन का अवलोकन करे लगता है उनके जैसे भक्त ( आचार्य शङ्कर ) तो इस संसार मेँ विरल है । विवेक चूड़ामणि मेँ तौ आचार्य ने मुक्तकण्ठ से घोषणा कि है कि -
" मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्याभिधियते ।। "
धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थोँ मेँ भक्ति का समावेश सम्भव नहीँ है । क्योँकि इन चारोँ का फल इस प्रकार बताया गया है - धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अर्थ - भौतिक साधनोँ से सम्पन्न होता है तथा काम से व्यक्ति पुत्रैषणा , वित्तैषणा इत्यादि को प्राप्त करता है और मोक्ष - निर्विकल्प माना जाता है । अतः इन चार प्रकार के पुरुषार्थोँ के अतिरिक्त पञ्चम पुरुषार्थ भक्ति को मानना आवश्यक है ।
                            !! श्री हरिः !!