Tuesday, May 15, 2012

दुःखी कौन ? -  " प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत्-
" दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " -
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 76 }
वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धः नामक ग्रन्थ में कहते है -
" दुःखि यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । "
कितनी सुन्दर बात हमारे आचार्य जी कह रहे हैं - यदि आत्मा दुःखी होता , तो " मैं दुःखी हूँ " या " मैं दुखी था " - इसका गवाह कौन है ? इसका साक्षी कौन है ? क्योंकि , किसी वस्तु की सिद्धि दो तरह से होती है । अदालत में मुकदमा जाये तो जज को दो चीज चाहिए - एक तो लिखन्त दस्तावेज हो और दूसरे , गवाह { साक्षी } चाहिए । शास्त्र तो दस्तावेज हैं , निर्णय करने के लिए लिखित प्रमाण है और फिर साक्षी भी चाहिए । तो , देखिए मेरे भाई , यदि दूसरे के बारे में कोई बात जाननी हो तो जैसी लिखी हो , वैसा मानना पड़ेगा और अपने बारे में कोई बात जाननी हो तो वहाँ स्वानुभूति का प्रमाण मुख्य होगा । अपनी आँख से देखी हुई जो चीज़ होती है , उसके लिए लाख लिखा मिल जाय , लेकिन अपनी आँख की देखी हुई जो चीज़ होती है , उसपर अविश्वास नहीं होता है । माने हमारी प्रमाण्य - बुद्धि जो है , वह स्वानुभूति में अधिक है । बेटा भी आकर कहे , पत्नी भी कहे , माँ भी कहे , लेकिन अपनी आँख से देखी हुई चीज़ होवे तो किसीकी भी बात नहीं मानते हैं , अपनी आँख की बात मानते हैं ।
अब यह जो " मैं दुःखी हूँ " - यह कहाँ लिखा हुआ है , इसलिए आप अपने को दुःखी मानते हो कि आप अपने दुःखीपने के स्वयं साक्षी हो ? कोई दूसरा कहे कि " आप दुःखी हो " तो आप कैसे मान सकते है ? दूसरे के कहने से नहीं मानेंगे , दूसरे के लिखने से नहीं मानेंगे। हम ही तो अपने दुःखीपने के साक्षी हैं । अब जो जिसका साक्षी होता है , वह उससे भिन्न होता है - यह नियम है भाई । हम घड़े को जानते हैं , तो घड़े से अलग होते हैं । देह को जानते हैं तो देह से अलग होते हैं । अपने दुःखीपने को हम जानते हैं , सो दुःखीपने से हम अलग होते हैं । यदि हम अपने दुःखीपने को नहीं जानते है तो हम दुःखी नहीं हैं और यदि दुःखीपने को जानते र्है , तो भी दुःखी नहीं हैं । यह क्या आश्चर्य है ? " दुःखी यदि भवेदात्मा , कः साक्षी दुःखीनो भवेत् " ? " दुःखीनो साक्षिता नास्ति " - जो दुःखी है , वह गवाह नहीं है । वह तो लड़ाई करने वाला है । और , " साक्षिणो दुःखिता तथा " - जो साक्षी है , वह दुःखी नहीं है ।
भाई साहब , यह आत्मा जो है वह दुःखी नहीं है । भगवान् आचार्य सुरेश्वर कहते हैं -
" नर्ते स्याद् विक्रियां दुःखी , साक्षिणा का विकारिणः "
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 77 }
आचार्य जी कहते हैं कि - विकार के बिना कोई दुःखी नहीं हो सकता है ।
जब सड़ाँध पैदा होती है , तब मनुष्य दुःखी होता है । चाहे शरीर में सड़ाँध पैदा हो कि इन्द्रियों में सड़ाँध पैदा हो कि मन में सड़ाँध पैदा हो । विकार अर्थात् किसी चीज़ का सड़ना । एक रूप से दूसरे रूप मेँ बदल जानां । बिना परिवर्तन के कोई दुःखी नहीं हो सकता । हमारी जो चीज़ थी , वैसी नहीं रही , बदल गयी , तब न हम दुःखी हुये ! तो बिना विकार के कोई दुःखी नहीं हो सकता और " साक्षिका का विकारिणः " - जो विकारी है, वह साक्षी नहीं है । जो बदल रहा है , वह गवाह नहीं है । बदलने  का तो गबाह है न । अतः -
" धीविक्रिया सहस्त्रणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः "
मैं सहस्त्र - सहस्त्र विकारों का साक्षि हूँ । दिन भर में बुद्धि सैकड़ों रूप बदल लेती है - यह प्रिय है , यह अप्रिय है , यह मेरा है और यह तेरा है ? यह दुःख है , यह सुख है । यह बुद्धि बहरूपिया है । " माया महाठगिनि हम जानी " , " रमैया का दुलहिन , लूटा बाजार " । यह तो वेश्या की तरह श्रृङ्गार करती रहती है , रूप बदलती रहती है । कभी आँसू गिराती है , कभी हँसाती है , मुस्कुराती है । इस वेश्या के समान बुद्धि के हजारो विकारों के हम साक्षी हैं । " अतोऽहमविक्रियः " - मैं तो निर्विकार हूँ और निर्विकार में दुःखीपना होता नहीं है ।
तो फिर यह दुःखीपना कहाँ से आया ?
यह भूल से दुःख माना गया है । भूल के सिवाय दुःख का कोई कारण नहीं है ।
" प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् "
जिसकै हम दुःखी कहते हैं , वह प्रज्ञा का अपराध है अर्थात् समझ का कसूर है ।
जब - जब हम दुःखी होते है . तब समझना हमारी समझ कुछ गलती कर रही है ।
जय हो सदाशिव !

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