Friday, September 14, 2012

“ भगवान् के प्रिये – सखा ‘ : -




                                                   भगवान्  के प्रिये सखा : -

भगवान् ने अर्जुन से कहा - अरे अर्जुन । जिस तत्त्व का उपदेश मैंने तुमको किया उस तत्त्व का उपदेश किसी काल में मैंने सूर्य को किया था । अर्जुन ने कहा - " मैं कैसे मान लूँ कि सूर्य को आपने उपदेश किया था ? " उस समय अपने सखा अर्जुन को जबाब देते हुये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने एक बड़ी विचित्र बात कही है । कहते हैं - अर्जुन ! तू मेरा भक्त है , मैं तुझे एक गुप्त बात बताता हूँ कि मैंने सूर्य को कैसे उपदेश दियाथा । अर्जुन ने कहा " आपके बहुत से भक्त है , जैसे देवर्षि नारद इत्यादि , उनको बता देते । मुझे ही बताते हो , इसमें क्या हेतू है ? भगवान् अर्जुन को एक दूसरा विशेषण देते सम्बोधित किया " मे सखा चेति " तू मेरा भक्त है , ऐसा नहीं , तू मेरा अभिन्न मित्र है । सखा शब्द का मतलब मित्र होता है । बड़ा विलक्षण शब्द है यह सखा । " " नाम आकाश का है , आकाश के साथ जो हो वह सखा है । आकाश अर्थात् जहाँ कुछ नहीं हो , वह सखा है । आकाश अर्थात् जहाँ कुछ नही { शून्य } है । सखा वह है जिसके साथ एक होने पर सारा संसार शून्य हो जाये । सखा यदि अपने पास हो तो सारा संसार नहीं के जैसा हो जाता है और वह यदि अपने पास न हो तो भी  सारा संसार शून्य की तरह हो जाये । यह सखा का लक्षण है । वह पास है तो संसार शून्य अर्थात् इस संसार की कीमत नहीं है । इसलिये वेदों में बार - बार जीव को सखा बताया है " द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया " । सखा का लक्षण शून्यवत् इसलिये है कि वह साथ में हो तो सारा संसार शून्यरूप है और उसकी कोई कीमत नहीं है , यदि वह साथ में नहीं है तो भी सारा संसार शून्यवत् है ।
" शून्यायितं जगत् सव् गोविन्दविरहेण मे ।
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।। "
{ अभिलाषाष्टक }
विरह से जब मैं अलग हुआ तब सारा जगत् शून्य हो गया । एक निमेष मैं जब उससे अलग हुआ तो वह निमेष एक युग की तरह लगा । " चक्षुषा प्रावृषायितम् " यह पता ही नहीं लगा कि मेरी आँखे है या बादल ! जैसे बादलों से वृष्टि होती चली जाती है , ऐसे ही आँखों से अश्रु - जल निकलता चला जाता है । तात्पर्य है कि चक्षु में विश्व रहता है " दक्षिणाक्षिस्थितो विश्वः " दक्षिणाक्षि में ही जाग्रत काल में जीव का निवास है । लगता है , न जाने कितने अनन्त जीवन बीत गये उस परमात्मा से दूर हुए , लेकिन एक निमेषमात्र को आत्मदृष्टि वहाँ से हटी तो लगता है कि अनन्त युग बीत गये । युग  बीते - बीताये नहीं , लेकिन प्रतीति ऐसी होती है । जहाँ उससे आँख हटी , निमेष भी युग की तरह हृ ओर जाग्रत काल के अभिमानी विश्व में से न जाने पंचमहाभूत और उन पंचमहाभूतों के अनन्त विकार , अनन्त देह सारे मानो उसमें से वर्षा की तरह निकलते चले गये । उस परमात्म दृष्टि से भिन्न होने पर यह सारा संसार लम्बा - चौड़ा और अनन्त जीवों का दीखता है । ये अनन्त जीव क्या हैं ? अपनी उस आत्मा के विरह के एक - एक आँसू की बूंद ही तो है ! उससे दूर होने पर जो निकला , वही तो यह सारा संसार है ।
संसार में इतने दुःख क्यों हैं , कभी सोचा ? इतने दुःख इसलिये तो हैं कि यह उस परमात्मा के अश्रुओं से ही उत्पन्न हुआ है । उसका रूप शास्त्रकारों ने बताया " शून्यायितं जगत् सर्वं " जैसे ही इस बात को समझा , वैसे ही जगत् शून्य हो गया । यह संसार शून्य क्यों है , बड़े - बड़े हेतु दिये " परिच्छिन्नत्वात् जडत्वात् " । हम कई बार सोचते हैं कि जितने हेतु देते हैं , उतना ही आपके मन में जगत् बैठा हुआ है । अब एक कड़ी बात आपको कह रहा हूँ : मनोविज्ञान का नियम है कि जो चीज़ अन्दर से दिल को खाती है , उसको हटाने के लिये मनुष्य बार - बार उस चीज़ को  दोहराता है! जितना हम जगत् को असत्य सिद्ध करने जाते हैं , उससे पता चलता है कि जगत् की सत्यता हमारे हृदय को खाये जा रही है , उससे बचने के लिये हम बड़े - बड़े हेतु देते हैं। वस्तुतः जब परमात्मा के अन्दर सखाभाव आ गया , जब हमने समझ लिया कि हम उसके साथ हैं , तब सारा संसार शून्य है । वहाँ बैठकर यह नहीं कहेंगे कि " हम तुम दो हैं । " वस्तुतः जब सखा के साथ बैठ जाते हैं तब संसार का ध्यान ही नहीं आता , संसार है या नहीं , इसका ही नहीं पता लगता ।
इसलिये भगवान् ने कहा कि " भक्त को मेरे और भी हैं लेकिन तू मेरा सखा है , इसलिये तुझे यह रहस्य बतला रहा हूँ । तुझ से नहीं छिपाऊँगा , सच्ची बात बताऊँगा । " अर्जुन ने कहा " बता दो । " भगवान् ने कहा जड़ा उलट - पुलट बोलूँगा क्योंकि विषय ही ऐसा है! " कभी ऐसा होता है कि बोलने वाला ठीक भाव से बोलता है , लोग उलटा समझते हैं । भगवान्र ने सोचा कि यह रहस्य भी ऐसा ही है । कहने जाऊँगा तो लोग उलटा ही समझेंगे । तब से अब तक लोग उलटा ही समझते हैं । भगवान् ने कहा " बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चाऽर्जुन " तेरे भी और मेरे भी अनेक जन्म बीत गये । अर्जुन ने पूछा - आपके बहुत  जन्म बीत गये , यह कैसे ? भगवान् ने यहाँ " बहूनि " शब्द का प्रयोग एक ही बार किया है । संस्कृतज्ञ शब्दों को बड़ा विचार कर रखते हैं । एक ही बार " बहूनि " इसलिये कहा कि जितने तेरे जन्म उतने ही मेरे जन्म बीते हैं ! जितनी बार प्रमाता की वृत्ति उतनी ही बार साक्षी - भाव की वृत्ति बनती है , यह इसके द्वारा बताया । सखा कहकर एकता तो बता दी । अर्जुन को साहस हुआ , कहने लगा - " फिर तुम्हारे में और मेरे में क्या फर्क है , फिर तो अपने एक जैसे ही है ? " भगवान् ने कहा " मेरी बात को गलत नहीं समझना । एक फर्क है , वह भी बता देता हूँ " जन्म कर्म च मे दिव्यं यो वेत्ति तत्त्वतः " फर्क इतना ही है कि मेरे जन्म और कर्म में दिव्य - भाव रहता है । " यह दिव्यता क्या है जो भगवान् में है और अर्जुन में नहीं है ? यह भी भगवान् बता दिया " अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् " कहते हैं मेरा अपना बंधन है , तेरा अपना बंधन है । मेरा बंधन है " अजोऽपि सन् " मैं जन्म ले नहीं सकता । जैसे जीव तो जन्म लिये बिना नहीं रह सकता , ऐसे मैं जन्म ले नहीं सकता । " भगवान् और जन्म दोनों बाते आपस में विरोधी मालूम पड़ती है । जो पहले नहीं  जन्म बीत गये , यह कैसे ? भगवान् ने यहाँ " बहूनि " शब्द का प्रयोग एक ही बार किया है । संस्कृतज्ञ शब्दों को बड़ा विचार कर रखते हैं । एक ही बार " बहूनि " इसलिये कहा कि जितने तेरे जन्म उतने ही मेरे जन्म बीते हैं ! जितनी बार प्रमाता की वृत्ति उतनी ही बार साक्षी - भाव की वृत्ति बनती है , यह इसके द्वारा बताया । सखा कहकर एकता तो बता दी । अर्जुन को साहस हुआ , कहने लगा - " फिर तुम्हारे में और मेरे में क्या फर्क है , फिर तो अपने एक जैसे ही है ? " भगवान् ने कहा " मेरी बात को गलत नहीं समझना । एक फर्क है , वह भी बता देता हूँ " जन्म कर्म च मे दिव्यं यो वेत्ति तत्त्वतः " फर्क इतना ही है कि मेरे जन्म और कर्म में दिव्य - भाव रहता है । " यह दिव्यता क्या है जो भगवान् में है और अर्जुन में नहीं है ? यह भी भगवान्  ने बता दिया " अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् " कहते हैं मेरा अपना बंधन है , तेरा अपना बंधन है । मेरा बंधन है " अजोऽपि सन् " मैं जन्म ले नहीं सकता । जैसे जीव तो जन्म लिये बिना नहीं रह सकता , ऐसे मैं जन्म ले नहीं सकता । " भगवान् और जन्म दोनों बाते आपस में विरोधी मालूम पड़ती है । जो पहले नहीं हो और फिर हो . उसे जन्म कहेंगे । जीव के लिये तो " जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवः जन्म मृतस्य " । जीव के लिये जन्म लेना आवश्यक है . उसका धर्म है। ईश्वर का बंधन है कि वह जन्म नहीं ले सकता । क्रमशः .....
नारायण ! बहुत से लोग ऐसा भी मानते हैं कि भगवान् खुद जन्म नहीं लेते . लेकिन उनका कोई टूकड़ा या कोई हिस्सा जन्म ले लेता होगा । इसलिये पुराणों के अन्दर अनेक जगह अंशावतार का विचार है । इसलिये शंका होती है कि शायद वही बात होगी कि स्वयं अज भी किसी एक हिस्से से जन्म ले लेता होगा । खुद निर्विकार रहते हुये भी शायद एक हिस्से से विकार का नाटक करता होगा , उसमें सचमुच विकार नहीं आता होगा । तब भगवान् ने कहा कि " मेरे हिस्से होते नहीं हैं अर्थात् एक हिस्से से निर्लेप बना रहूँ और दूसरे से नाटक कर लूँ , यह नहीं होता। " अव्ययात्मा " , मैं अव्यय हूँ , मेरे टूकड़े नहीं हो सकते । मैं जो करता हूँ , पूर्ण रूप से करता हूँ । नहीं तो मैं अपूर्ण हो जाऊँगा । जो एक हिस्से से एक काम करे और दूसरे हिस्से से दूसरा , उसका नाम पाखण्डी और मिथ्याचारी होता है । भगवान् कहा " मुझे इतना पाखण्डी नहीं समझ लेना। मैं जो करता हूँ , वह पूर्ण होकर करता हूँ । मेरे ज्ञान , इच्छा और क्रिया के अन्दर कोई भेद नहीं आता । मैं अव्यय हूँ । मेरे टूकरे नहीं हो सकते , मैं करूँगा , पूरा होकर ही करूँगा । मेरा एक तीसरा बंधन और है - " भूतानाम् ईश्वरोऽपि सन् " ; एक तो मेरे टूकड़े नहीं हो सकते; दूसरा , मैं जन्म नहीं ले सकता और तीसरा - जितने भी संसार के जड पदार्थ व प्राणी हैं , इनका कभी गुलाम नहीं हो सकता । हमेशा इसका अधिपति ही बना रहूँगा , ये मेरे ऊपर शासन कर लें , यह कभी नहीं हो सकता । " भगवान् अपनी तीन कमजोरियाँ अपने प्रिय सखा को बता दीं ।
अर्जुन ने कहा " आप तो टुकड़े वाले भी दीख रहे हैं , जन्म लिये हुए भी दीख रहे हैं , आपको जब बाण लगता है तब खून निकलते हुए भी देखता हूँ । " भगवान् ने कहा " मेरी अपनी एक शक्ति है । " वह शक्ति कैसी है ? " श्रीबिल्वमंङ्गल अपने  " कृष्णकर्णामृत " में कहते हैं कि एक बार भगवान् ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये " वराह " अवतार लिया । उस समय अपने नथुने के ऊपर सारी पृथ्वी को रख लिया । उस समय उनका शरीर इतना बड़ा था कि सात समुद्र मिलकर भी उनके शरीर के रोमकूपों को भर नहीं पा रहे थे , इतना विशाल शरीर था । बिल्वमङ्गल कहते हैं कि वह कोई दूसरा नहीं है । ठण्ड का मौसम है, पानी गरम नहीं है , यशोदा ने निर्णय किया कि आज कृष्ण नहलाना है । जब माता नहलाती है तो लोटे से नहीं नहलाती , अंजली भरकर पानी उनके शरीर पर डालती हैं । बाल्टी में से अंजलि से पानी भरकर निकाल रही है और कूष्ण भाग रहे हैं । बच्चे को ठण्ड लगती है तो भागता है । जिसके शरीर के रोमकूपों को सात समुद्र मिलकर नहीं भर पा रहे थे, वही आज एक अंजलि पानी से डरकर भाग रहा है ! क्या क्रीडा कर रहे हैं ? नहीं सचमुच भाग रहे हैं । कैसे भाग रहे हैं ? " प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि आत्ममायया । " अपनी आत्म शक्ति से , स्वतन्त्र इच्छा के द्वारा । यहाँ सांख्य प्रकृति नहीँ समझ लेंगे । भगवान् अपनी प्रकृति को ही आधार बनाकर सृष्टि करते हैं ।
प्रश्न होता है कि परमात्मा की प्रकृति क्या है जिसका सहारा लेकर परमात्मा सब करते हैं? भगवान् ने कहा कि संसार के सारे प्राणी अपनी - अपनी प्रकृति के अनुसार चलते हैं " प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति । " जिसकी प्रकृति क्षण - क्षण में बदलने की है , उसमें स्थिरता नहीं हो सकती । जिसकी प्रकृति पत्थर की तरह न बदलने की है , वह स्थिर ही रहता है । भगवान् की क्या प्रकृति है ? " ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् " यह परमात्मा की प्रकृति है , स्वभाव है जिसे वे नहीं छोड़ सकते । भगवान् ने कहा " जो भी मेरे पास आता है " , किस रूप से आता है ? जो बाकी सब चीज़ों का सहारा छोड़कर केवल मेरे ही पास चलकर आता है । इसीलिये भक्तिशास्त्रों में " प्रपत्ति " का मतलब ही यह है कि अन्य सारी शरणों को छोड़कर एकमात्र परमात्मा की शरण लेना । " मेरी प्रकृति है कि जो जिस प्रकार सारे भावों को , सारे संहारों को छोड़कर मेरे पास आता है " तांस्तथैव भजाम्यहं " मैं उनका भजन उसी भाव से करता हूँ । " शब्द बड़े विचित्र लगेंगे । भगवान् पहले ही कह दिया था कि शब्दों की गड़बड़ी नहीं समझना क्योंकि रहस्य की बात है । प्रायः भजन कौन करता है ? लोग समझते हैं कि जीव भजन करता है । लेकिन यहा भगवान् अपने प्रिय सखा से कह रहे हैं कि जीव बेचार क्या भजन करेगा ? जीव तो सोचता है कि मैं भजन करता हूँ , परमात्मा से प्रेम करता हूँ । क्या जीव में परमात्मा से प्रेम करने की शक्ति है ? लोग समझते है कि भुनघा उड़कर दीपक की तरफ जाता है । लेकिन कभी सोचा कि भूगगा दीपक की तरफ कब जायेगा ? जब दीपक आँख के द्वारा पहले उसके हृदय में अशतार ले लेगा , उसके हृदय में उतर जायेगा। दीपक तो व्यापक है , उसकी ज्योत्सना चारो तरफ फैली हुई है । लेकिन जब का वह व्यापक दीपक अपने आपको छोटा सा परिच्छिन्न न बना ले . तब तक वह इतने छॅटे भुनगे की आँख में कैसे उतरेगा ? कभी सोचा आपने कि वह व्यापक दीपक क्यों अपने को परिच्छन्न बनाता है ? दीपक चारों तरफ फैल सकता है। सुई से छोटा भुनगा , उससे भी छोटी उसकी आँख , उस आँख के अन्दर भी अत्यन्त छोटा छिद्र { तारा } फिर वह व्यापक और सर्वत्र प्रसृत दीपक अपने आपको इतना संकुचित इतना छोटा क्यों बना लेता है ? मानना पड़ेगा कि दीपक का प्रेम भुनके के प्रति अत्यधिक है । यदि उसके प्रेम में इतनी अत्यधिकता न होती तो क्या अपने को संकुचित करता ? वह चारों तरफ फैला हृ तो था ही , उसके फैलाव में कोई रुकावट नहीं थी । फिर दीपक उसकी आँख में क्यों घुसा ? अपने को इतना परिच्छिन्न क्यों बनाया ? उस भुनगे के प्रति उसका जो अत्यधिक प्रेम है , उसको वह भुनगा नहीं समझ सकता ।
प्रमाता का दुःख कितनी देर होता है ? जितनी देर वृत्ति रही । वृत्ति समाप्त होने के बाद उस दुःख की समाप्ति है । पर साक्षिभास्यता बनी रहती है । हमारे पेट का आपरेशन हुआ । पेट के कटने का दुःख हुआ । वह पेट के कटने का दुःख तो महिने भर में दूर हो गया , लेकिन आज भी उस दुःख की याद आती है तब शरीर सिहर जाता है । यह याद किसे आती है ? प्रमाता तो उस समय खत्म हो गया , प्रमेय दुःख भी नहीं है , साक्षिभास्यता है । जीव के साथ उसका इतना अधिक प्रेम है कि जीव तो एक क्षण के दुःख को भोगकर समाप्त कर लेता है , लेकिन उसके दुःख से वह , जिसे आप निर्लेप समझते हो , इतना दुःखी हो जाता है कि उसके लिये उस दुःख की छाप अनन्त काल के लिये रहेगी , कभी मिटने वाली नहीं है , क्योंकि यह उसकी प्रकृति है । उसकी प्रकृति नित्य है , स्थिर है , भी बदलने वाली नहीं है ।
लोग समझते हैं कि जीव परमात्मा का भजन करता है । भगवान् ने कहा - अरे ! जीव क्या प्रेम करेगा ! जिस प्रकार अत्यन्त व्यापक दीपक प्रेम के कारण आँख की छोटी से तारिका में घुसकर हृदय में उतर गया , उसी प्रेम का फल हुआ कि पतंगा उड़कर दीपक के तरफ जाता है । वस्तुतः पतंगा नहीं जा रहा है बल्कि हृदय में उतरा हुआ दीपक खुद ही उस शरीर को अपनी तरफ खींच रहा है । किसलिये ? बिजली के जलाने के पहले पहुँच जाना । लोग कहते हैं कि वहाँ पतंगा जाकर जल जाता है । दीपक क्या जलाने के लिये ले जाता है ? दीपक का स्वरूप ही जलना है । वह पतंग को जलाने के लिये नहीं ले जा रहा है , अपने से बिल्कुल एक करने के लिये ले जा रहा है ! जो उसका अपना स्वभाव जलना है , उसी भाव को वह उस पतंगे को देना चाहता है कि " जैसा मेरा स्वभाव है , वैसा ही तुम भी जलो । " कभी - कभी पतंगा सोचता होगा कि दीपक का अच्छा प्रेम है! क्योंकि दीपक को समझ नहीं पा रहा है कि यह इसका स्वभाव है । यह जिसको अपने साथ करेगा , अपने जैसा करेगा । सामान्य दृष्टि से पतंगा जलता है , विचार दृष्टि से जलता नहीँ बल्कि दीपक के साथ एक , अभिन्न हो जाता है । यह दीपक का भजन है। " भज् सेवायां " धातु से भजन का अर्थ सेवा है और भजन का अर्थ प्रेम भी होता है । दोनों समझ लेंगे ।
नारायण ! परमात्मा को पहले दीपक के दृष्टान्त से समझ लें । दीपक जिस आँख में प्रवेश करेगा , उसी आँख की शक्ल का बनकर प्रवेश करेगा । जैसी आँख के तारे की शक्ल होगी , वैसा ही बनकर दीपक को प्रवेश कराना पड़ेगा । इसलिये भगवान् ने अपने श्रीमुख से कहा कि " मैं पहले जीव के साथ एक हो जाता हूँ । " पहले परमेश्वर अपने अज ,  अव्यय , सारे प्राणियों के अधिश्वर , इन सारी भावनाओं को छोड़कर उस जीव के साथ एक हो जाता है । यह उसका पहला भजन हुआ । दूसरा भजन है कि वह फिर उसकी सेवा करता है , उसे धीरे - धीरे अपने रूप का बना लेता है । पहले ईश्वर ने जीव का रूप धारण किया , यह पहला " अवतरण " हुआ । दीपक उतरकर पतंग - भाव को प्राप्त हो गया, पतंगे के हृदय में उतर गया । यह पहला " अवतार " प्रेम का है । लेकिन यदि यहीं तक स्थिर रह जाये तो काम नहीं होता । पहले खुद पतंगरूप में बना और फिर उस पतंग को अपनी तरफ उड़ा कर अपना रूप प्रदान कर दिया । यही आदान - प्रदान है । भगवान् ने कहा कि यह उनकी प्रकृति है । उपाधियों के अनन्त भेद हैं । लेकिन जिसके अन्तःकरण में जो भाव है , परमात्मा उसमें उसी भाव की उपाधि वाला होकर प्रविष्ट करता है ।
भगवान् ने  कहा - अरे अर्जुन ! " मैं अपनी इस प्रकृति को नहीं छोड़ सकता । " इसी उपाधि को लेकर भगवान् ने " संभावामि " कहा । मतलब सीधा है " पैदा होता हूँ । " लेकिन " सम्भव " शब्द की ध्वनि है कि " मेरे लक्षण को देखकर निर्लेपता का भान होगा , लेकिन मुझे सर्वथा निर्लेप नहीं समझ लेना । मैं सखाभाव को प्राप्त हुआ सर्वथा उसके साथ एक हो जाता हूँ , उसके सुख - दुःख के साथ एक रहता हूँ । फिर दूसरा भजन होता है , धीरे- धीरे उसे अपने साथ अभिन्न करके वैसा ही बना लेता हूँ । यह प्रकृति है कि असंभव होकर सम्भव  ,  अज होकर जन्म वाला , आनन्दघन होकर दुख वाला ,   निर्लेप होकर क्षण- क्षण में लेप वाला , असंग होकर जीव के प्रत्येक भाव के साथ संग वाला लगूँ । " भगवान् ने कहा " इस बात की ज़्यादा खींचतान मत कर क्योंकि यह रहस्य की बात है । बस इतना समझ ले कि मुझ असंग , निर्लेप के अन्दर भी यह सम्भव हो जाता है । " अर्जुन ने पूछा " कुछ तो समझाओ कि कैसे सम्भव हो जाता है ? " भगवान् सोचा कि यह मज़ा किरकिरा करेगा । इसलिये जवाब दे दिया " आत्ममायया " ; " यह बात तेरी समझ में नहीं आने वाली है । यह काम मैं अपनी " आत्ममाया " से करता हूँ । " " स्वां प्रकृतिं " और " आत्ममायया " कहा है , कुछ विचित्र लगता है । " स्व " और " आत्मा " का एक जगह प्रयोग है । इसके द्वारा भगवान् कहना है कि " मैं जो कुछ भी करता हूँ , उसके लिये किसी और साधन की अपेक्षा नहीं रहती । यह मेरा स्वरूप है । " " जन्म कर्म च मे दिव्यम् " यही उसका दिव्य जन्म है । बिना अपने स्वरूप को भूले हुए पहला अवतार जीव के हृदय में हुआ जो प्रपन्न हुआ । उसके हृदय में उतर कर फिर वहाँ से उसे तार देना है अर्थात् अपने साथ एक कर लेना है । यही " आत्ममाया " और यही " स्व- प्रकृति " है भगवान् की।
भगवान् प्रपत्ति को बीच - बीच में परख लेते हैं । जीव की साधना की परीक्षा भगवान् नहीं करते , प्रपत्ति को जाँचना पड़ता है । शरत् पूर्णिमा की कथा आती है । भगवान् ने रात्रि में वंशीवादन किया। गोपियाँ पहुँचीं । भगवान् ने कहा - " क्यों आई हो ? " गोपियों ने कहा " प्रेम से आई हैं । " भगवान् ने कहा - " ठीक है , दर्शन हो गये । रात का समय है , अब घर चली जाओ । " भगवान् ने यह भी नहीं कहा कि " रुकना चाहो तो रुको या जाओ तो अच्छा है । " सीधा ही कहा कि " रात का समय हो गया , यहाँ रहना ठीक नहीं है । " गोपियाँ नहीं मानीं , कहा - " आई है तो नहीं जायेंगी । " भगवान् ने तरह - तरह से समझाया कि जाना ही ठीक है । अन्त में जब किसी तरह नहीं मानीं तब भगवान् ने एक भयंकर कोडा उठाया जिसे सहन करने की ताकत नहीं होती है । भगवान् ने कहा - " मुझसे प्रेम करती हो तो मेरी स्वाभाविक प्रकृति पहले समझ लो । " गोपियों ने कहा - " समझी हुई हैं , अब क्या समझेंगी ! " भगवान् ने कहा - " नहीं , अभी नहीं समझीं । " प्रेम करने वाले तीन तरह के लोग होते हैं - एक वे कि जो उनसे प्रेम करे वे उससे प्रेम करते हैं । दूसरे कुछ लोग ऐसे होते हैं कि कोई उनसे प्रेम करे , न करे , वे प्रेम किये जायेंगे । तीसरे वे होते हैं कि तुम चाहे जितना प्रेम किये जाओ , उन्हें प्रेम करना ही नहीं ! भगवान् कहते हैं कि " यह समझ लेना कि मैं तीसरी तरह का हूँ , मैं तो साक्षी हूँ । तुम चाहे कितना प्रेम किये जाओ , मुझे शास्त्र कहता है " असंगो ह्ययं पुरुषः " असंग , निर्लेप हूँ। मैं प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करता तो न प्रेम करने वाले से करूँगा ही क्या ! " जब यह बात कही तो गोपियों ने कहा " ज़रा इधर देखो तो सही कि आप किसको चक्कर में डाल रहे हो ? आकाश की तरफ देखकर क्यों घूर रहे हो ? अपना दिव्य भाव प्रकट करना चाहते हो तो ज़रा हमारी तरफ देखकर बोलो । " श्रीमद्भागवत में बताया है कि क्यों भगवान् यह बात कहते हैं और गोपियाँ क्यों ऐसा कहती हैं ? गोपियाँ कहती हैं " आपके स्वभाव का हमें पता है कि जो जिस समय आपके सामने आता है , आप तदाकार हो जाते हैं । जब आप आकाश की तरफ देखोगे तो निर्लेप ही लगोगे । इसलिये आकाश की तरफ न देखकर हमारी तरफ देखोगे तो हमारे असली रूप को पहचानोगे । तब आपकी आँख में हमारा प्रतिबिम्ब पड़ेगा । आकाश की तरफ देखने से उसी का प्रतिबिम्ब पड़ता है , इसलिये निर्लेपता की बात कहते हो । अब हमारी तरफ देखकर बात करो । "भगवान् समझ गये कि " अब अपनी दाल गलने वाली नहीं है , ये मेरे स्वभाव को समझ गई हैं । " फिर रास मण्ठल की रचना की ।
यही परमात्मा के अवतार का स्वरूप है । वही परमात्मा पहले जीवों की भक्ति को रोकता है । जब जीव सारे सहारों को छोड़कर उनका सहारा लेते हैं तब वे स्वयं उससे प्रेम करते हैं , उसका भजन करते हैं और उसकी सेवा करते हैं । सेवन करके उसे अपने से अभिन्न बना देते हैं । यही असंग रहते हुए संग वाला बन जाना है । झूठमुठ नहीं , सचमुच बन जाना है । साक्षिभाव , प्रमाता के ज्ञान से ज़्यादा सत्य है , यह हमेशा याद रखना है । वेदान्त की भाषा में प्रमाता के ज्ञान का बाध हो जाता है , साक्षी के ज्ञान का बाध नहीं होता । प्रमाता की अपेक्षा साक्षी का ज्ञान नित्य है । इसी प्रकार लगता है कि जीव संगभाव को प्राप्त होता है लेकिन साक्षी तो ईश्वर है । जीव बेचारा तो आसक्ति भी नहीं कर सकता । लोग कहते हैं कि " बड़ी आसक्ति है " तो हमें हँसी आती है । भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर कहते हैं - " कति नाम सुता न लालिता " ! तुमने पूर्व जन्मों में अपने न जाने कितने बच्चों के साथ , पति पत्नी के साथ आसक्ति की थी , कोई नज़र आ रहा है ? अनादि काल से न जाने कितनों का पालन करते आये हो , अनारक्त हो । सच्ची आसक्ति तो परमात्मा की है कि अनादि काल से हमको ही देखता है । अनादि काल से जीव की तरफ दृष्टि स्थिर है , " अनश्नन् अन्योऽभिचाकाशीति । " जीव तो बेचारा अनासक्त है । ईश्वर बिना कुछ खाये हुए युगों से एकाग्र दृष्टि से तुम्हारी तरफ देखता हुआ बैठा है , क्योंकि एक बार तुम्हारी नज़र उसकी तरफ जाये तो तुम्हारी नज़र में प्रविष्ट होकर तुम्हारे में बैठ जायेगा । बाकी वह सब बाद में कर लेगा । इसलिये आसक्ति ईश्वर की है, जीव की नहीं । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि मुझे शास्त्र असंग कहते है, लेकिन सच यह है कि मैं बड़ा आसक्त हूँ । यही परमात्मा के अवतार का रहस्य है ।
नारायण । वह अवतार जैसे जीव के हृदय में जाता है , वैसे ही समाज के हृदय में उतरता है । जब समाज उसको भूलने लगता है , जब सारा समाज ही अनीश्वरवादी हो जाता है , उसकी तरफ से दृष्टि हटाने लगता है , तब उसी को दूर करने को राम , कृष्ण आदि विग्रह का अवतार बताया । केवल एक हृदय में नहीं , बल्कि उस समग्र समाज में अनीश्वरवाद था , उस सारे समाज को ईश्वर की तरफ ले जाने के लिये उन्होंने क्या किया? पूतना के द्वारा उड़वाये गये । जैसे समाज के दूःख से दुःखी होते हैं , ऐसे ही परमात्मा समाज के अन्दर समाज के नेत्र के द्वारा प्रवेश करेंगे । वहाँ मी किसे नेत्र बनाना है ? जैसे आपके शरीर में छोटी - सी आँख और उसमें छोटा सा तारा है , ऐसे ही सारे भारत के समाज के अन्दर छोटा - सा चन्द्रकुल और उसमें छोटे से वसुदेव और देवकी के द्वारा समाज में प्रवेश किया । समाज के दुःख से वैसे ही दुःखी हैं । पूतना उड़ा ले जाती है । बचपन से दूःखों को इसलिये सहन करते है कि समाज के दुःखी से दुःखी होना है । तब से लेकर कंसवन पर्यन्त समाज के अन्दर हैं । चूँकी किसी प्रकार के रिश्ते नहीं हैं , इसलिये भगवान मी अपने मामा को मार देते हैं । समाज के  अन्दर जिस प्रकार दुःख लोग भोगते हैं , ऐसे ही भगवान् भी मथुरा छोड़कर भागते हैं । व्यक्ति के दुःख से भी जैसे दुःख है , उसी प्रकार समाज के दुःख से भी दुःख होता है । शरणार्थी बनकर गये , द्वारिका बसाई , नरकासुर को मारने के लिये गये । यहाँ तँ कि अपने लिये पैदा हुई रुक्मिणी को भी आसानी से घर नहीं ला पाये । बड़ा युद्ध किया तब घर ला पाये । यह सब समाज के दुःख से दुःखी होना है । अपनी प्रिय गोपियों से दृर रहे , क्योंकि समाज के अन्दर जो विकार आया है , वह अपने सिर पर ओढ़ते हैं । महाभारत का सारा युद्न भी अपने ऊपर ओढ़ा , गांधारी ने भी उन्हीं को शाप दिया । इस युद्ध के अन्दर बड़े नियम टूटने थे , टूटे । युद्ध को जभ अपने ऊपर ओढ़ा तब सबसे पहले खुद नियम तोड़ा । प्रतिज्ञा की थी कि चक्र नहीं उठायेंगे , वह भी उठा लिया । यह सब किसने किया ? जो असंग है , निर्लेप है, आसक्तिरहित है । अन्तोगत्वा देखा कि सबसे ज्यादा कुटुम्भ लोगों के बंधन का कारण होता है , इसलिये कुटुम्ब - नाश को अपने ऊपर ओढ़ा । स्वयं सारे यादवकुल को नष्ट हो जाने दिया और नष्ट कर दिया । व्यक्ति के जीवन में आकर उसका अवतरण और समाज के जीवन में अवतरित होकर समाज  का अवतरण और समाज के जीवन में अवतरित होकर का अवतरण किया । इसलिये हम विशेष दिनों में उनके अवतारों की उपासना करते हैं ।
श्रीनारायण हरिः ।

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