Tuesday, November 20, 2012

" अभेद - ज्ञान से सर्वपाशोँ से मुक्ति " -



" अभेद - ज्ञान से सर्वपाशोँ से मुक्ति " -
नारायण । " श्वेताश्वतरश्रुति " कहती है -
" संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः ।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा -
ज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।। "
( श्वेताश्वतर श्रुति 1 / 5 )
अर्थात् यह जो विश्व क्षर - अक्षररूप और व्यक्त - अव्यक्त रूप है और जिसमेँ ये मिले हुए रहते हैँ - इसका पालन - पोषण ईश्वर करता है । इसका भोक्ता जो जीवात्मा है वह अनीश है तथा अपने को भोक्ता समझने के कारण बँधा हुआ है । परन्तु देव को जानकर यह जीव समस्त पाशोँ से मुक्त हो जाता है । *
तो आईये " नारायण " इस गहन विषय पर विस्तार पूर्वक चर्चा  - सतसंग करेँ । श्वेताश्वतर श्रुति के उपरोक्त मन्त्र को देखे कि कहते है कि परमात्मा का ज्ञान होने से सारे बन्धन छूट जाते हैँ और जबतक परमात्मा का ज्ञान नहीँ होता है यह जीव अपने को बद्ध अनुभव करता रहता है । मन्त्र के अन्तिम भाग मेँ देखे " ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः "- परमात्मा का ज्ञान हुआ और जिसको ज्ञान हुआ वह सर्व पापोँ से मुक्त हो गया । बद्ध कैसे है ? " भोक्तृभावात् " अर्थात् भोक्तापन के भाव से यह बद्ध है और जबतक  यह बद्ध है तबतक इस बद्ध जीव का और जिससे यह बँधा हुआ है उसका दोनोँ का संचालन ईश्वर करता है । इसी का नाम व्यवहार हुआ -  यह बात मन्त्र मेँ कही गयी है ।
इस मन्त्र का सारांश यह है कि परमात्मा के ज्ञान से मोक्ष होता है और परमात्मा के अज्ञान से जीव अपने को भोक्ता मानकर बँधा हुआ रहता है , और इसीसे जिसके साथ वह बँधा हुआ है उस बँधनेवाले को और जिससे बँधा हुआ है उसका - दोनोँ का संचालन, दोनोँ का नियन्त्रण ईश्वर करता है । मन्त्रका सीधा - सादा भाव पर गौर से विचार करेँगे तो यह निकल आयेगा । " ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः " - देव अर्थात् गायत्री मेँ जिसको देव कहा गया है वह " तत् सवितुः वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । " यह परमात्मा देव कैसा है ? कि दोनोँ जगह बैठा हुआ है । एक तो वह " सविता " है , सारी सृष्टि उनने बनाई है - सृष्टि का कर्त्ता हुआ न वह - " भू र्भुवः स्वः , और " धीयो यो नः प्रचोदयात् " - हमारी बुद्धि का प्रेरक भी वही है अर्थात् हमारे शरीर मेँ आत्मा भी वही है । ऐसा जो देव है - देव अर्थात् स्वयंप्रकाश परमात्मा । स्वयंप्रकाश, सर्वावभासक परमात्मा का नाम देव है । उसको जब जान लेँगे , तब " सर्वपाशैः मुच्यते " - सर्व फन्दो से छूट जायेँगे ।
ये फन्दे हैँ ब्राह्मणपना का , क्षत्रियपना का , वैश्यपना का , शुद्रपना का । लेकिन ये फन्दे भी अपने कर्त्तव्य और भोक्तव्य को जब छोटा बना लेते हैँ , कम कर लेते है तब ये मुक्ति के हेतु होते हैँ । क्या दुनिया भर का भोग हम ही भोगेँ और सब काम हम ही करेँ? नहीँ , ब्राह्मणोचित कर्म करे ओर ब्राह्मणोचित भोग भोगेँ । भोग और कर्म को संकुचित करने के लिए जब एक धेरे मेँ बाँध दिया , तब समझेँ कि अब मुक्ति की ओर चल पड़े । यह ब्राह्मणत्व का जो बन्धन है वह मुक्ति का प्रथम सोपान है । ब्राह्मणत्व का बन्धन , क्षत्रियत्व का बन्धन , वैश्यत्व का बन्धन , शुद्रत्व का बन्धन - ये अपने को मुक्त करने के साधन हैँ । थोड़े भोग अपने लिए चाहिए और थोड़े कर्म अपने को करने हैँ- इस घेरे मेँ बन्धने के लिए चार्तुवर्ण निवृत्ति का प्रथम सोपान है , और जो केवल मानव ही रह गया , अब उसके लिए खान - पानमेँ और काम - धंधे मेँ कोई संकोच न होगा और कोई संकोच नहीँ होने से वह सब दृष्टि से विकृत होगा । इसीलिए घेरा होता है कि निकले आगे । अब ब्रह्मचारी होकर रह रहे है कि अब वानप्रस्श होकर रह रहे हैँ , कि अब सन्यासी होकर रह रहे हैँ - अपना घेरा और छोटा - और छोटा - और छोटा हो गया।
पाश क्या है ? " मुच्यते सर्वपाशैः " - यह सब  फन्दे जो हैँ संसार के कि यह स्त्री है , यह पुत्र है - कोई रस्सी नहीँ लगी रहती है और पाश कितना प्रवल होता है । दोनोँ को बाँधने वाला , दोनोँ को फँसाने वाला वह फन्दा कितना प्रवल है ! बाप और बेटे मेँ कोई रस्सी लगी रहती क्या कि बाप को रस्सी से बाँध कर बेया घसीटे ले जा रहा है कि बापकी रस्सी बेटे के साथ जुड़ी रहती है ? कि नहीँ , यह एक मन का ही फन्दा है , इसी को बोलते हैँ - " पाश । " पाश अर्थात् फन्दा । पशुओँ को फँसाने के लिए , हाथी को फँसाने के लिए , संसार मेँ जो जंगली जानवर होते है उनको फँसाने के लिए - ये शिकारी लोग अपने कन्धे पर रस्सी का एक फन्दा रखते हैँ और उसको ऐसा फेँकते है कि बस ! जब कोई बैल बिगड़ जाता है तो उसको पकड़ने के लिए पाश होता है , युद्ध के भूमि मेँ भी पहले पाश का प्रयोग किया जाता था । दूसरे को उसमेँ फँसा लेते थे । पाँव मेँ फन्दा , गले मेँ फन्दा , यह पाशास्त्र है । इससे मनुष्य फँस जाता है ।
कहाँ फन्दा है जिससे मनुष्य बँध जाता है ? परमात्मा को न जानने के कारण अपने को मान लिया छोटा - मोटा और छोटा - मोटा होता है वह तो फँन्दे मेँ फँसता ही है । हिमालय पहाड़ को कोई फन्दे मेँ थोड़े ही फँसाता है । पर जो एक पथ्थर का टुकड़ा है वह तो फँस जायेगा । समुद्र मेँ कोई बाँध थोड़े ही लगाते हैँ , वह तो कोई छोटी - मोटी नदी हो तो बाँध लगाते हैँ । तो परमात्मा को जाने तो पाश से मुक्त हो जायेँगे ।
" घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमो ।
कुलं शीलं च वित्तं च अष्टोपाशाः प्रकीर्तिताः ।।
ये आठ पाश है । जबतक परमात्मा का ज्ञान नहीँ है तब तक ये मनुष्य को बाँध कर रखते है । किसी से घृणा होगी कि यह बड़ा गन्दा है , किसी पर शंका होगी कि बाबा , यह हमारा नुकसान न कर दे , किसी से भय होगा कि तो हमको मारने वाला है , किसी से लज्जा आयेगी , किसी के प्रति निन्दा का भाव आयेगा , यह कुल है , यह शील है , यह धन - सम्पदा है - ये आठ पाश हैँ । इन फन्दोँ मेँ फँसा हुआ जीव होता है और जो ज्ञानी होता है वह इन फन्दोँ से मुक्त " सदाशिव " है - " पाश मुक्तः सदाशिवः । "
प्रश्न यह है कि जाना कि परमात्मा मुक्त है , तो खुद मुक्त कैसे हो गया ?
श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक है उसका मैँ रोज बचपन मेँ पाठ करता था -
" न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।। "
भगवान् कर्म से नहीँ बँधते हैँ - यह जाना ओर स्वयं कर्म से छूट गया - इस श्लोक का अर्थ यही है। परमात्मा के बारे मेँ आप यह जानो कि परमात्मा कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन नहीँ है और आप कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से छूट जायेगेँ । अब यह बताये कि परमात्मा यदि कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है तो इस बात को जानने वाला कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से क्योँ मुक्त हो जायेगा ? हम जान लेँ कि यह करोड़पति है तो क्या हम भी करोड़पति हो जायेँगे ? हम जान लेँ कि यह खेत की चहारदिवारी के बाहर है तो क्या हम खेत की चहारदिवारी के बाहर हो जायेँगे ? कि नहीँ हो सतते । परमात्मा के बारे मेँ यह जानना कि वह कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है और स्वयं का कर्म - बन्धन और भोक - बन्धन से मुक्त हो जाना यह कैसे सम्भव है ?
" न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा " - " न कर्मफले स्पृहा " अर्थात् भगवान् भोग - बन्धन से मुक्त हैँ और " न माम् कर्माणि लिम्पनि " अर्थात् भगवान् कर्म - बन्धन से मुक्त हैँ - लेप नहीँ है और स्पृहा नहीँ है - अर्थात् भोग और कर्म दोनोँ से मुक्त है परमात्मा । तो, " इति माम् योऽभिजानाति " - जो मुझे इस रूप मेँ जानता है - " कर्मभिर्न न स बध्यते "  - अर्थात् वह कर्मो के द्वारा बद्ध नहीँ होता । जानोगे भगवान् को और छुटोगे आप ? यह तभी हो सकता है जब आत्मा और परमात्मा दोनोँ एक होवे । यदि परमात्मा कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है तो आत्मा भी कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है ।
" देवं ज्ञात्वा ज्ञानी सर्वपाशैः मुच्यते " - आश्चर्य ! आश्चर्य !! दुसरे को मुक्त जाना और स्वयं मुक्त हो गये । यह कैसे हो सकता है ? कि जब दोनोँ एक होँ , तभी हो सकता है। देखेँ " मेरे मित्र " , परमात्मा सारी सृष्टि मेँ रहता हुआ भी किसी के मरने से मरता नहीँ, किसी के जन्मने से जन्मता नहीँ , किसी के दुःखी होने दुःखी नहीँ होता , किसी के सुखी होने से सुखी नहीँ होता । सबमेँ रहकर सबसे न्यारा " सदाशिव - परमात्मा " । सचमुच आप भी सबमेँ रहकर सबसे न्यारे हो । वही तो हो ना आप भी मेरे मित्र ।
" ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः " - यह झूठा फंदा है , यह बाप - बेटे का फन्दा , पति - पत्नि का फन्दा , भाई - भाई का फन्दा , ये सब झूठे हैँ और परमात्मा जैसे सबमेँ रहकर सब से न्यारा है , वैसे ही आप भी सबमेँ रहकर सबसे न्यारे हो , परमात्मा के बारे मेँ आप जानोगे और स्वयं मुक्त हो जाओगे । नारायण , देखे इसमेँ श्रुतिभगवती ने एकता की बात बतायी ।
तो बँधे क्योँ ? कि " अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावात् " - उसी परमात्मा को न जानने के कारण यह " आत्मदेव - महाराज " अनीश हो गये । ईश्वर से जुदा हो गये - " अनीशात्मा " । और भोक्तृभावात् , यह हुआ कि जरा खायेँ - पीयेँ तो मोटे हो रहेँगे , और नहीँ खाय - तो दुबले हो जायेँगे । ऐसा तो देह को लेकर ही हुआ न ! यह वृत्ति कैसी है ? कि जैसे एक स्त्री होवे और वह यह समझती हो कि हम स्नो - पावडर - लिपिस्टीक , सब अपने शरीर पर लगावेँगे तब तो सुन्दर रहेँगे , नहीँ तो कुरूप हो जायेँगे , जैसे सहज सौन्दर्य का तिरस्कार करके वह बनावटी सौन्दर्य को अपनी सुन्दरता का आधार मानती है वैसे ही " आत्मदेव " परमात्मास्वरूप से तो सहज सुन्दर है , लेकिन यह समझते हैँ कि हम यह करेँगेँ तो सुन्दर होँगे , यह भोगेँगे तो आनन्दी होँगे , यह जानेँगे तो ज्ञानी होँगे , यह भोगेँगे तो अमर हो जायेँगे ! स्वर्ग मेँ जबतक जाकर अमृत नहीँ पीयेँगे तबतक अमर कैसे होँगे ? और जबतक हमको समाधि का विज्ञान नहीँ मालूम हुआ तबतक ज्ञानी कैसे होँगे? और जबतक हमारे पास भोग की बहुत - सामग्री इकट्ठी नहीँ हुई तबतक हम सुखी कैसे होँगे ? स्वयं सुखस्वरूप सुख के लिए दूसरोँ की मुँह देखता है ! स्वयं ज्ञानरूप और ज्ञान के लिए दूसरे की ओर ताकता है । स्वयं अमृतरूप अविनाशी आत्मा और जिन्दा रहने के लिए पदार्थोँ की ओर ताकता है । क्यो ? इसका कारण है कि यह अपने को सत्स्वरूप , ज्ञानस्वरूप , आनन्दस्वरूप नहीँ जानता है। यही है " अनीशश्चात्मा " । " देवं अज्ञात्वा " - उस आत्मा को न जानकर और अपने को दीन मानकर यह हीन हो गया है । बँधता कैसे है ? " भोक्तृभवात् बध्यते । " 
" भोक्तृभावात् " - मैँ भोक्ता हूँ । हम भोक्ता है तो भोग की सामग्री चाहिए । जिस दिन कोई चन्दन लगाने वाला न आवे तो उस दिन सूना दिन मालूम पड़े ; जिस दिन कोई तार - वार पहनाकर ( माला के साथ रहता है ) नाक - कान काटने का प्रयास न करे उस दिन मालूम पड़ेगा आज कोई आया ही नहीँ । यह फूल है , यह माला है , यह चन्दन है , यह खाना है , यह पीना है । इसीका नाम तो भोग है । जब भोक्ता बनकर बैठे तब तो फँसे ही न मेरे भाईया ? वंशी मेँ मछली क्योँ फँसती है ? कि भोग के कारण- उसके मन मेँ जो वंशी के काँटे मेँ लगा हुआ मांस है , उसको खाने के भाव से आया और वह फँस गयी और मारी गई बेचारी । चिड़िया पाश मेँ कैसे फँसी ? ये शिकारी लोग क्या करते है कि कोई छः - आठ पाव का लकड़ी का बना हुआ पाश होता है , उसी मेँ गोँद लपेट देते है और कोई उसके बीच मेँ कोई दानेदार खाने की चीज सब रख देते हैँ। जब चिड़िया दाना खाने जाती है तब उसके पाँव मेँ गोँद चिपक जाता है और वह बेचारी उड़ नहीँ पाती , फँस जाती है । पाश अर्थात् जाल । जाल मेँ मछली कैसे फँसी ? चिड़िया कैसे फँसी ? कि " भोक्तृभावात् " । चारा चुनने के लिये भीतर घुसी और फँस गयी महाराज । ऐसे ही जब आप चाहोगे कि आँख रहेगी तो बढ़िया - बढ़िया देखेँगे और जीभ रहेगी तो बढ़िया - बढ़िया स्वाद चखेँगे , तब आत्मज्ञान कहाँ से होगा मेरे दादा ,  जब भोग मेँ फँसे रहोगे ? भोक्तापन के भाव से यह आत्मा फँस गया और अब असमर्थ हो गया । अब बन्दर के समान हो गया । यह कैसे ? जैसे बन्दर को पकड़ने वाले एक छोटे मुँह के बर्तन मेँ चने - चबेने भरकर बर्तन को धरती मेँ गाड़ देते हैं । अब बन्दर गया और उसने उस बर्तन मेँ हाथ ड़ाला चना - चबेना निकालने के लिए । जब खाली हाथ होता है तब तो हाथ घुस गया और अब जब चना हाथ मेँ आ गया और मट्ठी बँध गयी महाराज तब हाँथ नहीँ निकलता है । चना वह छोड़ता नहीँ और हाथ उसका निकलता नहीँ । इसी बीज मदारी आकर बन्दर को पकड़ लेता है । इसी प्रकार इस आत्मा ने परमात्मा को भुलाकर भोग जिस हाँड़ीमेँ रखा हुआ है उसमेँ हाथ डाल लिया और अब छोड़ता नहीँ है । अरे छोड़ दे , छोड़ दे । नहीँ छोड़ता । तो क्या हुआ कि जिसकी हाँड़िया , उसके हाथ आप लग गये , अब वह आपको अपने काबू मेँ रखेगा ।
" संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः "
अर्थात् यह क्षर और अक्षर , कार्य और कारण ये दोनोँ एकमेँ मिले है और ये ही व्यक्त और अव्यक्त हैँ ; इनका भरण पोषण ईश्वर - सदाशिव करता है । और यह असमर्थ जीवात्मा भी जब किसी भोग की लालच मेँ पड़कर उसमे फँस जाता है और फिर जब भोग का भाव छोड़कर परमात्मा - सदाशिव को जानता है , तब वह जानता है कि हम बिना भोग के भी रह सकते हैँ , बिना भोग के हमारी सत्ता है ।
श्री नारायण हरिः ।   

“ वाणी का महत्त्व “ : -



वाणी का महत्त्व : -
संसार के सभी अनात्म पदार्थ तीन भागों में बँटे हैं - नाम , रूप और क्रिया । संसार में हर चीज़ का नाम अवश्य है , उसका रूप है , उसमें क्रिया है । एक अविनाशी परमशिव परमेश्वर को छोड़कर बाकी सब इन तीनों से ग्रस्त हैं । क्रिया से विक्रया , परिवर्तन , तब्दीली भी समझेंगे , हर वस्तु में या परिस्पंदरूप या परिवर्तनरूप क्रिया " नारायण " , अवश्य है । जन्म - नाश परिवर्तन तो हैं ही , स्थितिकाल मेँ भी हर चीज़ में बदलाव आता ही रहता है । " रूप " केवल आँखों से दीखने वाला आकार नहीं वरन् जिसके सहारे पदार्थ का " निरूपण " होता है , उसके बारे में कहा - समझा जाता है, उसे पदार्थ का " रूप " कहते हैं । शब्द में भी यह " रूप " है क्योंकि शब्द भी उदात्त , कर्कश आदि तरहों से निरूपित होता है । स्वाद , स्पर्श आदि सब इस " रूप " में इकट्ठे हो जाते हैं । जगत् के सब पदार्थों के निरूपण हो सकने से वे रूपवान् हैं । और रूप को व्यक्त किया जाता है नाम से तथा नाम अर्थात् शब्द को उत्पन्न करने वाली है वाक् अर्थात् कर्मेन्दिय , क्रिया , क्रिया से शब्द उत्पन्न होता है । दो चीजों की आपस में टक्कर होने से ही शब्द पैदा  होता है , वह चाहे वायु की ही टक्कर हो । यद्यपि अनाहत ध्वनि की भी चर्चा आती है तथापि विशिष्ट आघातों के न होने को ही वहाँ अनाहत कह देते हैं , सर्वथा क्रिया के बिना शब्द उससे नहीँ सिद्ध होता । क्रियोत्पादक वाक् अर्थात् वाणी को नाम से बढ़कर बताया । घड़े में वायु भरी रहती है , पानी डालें तो वह वायु निकल जाती है । ऐसे ही मन में , दिमाग में संसार के नाम भरे हुए हैं , वाक् के प्रयोग से उसमें परमेश्वर के नाम भरेंगे तो संसार के नाम निकल जायेंगे। बिना दृसरी चीज़ भरे तो पहली चीज़ निकलेगी नहीं । अतः वाणी की महत्ता स्पष्ट है ।
अकबर - बीरबल का एक किस्सा लोक प्रसिद्ध है : अकबर की बेगम साहिबा ने बादशाह से कहा " बीरबल को फालतू बढ़ावा दिया हुआ है , उसे हटाकर मेरे भाई को मंत्री बनाओ । " अकबर अपने साले के लिये सीधे कैसे मना करता ! अतः बोला " परीक्षा लूँगा , अगर वह बीरबल से बेहतर निकला तो उसे ही रख लूँगा । " दरबार ने बादशाह ने खड़िया से एक लकीर खींच कर कहा " इस लकीर को न काटना है , न मिटाना है , फिर भी छोटा कर देना है । " पहले बेगम साहिबा के भाई को मौका दिया । बहुत सोच - विचार कर बेचारे ने कहा " यह तो असम्भव  है ।   फिर बीरबल की बारी आयी। उसने वही खड़िया लेकर उसी रेखा के पास एक उससे भी लम्बीलकीर खींच दी । कहने लगा जहाँपनाह ! आपकी लकीर छोटी हो गयी । बेगम साहिबा भी समझ गयी किउसके भाई की बुद्धि  कितनी थी । जब समानजातीय दूसरी चीज आयी तभी बड़ी - छोटी का ज्ञान हुआ । विचार करें : यहाँ परमेश्वर ही बादशाह है । सब शास्त्रों को समझने वाली बुद्धि बीरबल है, तीक्ष्ण बुद्धि ही समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्रकट कर सकती है । परन्तु यह माया को पसन्द नहीं ! माया ही बेगम है और उसका भाई है मन । मन कहता है " बुद्धि में क्या विशेषता है कि उसे प्रश्रय दिया जाये ? मौका मुझे मिलना चाहिये । " माया ही स्वार्थ - लोभ से बुद्धि की प्रधानता में रुकावट डालती है , आत्मा को ठीक मार्ग पर चलने नहीं देती । परमेश्वर ने परीक्षा के लिये ही नाम - रूप - कर्म की लकीर खींच दी है । इस संसाररूप लकीर को मन छोटा करने की कोशिश करता है । क्योंकि संसार तो परमेश्वर का बनाया है इसलिये इस पर मन का यह बस तो चल नही पाता कि इसे काट दे या मिटा दे दा अन्य कोई उपाय इसे सूझता नहीं जिससे वह छोटा हो । जब मन हार मान लेता है तब बुद्धि उपाय करती है - वह " भूमा " की लकीर खींच देती है ! जब परमात्मा का व्यापक स्वरूप प्रकट हो तभी संसार छोटा होगा । सांसारिक दुःख तब तक न मिट सकते हैं न कम हो सकते है जब तक अनन्त परमात्मा का साक्षात्कार न हो । बिना अधिष्ठान का ग्रहण किये अध्यस्त की तुच्छता नहीं लाई जा सकती । अतः वाक् - रूप क्रिया का महत्त्व है क्योंकि वाक् से शास्त्रों को हृदयङ्गम करने पर ही संसार की अल्पता समझ में आयेगी । वाक् को परमेश्वर के ही नाम से संलग्न करने पर वह शोकसागर से पार ले जायेगी । यद्यपि कारण होने से वाक् अपने कार्यरूप नाम से श्रेष्ठ है क्योंकि कारण ही कार्य की अपेक्षा प्रधान गिना जाता है जैसे गहनों से सोना या पुत्र से पिता , तथापि वाक् की श्रेष्ठता इस पर भी निर्भर करती है कि उसका उपयोग क्या किया ; नामात्मक ब्रह्म की उपासना करे अर्थात् परमात्मा के नामों का ही जप आदि करे तभी वाक् अपनी श्रेष्ठता साबित कर पायेगी । परमेश्वर का नाम तो गुरु से मिल जायेगा पर वाक् से उसका प्रयोग साधक को ही करना पड़ेगा । बीज मिलना महत्त्वपूर्ण है पर उसे बोना और भी जरूरी है ! अकाल के समय सरकार ने बीज बाँटे । जिन्होंने तात्कालिक भूख को ही महत्त्व दिया उन्होंने बीज खा लिये । एक - दो दिनों की भूख तो मिटी पर भूखमरी वैसी - की - वैसी रही । जिन्होंने खाने से बोना बेहतर समझा उनका भूख का कष्ट कुछ समय तो रहा पर फसल हो जाने पर आगे के लिये खुशहाली हो गयी । बीज को खाने से उसे बोना श्रेष्ठ है क्योंकि तब आगे अधिक उपलब्ध होता है । इसी तरह गुरु से नाम ग्रहण करें लेकिन उतने से कार्य नहीं होगा , वाक् द्वारा उसका प्रयोग करना पड़ेगा , जप , पाठ , अनुष्ठान करना पड़ेगा तभी नाममात्र की अपेक्षा वाक् बड़ा फल देगी ।
श्री नारायण हरिः !

" अपने में पूर्णत्व का अनुभव करो । "


Friday, September 14, 2012

“ भगवान् के प्रिये – सखा ‘ : -




                                                   भगवान्  के प्रिये सखा : -

भगवान् ने अर्जुन से कहा - अरे अर्जुन । जिस तत्त्व का उपदेश मैंने तुमको किया उस तत्त्व का उपदेश किसी काल में मैंने सूर्य को किया था । अर्जुन ने कहा - " मैं कैसे मान लूँ कि सूर्य को आपने उपदेश किया था ? " उस समय अपने सखा अर्जुन को जबाब देते हुये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने एक बड़ी विचित्र बात कही है । कहते हैं - अर्जुन ! तू मेरा भक्त है , मैं तुझे एक गुप्त बात बताता हूँ कि मैंने सूर्य को कैसे उपदेश दियाथा । अर्जुन ने कहा " आपके बहुत से भक्त है , जैसे देवर्षि नारद इत्यादि , उनको बता देते । मुझे ही बताते हो , इसमें क्या हेतू है ? भगवान् अर्जुन को एक दूसरा विशेषण देते सम्बोधित किया " मे सखा चेति " तू मेरा भक्त है , ऐसा नहीं , तू मेरा अभिन्न मित्र है । सखा शब्द का मतलब मित्र होता है । बड़ा विलक्षण शब्द है यह सखा । " " नाम आकाश का है , आकाश के साथ जो हो वह सखा है । आकाश अर्थात् जहाँ कुछ नहीं हो , वह सखा है । आकाश अर्थात् जहाँ कुछ नही { शून्य } है । सखा वह है जिसके साथ एक होने पर सारा संसार शून्य हो जाये । सखा यदि अपने पास हो तो सारा संसार नहीं के जैसा हो जाता है और वह यदि अपने पास न हो तो भी  सारा संसार शून्य की तरह हो जाये । यह सखा का लक्षण है । वह पास है तो संसार शून्य अर्थात् इस संसार की कीमत नहीं है । इसलिये वेदों में बार - बार जीव को सखा बताया है " द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया " । सखा का लक्षण शून्यवत् इसलिये है कि वह साथ में हो तो सारा संसार शून्यरूप है और उसकी कोई कीमत नहीं है , यदि वह साथ में नहीं है तो भी सारा संसार शून्यवत् है ।
" शून्यायितं जगत् सव् गोविन्दविरहेण मे ।
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।। "
{ अभिलाषाष्टक }
विरह से जब मैं अलग हुआ तब सारा जगत् शून्य हो गया । एक निमेष मैं जब उससे अलग हुआ तो वह निमेष एक युग की तरह लगा । " चक्षुषा प्रावृषायितम् " यह पता ही नहीं लगा कि मेरी आँखे है या बादल ! जैसे बादलों से वृष्टि होती चली जाती है , ऐसे ही आँखों से अश्रु - जल निकलता चला जाता है । तात्पर्य है कि चक्षु में विश्व रहता है " दक्षिणाक्षिस्थितो विश्वः " दक्षिणाक्षि में ही जाग्रत काल में जीव का निवास है । लगता है , न जाने कितने अनन्त जीवन बीत गये उस परमात्मा से दूर हुए , लेकिन एक निमेषमात्र को आत्मदृष्टि वहाँ से हटी तो लगता है कि अनन्त युग बीत गये । युग  बीते - बीताये नहीं , लेकिन प्रतीति ऐसी होती है । जहाँ उससे आँख हटी , निमेष भी युग की तरह हृ ओर जाग्रत काल के अभिमानी विश्व में से न जाने पंचमहाभूत और उन पंचमहाभूतों के अनन्त विकार , अनन्त देह सारे मानो उसमें से वर्षा की तरह निकलते चले गये । उस परमात्म दृष्टि से भिन्न होने पर यह सारा संसार लम्बा - चौड़ा और अनन्त जीवों का दीखता है । ये अनन्त जीव क्या हैं ? अपनी उस आत्मा के विरह के एक - एक आँसू की बूंद ही तो है ! उससे दूर होने पर जो निकला , वही तो यह सारा संसार है ।
संसार में इतने दुःख क्यों हैं , कभी सोचा ? इतने दुःख इसलिये तो हैं कि यह उस परमात्मा के अश्रुओं से ही उत्पन्न हुआ है । उसका रूप शास्त्रकारों ने बताया " शून्यायितं जगत् सर्वं " जैसे ही इस बात को समझा , वैसे ही जगत् शून्य हो गया । यह संसार शून्य क्यों है , बड़े - बड़े हेतु दिये " परिच्छिन्नत्वात् जडत्वात् " । हम कई बार सोचते हैं कि जितने हेतु देते हैं , उतना ही आपके मन में जगत् बैठा हुआ है । अब एक कड़ी बात आपको कह रहा हूँ : मनोविज्ञान का नियम है कि जो चीज़ अन्दर से दिल को खाती है , उसको हटाने के लिये मनुष्य बार - बार उस चीज़ को  दोहराता है! जितना हम जगत् को असत्य सिद्ध करने जाते हैं , उससे पता चलता है कि जगत् की सत्यता हमारे हृदय को खाये जा रही है , उससे बचने के लिये हम बड़े - बड़े हेतु देते हैं। वस्तुतः जब परमात्मा के अन्दर सखाभाव आ गया , जब हमने समझ लिया कि हम उसके साथ हैं , तब सारा संसार शून्य है । वहाँ बैठकर यह नहीं कहेंगे कि " हम तुम दो हैं । " वस्तुतः जब सखा के साथ बैठ जाते हैं तब संसार का ध्यान ही नहीं आता , संसार है या नहीं , इसका ही नहीं पता लगता ।
इसलिये भगवान् ने कहा कि " भक्त को मेरे और भी हैं लेकिन तू मेरा सखा है , इसलिये तुझे यह रहस्य बतला रहा हूँ । तुझ से नहीं छिपाऊँगा , सच्ची बात बताऊँगा । " अर्जुन ने कहा " बता दो । " भगवान् ने कहा जड़ा उलट - पुलट बोलूँगा क्योंकि विषय ही ऐसा है! " कभी ऐसा होता है कि बोलने वाला ठीक भाव से बोलता है , लोग उलटा समझते हैं । भगवान्र ने सोचा कि यह रहस्य भी ऐसा ही है । कहने जाऊँगा तो लोग उलटा ही समझेंगे । तब से अब तक लोग उलटा ही समझते हैं । भगवान् ने कहा " बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चाऽर्जुन " तेरे भी और मेरे भी अनेक जन्म बीत गये । अर्जुन ने पूछा - आपके बहुत  जन्म बीत गये , यह कैसे ? भगवान् ने यहाँ " बहूनि " शब्द का प्रयोग एक ही बार किया है । संस्कृतज्ञ शब्दों को बड़ा विचार कर रखते हैं । एक ही बार " बहूनि " इसलिये कहा कि जितने तेरे जन्म उतने ही मेरे जन्म बीते हैं ! जितनी बार प्रमाता की वृत्ति उतनी ही बार साक्षी - भाव की वृत्ति बनती है , यह इसके द्वारा बताया । सखा कहकर एकता तो बता दी । अर्जुन को साहस हुआ , कहने लगा - " फिर तुम्हारे में और मेरे में क्या फर्क है , फिर तो अपने एक जैसे ही है ? " भगवान् ने कहा " मेरी बात को गलत नहीं समझना । एक फर्क है , वह भी बता देता हूँ " जन्म कर्म च मे दिव्यं यो वेत्ति तत्त्वतः " फर्क इतना ही है कि मेरे जन्म और कर्म में दिव्य - भाव रहता है । " यह दिव्यता क्या है जो भगवान् में है और अर्जुन में नहीं है ? यह भी भगवान् बता दिया " अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् " कहते हैं मेरा अपना बंधन है , तेरा अपना बंधन है । मेरा बंधन है " अजोऽपि सन् " मैं जन्म ले नहीं सकता । जैसे जीव तो जन्म लिये बिना नहीं रह सकता , ऐसे मैं जन्म ले नहीं सकता । " भगवान् और जन्म दोनों बाते आपस में विरोधी मालूम पड़ती है । जो पहले नहीं  जन्म बीत गये , यह कैसे ? भगवान् ने यहाँ " बहूनि " शब्द का प्रयोग एक ही बार किया है । संस्कृतज्ञ शब्दों को बड़ा विचार कर रखते हैं । एक ही बार " बहूनि " इसलिये कहा कि जितने तेरे जन्म उतने ही मेरे जन्म बीते हैं ! जितनी बार प्रमाता की वृत्ति उतनी ही बार साक्षी - भाव की वृत्ति बनती है , यह इसके द्वारा बताया । सखा कहकर एकता तो बता दी । अर्जुन को साहस हुआ , कहने लगा - " फिर तुम्हारे में और मेरे में क्या फर्क है , फिर तो अपने एक जैसे ही है ? " भगवान् ने कहा " मेरी बात को गलत नहीं समझना । एक फर्क है , वह भी बता देता हूँ " जन्म कर्म च मे दिव्यं यो वेत्ति तत्त्वतः " फर्क इतना ही है कि मेरे जन्म और कर्म में दिव्य - भाव रहता है । " यह दिव्यता क्या है जो भगवान् में है और अर्जुन में नहीं है ? यह भी भगवान्  ने बता दिया " अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् " कहते हैं मेरा अपना बंधन है , तेरा अपना बंधन है । मेरा बंधन है " अजोऽपि सन् " मैं जन्म ले नहीं सकता । जैसे जीव तो जन्म लिये बिना नहीं रह सकता , ऐसे मैं जन्म ले नहीं सकता । " भगवान् और जन्म दोनों बाते आपस में विरोधी मालूम पड़ती है । जो पहले नहीं हो और फिर हो . उसे जन्म कहेंगे । जीव के लिये तो " जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवः जन्म मृतस्य " । जीव के लिये जन्म लेना आवश्यक है . उसका धर्म है। ईश्वर का बंधन है कि वह जन्म नहीं ले सकता । क्रमशः .....
नारायण ! बहुत से लोग ऐसा भी मानते हैं कि भगवान् खुद जन्म नहीं लेते . लेकिन उनका कोई टूकड़ा या कोई हिस्सा जन्म ले लेता होगा । इसलिये पुराणों के अन्दर अनेक जगह अंशावतार का विचार है । इसलिये शंका होती है कि शायद वही बात होगी कि स्वयं अज भी किसी एक हिस्से से जन्म ले लेता होगा । खुद निर्विकार रहते हुये भी शायद एक हिस्से से विकार का नाटक करता होगा , उसमें सचमुच विकार नहीं आता होगा । तब भगवान् ने कहा कि " मेरे हिस्से होते नहीं हैं अर्थात् एक हिस्से से निर्लेप बना रहूँ और दूसरे से नाटक कर लूँ , यह नहीं होता। " अव्ययात्मा " , मैं अव्यय हूँ , मेरे टूकड़े नहीं हो सकते । मैं जो करता हूँ , पूर्ण रूप से करता हूँ । नहीं तो मैं अपूर्ण हो जाऊँगा । जो एक हिस्से से एक काम करे और दूसरे हिस्से से दूसरा , उसका नाम पाखण्डी और मिथ्याचारी होता है । भगवान् कहा " मुझे इतना पाखण्डी नहीं समझ लेना। मैं जो करता हूँ , वह पूर्ण होकर करता हूँ । मेरे ज्ञान , इच्छा और क्रिया के अन्दर कोई भेद नहीं आता । मैं अव्यय हूँ । मेरे टूकरे नहीं हो सकते , मैं करूँगा , पूरा होकर ही करूँगा । मेरा एक तीसरा बंधन और है - " भूतानाम् ईश्वरोऽपि सन् " ; एक तो मेरे टूकड़े नहीं हो सकते; दूसरा , मैं जन्म नहीं ले सकता और तीसरा - जितने भी संसार के जड पदार्थ व प्राणी हैं , इनका कभी गुलाम नहीं हो सकता । हमेशा इसका अधिपति ही बना रहूँगा , ये मेरे ऊपर शासन कर लें , यह कभी नहीं हो सकता । " भगवान् अपनी तीन कमजोरियाँ अपने प्रिय सखा को बता दीं ।
अर्जुन ने कहा " आप तो टुकड़े वाले भी दीख रहे हैं , जन्म लिये हुए भी दीख रहे हैं , आपको जब बाण लगता है तब खून निकलते हुए भी देखता हूँ । " भगवान् ने कहा " मेरी अपनी एक शक्ति है । " वह शक्ति कैसी है ? " श्रीबिल्वमंङ्गल अपने  " कृष्णकर्णामृत " में कहते हैं कि एक बार भगवान् ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये " वराह " अवतार लिया । उस समय अपने नथुने के ऊपर सारी पृथ्वी को रख लिया । उस समय उनका शरीर इतना बड़ा था कि सात समुद्र मिलकर भी उनके शरीर के रोमकूपों को भर नहीं पा रहे थे , इतना विशाल शरीर था । बिल्वमङ्गल कहते हैं कि वह कोई दूसरा नहीं है । ठण्ड का मौसम है, पानी गरम नहीं है , यशोदा ने निर्णय किया कि आज कृष्ण नहलाना है । जब माता नहलाती है तो लोटे से नहीं नहलाती , अंजली भरकर पानी उनके शरीर पर डालती हैं । बाल्टी में से अंजलि से पानी भरकर निकाल रही है और कूष्ण भाग रहे हैं । बच्चे को ठण्ड लगती है तो भागता है । जिसके शरीर के रोमकूपों को सात समुद्र मिलकर नहीं भर पा रहे थे, वही आज एक अंजलि पानी से डरकर भाग रहा है ! क्या क्रीडा कर रहे हैं ? नहीं सचमुच भाग रहे हैं । कैसे भाग रहे हैं ? " प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि आत्ममायया । " अपनी आत्म शक्ति से , स्वतन्त्र इच्छा के द्वारा । यहाँ सांख्य प्रकृति नहीँ समझ लेंगे । भगवान् अपनी प्रकृति को ही आधार बनाकर सृष्टि करते हैं ।
प्रश्न होता है कि परमात्मा की प्रकृति क्या है जिसका सहारा लेकर परमात्मा सब करते हैं? भगवान् ने कहा कि संसार के सारे प्राणी अपनी - अपनी प्रकृति के अनुसार चलते हैं " प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति । " जिसकी प्रकृति क्षण - क्षण में बदलने की है , उसमें स्थिरता नहीं हो सकती । जिसकी प्रकृति पत्थर की तरह न बदलने की है , वह स्थिर ही रहता है । भगवान् की क्या प्रकृति है ? " ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् " यह परमात्मा की प्रकृति है , स्वभाव है जिसे वे नहीं छोड़ सकते । भगवान् ने कहा " जो भी मेरे पास आता है " , किस रूप से आता है ? जो बाकी सब चीज़ों का सहारा छोड़कर केवल मेरे ही पास चलकर आता है । इसीलिये भक्तिशास्त्रों में " प्रपत्ति " का मतलब ही यह है कि अन्य सारी शरणों को छोड़कर एकमात्र परमात्मा की शरण लेना । " मेरी प्रकृति है कि जो जिस प्रकार सारे भावों को , सारे संहारों को छोड़कर मेरे पास आता है " तांस्तथैव भजाम्यहं " मैं उनका भजन उसी भाव से करता हूँ । " शब्द बड़े विचित्र लगेंगे । भगवान् पहले ही कह दिया था कि शब्दों की गड़बड़ी नहीं समझना क्योंकि रहस्य की बात है । प्रायः भजन कौन करता है ? लोग समझते हैं कि जीव भजन करता है । लेकिन यहा भगवान् अपने प्रिय सखा से कह रहे हैं कि जीव बेचार क्या भजन करेगा ? जीव तो सोचता है कि मैं भजन करता हूँ , परमात्मा से प्रेम करता हूँ । क्या जीव में परमात्मा से प्रेम करने की शक्ति है ? लोग समझते है कि भुनघा उड़कर दीपक की तरफ जाता है । लेकिन कभी सोचा कि भूगगा दीपक की तरफ कब जायेगा ? जब दीपक आँख के द्वारा पहले उसके हृदय में अशतार ले लेगा , उसके हृदय में उतर जायेगा। दीपक तो व्यापक है , उसकी ज्योत्सना चारो तरफ फैली हुई है । लेकिन जब का वह व्यापक दीपक अपने आपको छोटा सा परिच्छिन्न न बना ले . तब तक वह इतने छॅटे भुनगे की आँख में कैसे उतरेगा ? कभी सोचा आपने कि वह व्यापक दीपक क्यों अपने को परिच्छन्न बनाता है ? दीपक चारों तरफ फैल सकता है। सुई से छोटा भुनगा , उससे भी छोटी उसकी आँख , उस आँख के अन्दर भी अत्यन्त छोटा छिद्र { तारा } फिर वह व्यापक और सर्वत्र प्रसृत दीपक अपने आपको इतना संकुचित इतना छोटा क्यों बना लेता है ? मानना पड़ेगा कि दीपक का प्रेम भुनके के प्रति अत्यधिक है । यदि उसके प्रेम में इतनी अत्यधिकता न होती तो क्या अपने को संकुचित करता ? वह चारों तरफ फैला हृ तो था ही , उसके फैलाव में कोई रुकावट नहीं थी । फिर दीपक उसकी आँख में क्यों घुसा ? अपने को इतना परिच्छिन्न क्यों बनाया ? उस भुनगे के प्रति उसका जो अत्यधिक प्रेम है , उसको वह भुनगा नहीं समझ सकता ।
प्रमाता का दुःख कितनी देर होता है ? जितनी देर वृत्ति रही । वृत्ति समाप्त होने के बाद उस दुःख की समाप्ति है । पर साक्षिभास्यता बनी रहती है । हमारे पेट का आपरेशन हुआ । पेट के कटने का दुःख हुआ । वह पेट के कटने का दुःख तो महिने भर में दूर हो गया , लेकिन आज भी उस दुःख की याद आती है तब शरीर सिहर जाता है । यह याद किसे आती है ? प्रमाता तो उस समय खत्म हो गया , प्रमेय दुःख भी नहीं है , साक्षिभास्यता है । जीव के साथ उसका इतना अधिक प्रेम है कि जीव तो एक क्षण के दुःख को भोगकर समाप्त कर लेता है , लेकिन उसके दुःख से वह , जिसे आप निर्लेप समझते हो , इतना दुःखी हो जाता है कि उसके लिये उस दुःख की छाप अनन्त काल के लिये रहेगी , कभी मिटने वाली नहीं है , क्योंकि यह उसकी प्रकृति है । उसकी प्रकृति नित्य है , स्थिर है , भी बदलने वाली नहीं है ।
लोग समझते हैं कि जीव परमात्मा का भजन करता है । भगवान् ने कहा - अरे ! जीव क्या प्रेम करेगा ! जिस प्रकार अत्यन्त व्यापक दीपक प्रेम के कारण आँख की छोटी से तारिका में घुसकर हृदय में उतर गया , उसी प्रेम का फल हुआ कि पतंगा उड़कर दीपक के तरफ जाता है । वस्तुतः पतंगा नहीं जा रहा है बल्कि हृदय में उतरा हुआ दीपक खुद ही उस शरीर को अपनी तरफ खींच रहा है । किसलिये ? बिजली के जलाने के पहले पहुँच जाना । लोग कहते हैं कि वहाँ पतंगा जाकर जल जाता है । दीपक क्या जलाने के लिये ले जाता है ? दीपक का स्वरूप ही जलना है । वह पतंग को जलाने के लिये नहीं ले जा रहा है , अपने से बिल्कुल एक करने के लिये ले जा रहा है ! जो उसका अपना स्वभाव जलना है , उसी भाव को वह उस पतंगे को देना चाहता है कि " जैसा मेरा स्वभाव है , वैसा ही तुम भी जलो । " कभी - कभी पतंगा सोचता होगा कि दीपक का अच्छा प्रेम है! क्योंकि दीपक को समझ नहीं पा रहा है कि यह इसका स्वभाव है । यह जिसको अपने साथ करेगा , अपने जैसा करेगा । सामान्य दृष्टि से पतंगा जलता है , विचार दृष्टि से जलता नहीँ बल्कि दीपक के साथ एक , अभिन्न हो जाता है । यह दीपक का भजन है। " भज् सेवायां " धातु से भजन का अर्थ सेवा है और भजन का अर्थ प्रेम भी होता है । दोनों समझ लेंगे ।
नारायण ! परमात्मा को पहले दीपक के दृष्टान्त से समझ लें । दीपक जिस आँख में प्रवेश करेगा , उसी आँख की शक्ल का बनकर प्रवेश करेगा । जैसी आँख के तारे की शक्ल होगी , वैसा ही बनकर दीपक को प्रवेश कराना पड़ेगा । इसलिये भगवान् ने अपने श्रीमुख से कहा कि " मैं पहले जीव के साथ एक हो जाता हूँ । " पहले परमेश्वर अपने अज ,  अव्यय , सारे प्राणियों के अधिश्वर , इन सारी भावनाओं को छोड़कर उस जीव के साथ एक हो जाता है । यह उसका पहला भजन हुआ । दूसरा भजन है कि वह फिर उसकी सेवा करता है , उसे धीरे - धीरे अपने रूप का बना लेता है । पहले ईश्वर ने जीव का रूप धारण किया , यह पहला " अवतरण " हुआ । दीपक उतरकर पतंग - भाव को प्राप्त हो गया, पतंगे के हृदय में उतर गया । यह पहला " अवतार " प्रेम का है । लेकिन यदि यहीं तक स्थिर रह जाये तो काम नहीं होता । पहले खुद पतंगरूप में बना और फिर उस पतंग को अपनी तरफ उड़ा कर अपना रूप प्रदान कर दिया । यही आदान - प्रदान है । भगवान् ने कहा कि यह उनकी प्रकृति है । उपाधियों के अनन्त भेद हैं । लेकिन जिसके अन्तःकरण में जो भाव है , परमात्मा उसमें उसी भाव की उपाधि वाला होकर प्रविष्ट करता है ।
भगवान् ने  कहा - अरे अर्जुन ! " मैं अपनी इस प्रकृति को नहीं छोड़ सकता । " इसी उपाधि को लेकर भगवान् ने " संभावामि " कहा । मतलब सीधा है " पैदा होता हूँ । " लेकिन " सम्भव " शब्द की ध्वनि है कि " मेरे लक्षण को देखकर निर्लेपता का भान होगा , लेकिन मुझे सर्वथा निर्लेप नहीं समझ लेना । मैं सखाभाव को प्राप्त हुआ सर्वथा उसके साथ एक हो जाता हूँ , उसके सुख - दुःख के साथ एक रहता हूँ । फिर दूसरा भजन होता है , धीरे- धीरे उसे अपने साथ अभिन्न करके वैसा ही बना लेता हूँ । यह प्रकृति है कि असंभव होकर सम्भव  ,  अज होकर जन्म वाला , आनन्दघन होकर दुख वाला ,   निर्लेप होकर क्षण- क्षण में लेप वाला , असंग होकर जीव के प्रत्येक भाव के साथ संग वाला लगूँ । " भगवान् ने कहा " इस बात की ज़्यादा खींचतान मत कर क्योंकि यह रहस्य की बात है । बस इतना समझ ले कि मुझ असंग , निर्लेप के अन्दर भी यह सम्भव हो जाता है । " अर्जुन ने पूछा " कुछ तो समझाओ कि कैसे सम्भव हो जाता है ? " भगवान् सोचा कि यह मज़ा किरकिरा करेगा । इसलिये जवाब दे दिया " आत्ममायया " ; " यह बात तेरी समझ में नहीं आने वाली है । यह काम मैं अपनी " आत्ममाया " से करता हूँ । " " स्वां प्रकृतिं " और " आत्ममायया " कहा है , कुछ विचित्र लगता है । " स्व " और " आत्मा " का एक जगह प्रयोग है । इसके द्वारा भगवान् कहना है कि " मैं जो कुछ भी करता हूँ , उसके लिये किसी और साधन की अपेक्षा नहीं रहती । यह मेरा स्वरूप है । " " जन्म कर्म च मे दिव्यम् " यही उसका दिव्य जन्म है । बिना अपने स्वरूप को भूले हुए पहला अवतार जीव के हृदय में हुआ जो प्रपन्न हुआ । उसके हृदय में उतर कर फिर वहाँ से उसे तार देना है अर्थात् अपने साथ एक कर लेना है । यही " आत्ममाया " और यही " स्व- प्रकृति " है भगवान् की।
भगवान् प्रपत्ति को बीच - बीच में परख लेते हैं । जीव की साधना की परीक्षा भगवान् नहीं करते , प्रपत्ति को जाँचना पड़ता है । शरत् पूर्णिमा की कथा आती है । भगवान् ने रात्रि में वंशीवादन किया। गोपियाँ पहुँचीं । भगवान् ने कहा - " क्यों आई हो ? " गोपियों ने कहा " प्रेम से आई हैं । " भगवान् ने कहा - " ठीक है , दर्शन हो गये । रात का समय है , अब घर चली जाओ । " भगवान् ने यह भी नहीं कहा कि " रुकना चाहो तो रुको या जाओ तो अच्छा है । " सीधा ही कहा कि " रात का समय हो गया , यहाँ रहना ठीक नहीं है । " गोपियाँ नहीं मानीं , कहा - " आई है तो नहीं जायेंगी । " भगवान् ने तरह - तरह से समझाया कि जाना ही ठीक है । अन्त में जब किसी तरह नहीं मानीं तब भगवान् ने एक भयंकर कोडा उठाया जिसे सहन करने की ताकत नहीं होती है । भगवान् ने कहा - " मुझसे प्रेम करती हो तो मेरी स्वाभाविक प्रकृति पहले समझ लो । " गोपियों ने कहा - " समझी हुई हैं , अब क्या समझेंगी ! " भगवान् ने कहा - " नहीं , अभी नहीं समझीं । " प्रेम करने वाले तीन तरह के लोग होते हैं - एक वे कि जो उनसे प्रेम करे वे उससे प्रेम करते हैं । दूसरे कुछ लोग ऐसे होते हैं कि कोई उनसे प्रेम करे , न करे , वे प्रेम किये जायेंगे । तीसरे वे होते हैं कि तुम चाहे जितना प्रेम किये जाओ , उन्हें प्रेम करना ही नहीं ! भगवान् कहते हैं कि " यह समझ लेना कि मैं तीसरी तरह का हूँ , मैं तो साक्षी हूँ । तुम चाहे कितना प्रेम किये जाओ , मुझे शास्त्र कहता है " असंगो ह्ययं पुरुषः " असंग , निर्लेप हूँ। मैं प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करता तो न प्रेम करने वाले से करूँगा ही क्या ! " जब यह बात कही तो गोपियों ने कहा " ज़रा इधर देखो तो सही कि आप किसको चक्कर में डाल रहे हो ? आकाश की तरफ देखकर क्यों घूर रहे हो ? अपना दिव्य भाव प्रकट करना चाहते हो तो ज़रा हमारी तरफ देखकर बोलो । " श्रीमद्भागवत में बताया है कि क्यों भगवान् यह बात कहते हैं और गोपियाँ क्यों ऐसा कहती हैं ? गोपियाँ कहती हैं " आपके स्वभाव का हमें पता है कि जो जिस समय आपके सामने आता है , आप तदाकार हो जाते हैं । जब आप आकाश की तरफ देखोगे तो निर्लेप ही लगोगे । इसलिये आकाश की तरफ न देखकर हमारी तरफ देखोगे तो हमारे असली रूप को पहचानोगे । तब आपकी आँख में हमारा प्रतिबिम्ब पड़ेगा । आकाश की तरफ देखने से उसी का प्रतिबिम्ब पड़ता है , इसलिये निर्लेपता की बात कहते हो । अब हमारी तरफ देखकर बात करो । "भगवान् समझ गये कि " अब अपनी दाल गलने वाली नहीं है , ये मेरे स्वभाव को समझ गई हैं । " फिर रास मण्ठल की रचना की ।
यही परमात्मा के अवतार का स्वरूप है । वही परमात्मा पहले जीवों की भक्ति को रोकता है । जब जीव सारे सहारों को छोड़कर उनका सहारा लेते हैं तब वे स्वयं उससे प्रेम करते हैं , उसका भजन करते हैं और उसकी सेवा करते हैं । सेवन करके उसे अपने से अभिन्न बना देते हैं । यही असंग रहते हुए संग वाला बन जाना है । झूठमुठ नहीं , सचमुच बन जाना है । साक्षिभाव , प्रमाता के ज्ञान से ज़्यादा सत्य है , यह हमेशा याद रखना है । वेदान्त की भाषा में प्रमाता के ज्ञान का बाध हो जाता है , साक्षी के ज्ञान का बाध नहीं होता । प्रमाता की अपेक्षा साक्षी का ज्ञान नित्य है । इसी प्रकार लगता है कि जीव संगभाव को प्राप्त होता है लेकिन साक्षी तो ईश्वर है । जीव बेचारा तो आसक्ति भी नहीं कर सकता । लोग कहते हैं कि " बड़ी आसक्ति है " तो हमें हँसी आती है । भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर कहते हैं - " कति नाम सुता न लालिता " ! तुमने पूर्व जन्मों में अपने न जाने कितने बच्चों के साथ , पति पत्नी के साथ आसक्ति की थी , कोई नज़र आ रहा है ? अनादि काल से न जाने कितनों का पालन करते आये हो , अनारक्त हो । सच्ची आसक्ति तो परमात्मा की है कि अनादि काल से हमको ही देखता है । अनादि काल से जीव की तरफ दृष्टि स्थिर है , " अनश्नन् अन्योऽभिचाकाशीति । " जीव तो बेचारा अनासक्त है । ईश्वर बिना कुछ खाये हुए युगों से एकाग्र दृष्टि से तुम्हारी तरफ देखता हुआ बैठा है , क्योंकि एक बार तुम्हारी नज़र उसकी तरफ जाये तो तुम्हारी नज़र में प्रविष्ट होकर तुम्हारे में बैठ जायेगा । बाकी वह सब बाद में कर लेगा । इसलिये आसक्ति ईश्वर की है, जीव की नहीं । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि मुझे शास्त्र असंग कहते है, लेकिन सच यह है कि मैं बड़ा आसक्त हूँ । यही परमात्मा के अवतार का रहस्य है ।
नारायण । वह अवतार जैसे जीव के हृदय में जाता है , वैसे ही समाज के हृदय में उतरता है । जब समाज उसको भूलने लगता है , जब सारा समाज ही अनीश्वरवादी हो जाता है , उसकी तरफ से दृष्टि हटाने लगता है , तब उसी को दूर करने को राम , कृष्ण आदि विग्रह का अवतार बताया । केवल एक हृदय में नहीं , बल्कि उस समग्र समाज में अनीश्वरवाद था , उस सारे समाज को ईश्वर की तरफ ले जाने के लिये उन्होंने क्या किया? पूतना के द्वारा उड़वाये गये । जैसे समाज के दूःख से दुःखी होते हैं , ऐसे ही परमात्मा समाज के अन्दर समाज के नेत्र के द्वारा प्रवेश करेंगे । वहाँ मी किसे नेत्र बनाना है ? जैसे आपके शरीर में छोटी - सी आँख और उसमें छोटा सा तारा है , ऐसे ही सारे भारत के समाज के अन्दर छोटा - सा चन्द्रकुल और उसमें छोटे से वसुदेव और देवकी के द्वारा समाज में प्रवेश किया । समाज के दुःख से वैसे ही दुःखी हैं । पूतना उड़ा ले जाती है । बचपन से दूःखों को इसलिये सहन करते है कि समाज के दुःखी से दुःखी होना है । तब से लेकर कंसवन पर्यन्त समाज के अन्दर हैं । चूँकी किसी प्रकार के रिश्ते नहीं हैं , इसलिये भगवान मी अपने मामा को मार देते हैं । समाज के  अन्दर जिस प्रकार दुःख लोग भोगते हैं , ऐसे ही भगवान् भी मथुरा छोड़कर भागते हैं । व्यक्ति के दुःख से भी जैसे दुःख है , उसी प्रकार समाज के दुःख से भी दुःख होता है । शरणार्थी बनकर गये , द्वारिका बसाई , नरकासुर को मारने के लिये गये । यहाँ तँ कि अपने लिये पैदा हुई रुक्मिणी को भी आसानी से घर नहीं ला पाये । बड़ा युद्ध किया तब घर ला पाये । यह सब समाज के दुःख से दुःखी होना है । अपनी प्रिय गोपियों से दृर रहे , क्योंकि समाज के अन्दर जो विकार आया है , वह अपने सिर पर ओढ़ते हैं । महाभारत का सारा युद्न भी अपने ऊपर ओढ़ा , गांधारी ने भी उन्हीं को शाप दिया । इस युद्ध के अन्दर बड़े नियम टूटने थे , टूटे । युद्ध को जभ अपने ऊपर ओढ़ा तब सबसे पहले खुद नियम तोड़ा । प्रतिज्ञा की थी कि चक्र नहीं उठायेंगे , वह भी उठा लिया । यह सब किसने किया ? जो असंग है , निर्लेप है, आसक्तिरहित है । अन्तोगत्वा देखा कि सबसे ज्यादा कुटुम्भ लोगों के बंधन का कारण होता है , इसलिये कुटुम्ब - नाश को अपने ऊपर ओढ़ा । स्वयं सारे यादवकुल को नष्ट हो जाने दिया और नष्ट कर दिया । व्यक्ति के जीवन में आकर उसका अवतरण और समाज के जीवन में अवतरित होकर समाज  का अवतरण और समाज के जीवन में अवतरित होकर का अवतरण किया । इसलिये हम विशेष दिनों में उनके अवतारों की उपासना करते हैं ।
श्रीनारायण हरिः ।

Friday, June 29, 2012



धार्मिक शिक्षा प्रश्नोत्तरी { १ }  क्रमशः ......
* ईश्वर क्या है ?
ईश्वर अखिल ब्रह्माण्डनायक सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा एवं सर्व शक्तिमान् है ।
* वेद किसे कहते हैं ?
॰ अनादि अनन्त अपौरुषेय नियतानुपर्वी वह शब्दराशि जिससे धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय जाने जाते हैं , उसे वेद कहते हैं ।
॰ इनकी परम्परा सृष्टि के आरम्भ काल से बराबर चली आ रही है ।
॰ गुरुओं के मुख से सुने जाने के कारण इसे श्रुति भी कहते हैँ ।
॰ वेद चार हैं - ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद ।
* शाखा किसे कहते हैं ?
॰ वेद के अंश को ही शाखा कहते हैं एवं संहिताओं के भेद को भी शाखा कहते हैं ।
॰ सभी वेदों की 1.131 शाखा है ।
॰ ऋग्वेद की 21 शाखाएँ है ।
आश्वालायनी , शांखायनी , शाकला , वाष्कला , माण्डुकेया प्रभृति हैं । इस समय भारतवर्ष में उत्तरी भारत में शाकला शाखा एवं दक्षिण भारत में वाष्कला शाखा की संहितायें मिलती है शेष लुप्त हैं ।
* यजुर्वेद की कितनी शाखायें हैं ?
॰ यजुर्वेद की 101 शाखाएँ हैं । उनमें 6 शाखाएँ मिलती हैं जिनके नाम हैं - तैत्तिरीय , मैत्रायणि , कठ , कापिष्ठल , श्वेताश्वतर ये कृष्ण यजुर्वेद की शाखाएँ  हैं जो उपलब्ध हैं ।
॰ शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय , काण्व शाखाएँ उपलब्ध हैं शेष शाखाएँ लुप्त है ।
* सामवेद की कितनी शाखाएँ है ?
॰ सामवेद की 1000 एक हजार शाखाएँ हैं । जिनमें केवल 3 तीन शाखाएँ प्राप्त हैं शेष शाखाएँ लुप्त हैं ।
* अथर्ववेद की कितनी शाखाएँ है ?
॰ अथर्ववेद की 9 नव शाखाएँ हैं । जिनमें पैप्पलाद और शौनकीया प्राप्त हैं ।
* ऋग्वेद की शाकल शाखा का विवरण बतायें ?
॰ ऋग्वेद की शाकल शाखा 10 दस भागों में विभक्त है । जिन्हें मण्डल कहते हैं प्रत्येक मण्डल में कई सूक्त में कई ऋचाएँ हैं । कुल 1 , 028 एक हजार अठ्ठाईस सूक्त हैं । जिसमें 10 हजार 500 पाँच सौ ऋचाएँ है ।
* यजुर्वेद का विवरण बतायें ?
॰ यजुर्वेद 2 दो भागों में विभक्त हैं शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद । शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयमाध्यदिन संहिता में कुल 40 चालीस अध्याय हैं जिनमें यज्ञ संबन्धी ज्ञान का विस्तृत विवरण है ।
* कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीयशाखा में कितने मन्त्र हैं ?
॰ कृष्ण यजुर्वेद में 7 सात अष्टक , 44 चौवालीस प्रपाठक , 651 छः सौ एक्यावन अनुवाक और 2,198 दो हजार एक सौ अठ्ठावन मन्त्र समुह है ।
* शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में कितने मन्त्रादि हैं ?
॰ शुक्ल यजुर्वेद माध्यदिन शाखा में 40 चालीस अध्याय 1 ,975 एक हजार नव सौ पचहत्तर मन्त्र तथा 90 , 535 नब्बे हजार पाँच सौ पैतीस अक्षर 1 , 230 एक हजार दो सौ तीस सभी प्रकार के { - } धूं चिह्न हैं ।
* सामवेद का विवरण बतायें ?
॰ सामवेद की 1, 000 एक हजार शाखाओं में से कौथुमी शाखा में 29 उनतीस अध्याय हैं , 6 छः आर्चिक 88 अठ्ठासी साम , 1 , 824 एक हजार आठ सौ चौबीस मन्त्र हैं ।
राणायणी शाखा में 1 , 549 एक हजार पाँच सौ उननचास मंत्र हैं ।
* अथर्ववेद के विवरण बतायेँ ?
॰ अथर्ववेद की 9 नव शाखाएँ है जिसमें से शौनक शाखा में 20 बीस काण्ड , 34 चौतीस प्रपाठक , 111 एक सौ ग्यारह अनुवाक , 733 सात सौ तैतीस वर्ग , 759 सात सौ उननचास सुक्त , 5 . 977 पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मन्त्र हैं । कुछ शाखाएँ ऐसी है जिनके आरण्यक , ब्राह्मण उपनिषद ही मिलते हैं मन्त्र भाग नहीं मिलते ।
* ब्राह्मण किसे कहते हैं ?
॰ शतपथ ब्राह्मण , ताड्यमहाब्राह्मण , आर्षेय ब्राह्मण , सामविधान ब्राह्मण आदि आदि ।
* आरण्यक किसे कहते हैं ?
॰ आरण्यक में कहे गये और सुने जाने के कारण इसे आरण्यक कहते हैं । यह भी ब्राह्मण भाग की तरह वेद ही हैं । वानप्रस्थाश्रम के नियत तथा ज्ञान कथा की जिसमें बाहुल्यता है तथा ब्राह्मण भाग होने के कारण वेद ही है ।
* आरण्यक ग्रन्थों के नाम बतायें ?
॰ ऐतरेयारण्यक , कौशितकी आरण्यक , तैत्तिरीय आरण्यक आदि ।
* उपनिषद् किसे कहते हैं ?
॰ ब्रह्म की विवेचना जिसमें हो उसे उपनिषद् कहते है । उपनिषद् प्रायः संहिताओं और ब्राह्मण के अंश मात्र हैं ।
* उपनिषदों के नाम बतायें ?
॰ उपनिषद् अनेकों है यथा वृहदारण्यकोपनिषद् , माण्डुक्योपनिषद् , प्रश्नोपनिषद् , कठोपनिषद् प्रभृति । ये भी सभी वेदों की शाखाओं के पृथक - पृथक हैं ।
* कल्प सूत्र किसे कहते है ?
॰ जिस ग्रन्थ में वैदिक यज्ञादि एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का वर्णन हो उसे ही कल्प सूत्र कहते हैं । जिन वेदों की शाखाएँ नहीं मिलती उनके आरण्यक ब्राह्मण भी नहीं मिलते ।
* कल्प सूत्र के कितने भेद हैं ?
॰ कल्प सूत्र के 4 चार भेद है - श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र , शुल्व सूत्र ।
* श्रौत सूत्र किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें श्रौत यागो का तथा श्रतियों के पठन - पाठन का वर्णन हो उसे श्रौतसूत्र कहते हैं , ये प्रत्येक वेद की शाखाओं के भिन्न - भिन्न हैं । तथा आश्वालायन , श्रौतसूत्रकात्यायन श्रौतसूत्रादि ।
* गृह्य सूत्र किसे कहते हैं ?
॰ गृह्यसूत्र जिसमें षोडस संस्कार { जन्म से लेकर मरण अन्त्येष्टि } का वर्णन हो उसे गृह्यसूत्र कहते हैं। ये सब धर में होते है इसलिये इसे गृह्यसूत्र कहते हैं यथा पारस्कर गृह्यसूत्र , आश्वालयन गृह्यसूत्र । यथा ऋग्वेद की आश्वालयन शाखा का आश्वालयन गृह्यसूत्र , शांखायन गृह्यसूत्र प्रभृति ।  
* धर्मसूत्र किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें मानव धर्म के प्रातः काल से शय7 पर्यन्त और जन्म से मृत्यु पर्यन्त कृत्यों की विधियों का वर्णन हो उसको धर्मसूत्र कहते हैं । यथा गौतम धर्मसूत्र ।
* वेदाङ्ग किसको कहते हैं ?
॰ शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्योतिष तथा छन्द ये 6 छः वेद के अङ्ग हैं ।
* वेद के अङ्गों के स्थान बतायें ?
॰ शिक्षा नासिका है , कल्पसूत्र हाथ है , व्याकरण मुख है , निरुक्त कान है , ज्योतिष नेत्र है , छन्द पाँव है ।
* शिक्षा किसे कहते हैं ?
॰ वेद मन्त्रों के उच्चारण के लिये प्रयुक्त होने वाले उदात्त - अनुदात्त - स्वरित स्वरों के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे शिक्षा कहते हैं ।
* कल्प किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें वैदिक मंत्रों के ऋषि देवता छन्दों के साथ साथ यज्ञादिक एवं संस्कारों की विधि तथा प्रयोगों का निर्देशन हो उसे कल्प कहते हैं ।
* व्याकरण किसे कहते हैं ?
॰ साध्य , साधन , कर्त्ता , कर्म , क्रिया , समासादि का निरुपण एवं शब्द के व्युत्पादन तथा भाषा के नियमों का वर्णन जिसमें हो उसे व्याकरण कहते हैं ।
* निरुक्त किसे कहते हैं ?
॰ पद निर्वाचन अर्थात् शब्दों के अर्थ करने को प्रणाली का वर्णन जिसमें हो उसे निरुक्त कहते हैं।
* ज्योतिष क्या है ?
॰ जिसमें ग्रह , नक्षत्र उनकी गति एवं काल गणना का वर्णन है वह ज्योतिष है ।
* छन्द किसे कहते हैं ?
॰ लौकिक वैदिक पदों के यति विराम आदि को व्यवस्थित करने का वर्णन जिसमें हो उसे छन्द कहते हैं । छन्द दो प्रकार के होते हैं । लौकिक तथा वैदिक , मात्रा छन्द व वर्ण छन्द ।
* उपवेद कितने हैं ?
॰ चारों वेदों के चार उपवेद हैं । ऋग्वेदका उपवेद आयुर्वेध , यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद , सामवेद का उपवेद गान्धर्ववेद , अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्य - कला व अर्थशास्त्र है ।
* चारो वेदों के गोत्रादि क्या हैं ?
॰ ऋग्वेद का आत्रेय गोत्र , ब्रह्म देवता , गायत्री छन्द है । यजुर्वेद का भारद्वाज गोत्र , रुद्र देवता , त्रिष्टुप छन्द है । सामवेद का काश्यप गोत्र , विष्णु देवता , जगति छन्द है । अथर्थवेद का वैजान गोत्र , इन्द्र देवता , अनुष्टुप छन्द है ।
* वेदान्त किसे कहते हैं ?
॰ वेद के अन्तिम भाग अर्थात् आखिरी ब्रह्मविद्या विषय वेदान्त उपनिषद कहते हैं । जिसमें ब्रह्मविद्या का निरुपण हो ।
* श्रुति किसे कहते हैं ?
॰ गुरु मुख से जिसका श्रवण किया हो  जिसका कोई कर्त्ता न हो उसे श्रुति कहते हैं " श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो "
* स्मृति किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें प्रझा के लिये आचार - विचार - व्यवहार की व्यवस्था तथा समाज के शासन निमित्र निति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टता पूर्वक हो उसे स्मृति कहते हैं । इसी को धर्मशास्त्र भी कहते हैं ।
* धर्म शास्त्र किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें धर्माधर्म का निर्णय मिले उसे धर्मशास्त्र कहते हैं । इसे स्मृति भी कहते हैँ ।
* धर्म शास्त्र के निर्माता कौन थे ?
॰ धर्मशास्त्र के निर्माता महर्षि गण हैं । जिन्हें समाधि में वैदिक तत्त्वों का ज्ञान होता है वे ही धर्मशास्त्र के निर्माता व प्रवर्तक कहे जाते हैं जैसे - मनु , अत्रि , विष्णु , हारित , याज्ञवल्क्य , उशना , अंगिरा , यम , आपस्तम्ब , सम्वर्त , कात्यायन , वृहस्पति , पराशर , व्यास , शंख , लिखित , दक्ष , गौतम , शातातप , वसिष्ठादि ।
* धर्म किसे कहते हैं ?
॰ वैदिक विधि वाक्यों द्वारा जिनकी कर्तव्यता का ज्ञान हो उसे धर्म कहते हैं । जिसमें अभ्युदय तथा श्रेयस सिद्धि हो उसे धर्म कहते हैं ।
* सनातन धर्म के क्या लक्षण है ?
॰ सनातन परमात्मा ने सनातन जीवों के सनातन  निःश्रेयस एवं अभ्युदय के लिए जिन सनातन परम कल्याणकारी नियमों का निर्देश जिसमें किया हो उसे सनातन धर्म कहते है।
यज्ञ कुण्ड मण्डप बनाने की चर्चा किन ग्रन्थो में है ?
॰ शुल्बसूत्र , कुण्डाक्रकुण्डकल्पतरु , कुण्डरत्नावलि में यज्ञकुण्ड और मण्डपादि बनाने का विधान है ।
* आगम किसे कहते हैं ?
॰ जिसमें सृष्टि , प्रळ , देवताओं की पूजा , सर्व कार्यों के साधन , पुरश्चरण , षट्कर्म साधन और चार प्रकार के ध्यान योग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं ।
* यामल किसे कहते है ?
॰ सृष्टि तत्त्व , ज्योतिष , नित्य कृत्य , सूत्र , वर्णभेद और युग धर्म का वर्णन जिसमें हो उसे यामल कहते हैं ।
* तन्त्र किसे कहते है ?
॰ सृष्टि , लय , मंत्र निर्णय , देवताओं के संस्थान , यंत्र निर्णय , तीर्थ , आश्रम धर्म , कल्प , ज्योतिष संस्थान , व्रत कथा , शौच , आशौच , स्त्री पुरुष लक्षण , राज धर्म , दान धर्म , व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों जिसमें वर्णन हो उसे तन्त्र कहते हैं ।
* तैंतीस देवता के नाम क्या हैं ?
8 आठ वसु , 11 ग्यारह रुद्र , 12 आदित्य , 1 एक प्रजापति और 1 एक वषट्कार । इस प्रकार कुल 33 तैंतीस देवता होते हैं ।
* दशमहाविध्या के नाम क्या हैं ?
॰ काली , तारा , ललिता , भुवनेश्वरी , त्रिपुरभैरवी , छिन्नमस्ता , धूमावती , बगलामुखी , मातंगी और कमला ये दशमहाविद्या हैं ।
* संध्या - वन्दन का फल क्या है ?
॰ जो द्विज प्रतिदिन संध्या करता है वह पाप रहित होकर सनातन ब्रह्मलोक में जाता है ।
¤ जितने भी इस पृथ्वी पर विकर्मस्थ द्विज हैं उनके पवित्र करने के लिए स्वयंभू ब्रह्मदेव ने संध्या का निर्माण किया है ।
¤ रात्रि में तथा दिन में जो भी अज्ञान अर्थात् पाप किया गया हो वह तीनों काल की संध्या - वन्दन से नष्ट हो जाता है ।
* संध्या न करने का दोष क्या है ?
॰ जिसने संध्या को नहीँ जाना तथा उपासना भी नहीं की वह जिवित शुद्र है और संध्या न करने पर कुत्ते की योनी में जन्मता है ।
¤ संध्या न करने वाला सदा अपवित्र है सभी कार्यों के अयोग्य है दूसरा भी यदि कोई काम करता है तो उसका फल नहीं मिलता ।
* संध्या की व्याखा क्या है ?
॰ सूर्य नक्षत्र से वजित अहोरात्र की जो संधि है तत्त्वदर्शी हमारे पूर्वज ऋषि - मुनियों ने उसी को संध्या कहा है ।
* संध्या वन्दन का काल अर्थात् समय कब होना चाहिये ?
॰ संध्या का समय सूर्योदय से पूर्व ब्राह्मण के लिए दो मुहूर्त है । क्षत्रिय के लिए इससे आधा और उससे आधा वैश्य के लिए ।
¤ ताराओं से युक्त समय अति उत्तम समय है । ताराओं के लुप्त हो जाने पर मध्यम ।  सूर्य सहित अधम । इस प्रकार प्रातः संध्या तीन प्रकार की है ।
* तीनों काल की संध्या का नाम क्या है ?
॰ प्रभात काल की संध्या का नाम - गायत्री , मध्याह्न काल की संध्या का नाम - सावित्री और सायं काल की संध्या का नाम - सरस्वति है ऐसा तत्त्वज्ञ ऋषियों का वचन है ।
* त्रैकालिक संध्या के वर्ण कौन - कौन से हैं ?
॰ प्रभात काल की संध्या - गायत्री का वर्ण - लाल है , मध्याह्न काल की संध्या - सावित्री का वर्ण - शुक्लवर्ण और सायं काल की संध्या का वण - कृष्णवर्ण है उपासनार्थियों की उपासना के लिए है ।
* त्रैकालिक संध्या का रूप क्या है ?
॰ प्रातःकाल की संध्या - गायत्री - ब्रह्मरूपा , मध्याह्न संध्या - सावित्री - रुद्ररूपा और सायं काल की संध्या - सरस्वती - विष्णुरूपा है ।
* त्रैकालिक संध्या का गोत्र क्या - क्या है ?
॰ प्रातः काल की संध्या - गायत्री का गोत्र - सांङ्ख्यायन , मध्याह्न काल की संध्या - सावित्री का गोत्र - कात्यायन एवं सायं काल की संध्या - सावित्री का गोत्र - बाहुल्य है ।
* त्रैकालिक संध्या में कौन - कौन धातु पात्र का प्रयोग करना चाहिये ?
॰ भग्न तथा टूटे पात्र से संध्या करना निन्दिन है । उसी प्रकार धारा से टूटे हुए जल संध्या करना मना है । नदी में , तीर्थ में , ह्रद में - मिट्टी के पात्र से , उदुम्बर के पात्र से , सुवर्ण - रजत - ताम्र एवं लकडी के पात्र से संध्या करनी चाहिए ।
* त्रैकालिक संध्या - वन्दन में कौन - कौन से पात्र अपवित्र है ?
॰ काँसा , लौह , शीशा . पीतल के पात्रों से आचमन करने वाला कभी शुद्ध नही हो सकता। अतः इन धातुओं के बने पात्र अपवित्र हैं इन्हें संध्या - वन्दन मेँ प्रयोग न लेना चाहिये।
* किन - किन स्थानों पर संध्या - वन्दन करना विशेष फलप्रद है ?
* अपने धर अर्थात् अपने निवास स्थान पर संध्या - वन्दन करना समान फल प्रदायक है। गायों के स्थान पर सौगुना , बगीचा तथा वन में हजार गुना , पर्वत्र पर दस हजार गुना , नदी के तट पर लाख गुना , देवालय में करोड़ गुना , भगवान् सदाशिव शङ्कर के सम्मुख बैठकर जप करना , संध्या करने से अनन्त गुना फल मिलता है ।
¤ धर के बाहर संध्या करने से झूठ बोलने से लगा पाप , मद्य सूँघने से लगा पाप , दिवा मैथुन करने से लगा पाप नष्ट होता है । अतः संध्या धर से वाहर पवित्र स्थान में करना चाहिए ।
* संध्या - करने का समय अगर निकल जाए तो क्या  क्या करना चाहिए ?
॰ किसी कारण से संध्या का समय निकल जाये विलम्ब हो जाये तो श्री सूर्यनारायण भगवान् को चौथा अर्घ देना चाहिए इस अर्घ दान से कालातिक्रमणजन्य पाप नष्ट होता है।
* संध्या - वन्दन करने के लिये कौन से आसन उपयुक्त है ?
॰ कृष्णमृग चर्म पर बैठने से ज्ञान सिद्धि , व्याघ्रचर्म पर बैठने से मोक्ष प्राप्ति , दुःख नाश के कम्बल पर वैठना चाहिए । अभिचार कर्म करने के लिए नील वर्ण के आसन , वशीकरण के लिए रक्तवर्ण , शान्ति कर्म के लिए कम्बल का आसन , सभी प्रकार के सिद्धि के लिये कम्बल का आसन श्रेयस्कर है । बांस पर बैठने दरिद्रता , पथ्थर पर बैठने से गुदा रोग , पृथ्वी पर बैठने से दुःख , बिधी हुई लकड़ी अर्थात् छेद किया हुआ {किल लगी हुई } पर बैठकर संध्यादि करने से दुर्भाग्य , घास पर बैठने से धन और यश की हानी , पत्तों पर बैठकर जप करने - संघ्या करने से चिन्ता तथा विभ्रम होता है ।
* काष्ठासन तथा वस्त्रासन का माप क्या होना चाहिए ?
॰ काष्ठासन 24 अंगुल लम्बा 18 अंगुल चोड़ा 4 या 5 अंगुल ऊँचा होना चाहिए , वस्त्रासन 2 हाथ से ज्यादा लम्बा नहीं होना चाहिए 1 एक हाथ से ज्यादा चौड़ा न हो , 3 अंगुल से ज्यादा मोटा नहीं होना चाहिए ।
* लकड़ी की खड़ाऊँ कहाँ - कहाँ नहीं पहना चाहिए ?
॰ आग्न्यागार में , गौशाला में . देवता तथा ब्राह्मण के सम्मुख , आहार के समय , जप के समय पादुका का त्याग कर देना चाहिए ।
* संध्या करते समय मुख किस दिशा में रखें ?
॰ पवित्र होकर ब्राह्मण संध्योपासना करते समय पूर्व दिशा में मुख करके बैठे तथा जप भी पूर्वाभिमुख करे ।
¤ जहाँ कर्त्ता का अंग न उल्लेख हो वहाँ दक्षिण अंग समझना चाहिए ।
¤ जप होमादि कर्मों में जहाँ का उल्लेख न हो वहाँ पूर्व ईशान ओर उत्तर दिशा समझे ।
¤ दैवकार्य रात्रि को सदा उत्तराभिमुख करना चाहिए ।
¤ शिवार्चन भी उत्तराभिमुख करना चाहिए ।
¤ जहाँ निरन्तर सूर्य उगता है वेदज्ञ उसी को प्राची पूर्व दिशा कहते हैं ।
¤ ईशानमुख या पूर्वाभिमुख होकर संध्या - वन्दन करें ।
* भस्म धारण कैसे करें ?
॰ प्रातः जल मिलाकर , मध्याह्न चंदन मिलाकर तथा सायं केवल भस्म ही लगावें ।
भस्म कौन सी लेनी चाहिए ?
॰ श्रीगङ्गाजी के तीर पर उत्तम मिट्टी को जो ललाट पर लगाता है वह तमोनाश हेतु भगवान् श्रीसूर्यदेव के तेज को लगाता है ।
¤ गोमय को जलाकर की हुई भस्म ही त्रिपुण्ड्र के योग्य है ।
¤ स्नानकर मिट्टी - भस्म - चंदन व जल से त्रिपुण्ड्र अवश्य करें किन्तु जल में जल त्रिपुण्ड्र करें ।
* भस्म धारण के प्रकार क्या हैं ?
॰ भस्म से त्रिपुण्ड्र - मिट्टी से ऊर्ध्व - अभ्यंगोत्सवादि रात्रि में चंदन से दोनों करें ।
¤ गृहस्थ को सदा जल मिश्रित ही भस्म लगाना चाहिए ।
¤ यति केवल भस्म ही लगाना चाहिए ।
¤ दाहिने हाथ की मध्य की तीन अंगुलियों से विद्वान लोग त्रिपुण्ड्र धारण करें जो सब पापों को नाश करने वाला है ।
¤ जो त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता उसके लिए सत्य , शौच , जप , होम , तीर्थ , देव - पूजन सभी व्यर्थ हैं ।
* भस्म कहाँ - कहाँ धारण करें ?
॰ ललाट , हृदय , नाभी , कण्ठ , बाहुसंधि , पृष्टदेश , शिर - इन स्थानों में भस्म लगावें ।
* त्रिपुण्ड्र कितना लम्बा होना चाहिए ?
॰ ब्राह्मण के लिए 8 आठ अंगुल लम्बा , क्षत्रिय के लिए 4 चार अंगुल लम्बा , वैश्य के लिए 2 दो अंगुल लम्बा शेष शुद्रादि के लिए 1 एक अंगुल लम्बा त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए ।
* त्रिपुण्ड्र किसे कहते हैं ?
॰ भ्रुवों के मध्य से प्रारम्भ कर जब तक भ्रुवों का अन्त न हो मध्यमानामिका अंगुलियों से मध्य में प्रतिलोम अंगुठे से जो रेखा की जाती है उसे त्रिपुण्ड्र कहते हैं ।
* करमाला किसे कहते हैं ?
॰ मध्याङ्गुली के आदि के दो पर्वों को जप काल में छोड़ देना चाहिए । स्वयं श्रीब्रह्माजी का कथन है कि उसे मेरु मानना चाहिए ।
* मेरु लंघन ने क्या दोष लगता है ?
॰ मेरुहीन तथा मेरु के लांघने वाली माला अशुद्ध होती है तथा निष्फल है ।
* माला किस चीज़ की उत्तम होती है ?
॰ अरिष्ट पत्र एवं बीज , शङ्ग पद , मणि , कुशग्रन्थी , रुद्राक्ष ये क्रमशः उत्तरोत्तर उत्तम है।
* जप के लिए माला किसकी होनी चाहिए ?
॰ प्रवाल , मुक्ता , स्फटिक , ये जप के लिए कोटी फलप्रद माने गये
* भस्म न धारण करने से क्या दोष लगता है ?
॰ स्नान , दान , जप , होम , संध्या - वन्दन , स्वाध्यायादि कर्म ऊर्ध्व पुण्ड्र { त्रिपुण्ड्र } विहिन के लिए निरर्थक है अर्थात् इनका कोई भी फल नहीं मिलता ।
¤ ललाट पर तिलक कर के ही संध्या - वन्दन करें जो ऐसा नहीं करता उसका किया हुआ सब निरर्थक है ।
¤ तुलसी की माला अक्षय फल दायक माना गया है ।
* माला का दाना किन - किन अंगुलियों से बदला जाये ?
॰ अंगुठे और मध्यमा अंगुली से माला का दाना बदलनी चाहिए । तर्जनी अर्थात् अंगुठे की बगल वाली अंगली से माला के मनके अर्थात् दाने का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए । क्योंकि मध्यमा अंगुली आकर्षण करने वाली तथा सब प्रकार की सिद्धि प्रदायक होती है ।
* कर्म विशेष में दर्भ का क्या प्रमाण है ?
॰ ब्रह्मयज्ञ में गोकर्णमात्र दो दर्भा , तर्पण में हस्तप्रमाण तीन दर्भा ।
* गोकर्ण किसे कहते हैं ?
॰ तर्जनी और अंगुठे को फैलाकर जो प्रादेश प्रमाण होता है उसे ही गोकर्ण कहते हैं ।
* वितरित किसे कहते हैं ?
॰ कनिष्टिका तथा अंगुठे के फैलाने पर वितरति होता है जिसे विलांत या द्वादशाङ्गुल कहते हैं ।
* पवित्र कैसी दर्भा का होता है ?
॰ अनन्त गर्भवति अग्रभाग सहित दो दलवाली प्रादेशमात्र कुश का पवित्र होता है । मार्कण्डेय पुराण के मत से ब्राह्मण को 4 चार शाखा वाली दर्भा से , क्षत्रिय को 3 तीन शाखा वाली दर्भा और वैश्य को 2 शाखावाली दर्भा से पवित्र बनाना चाहिए ।
* सपवित्र हस्त से आचमन करना या नहीं करना चाहिए ?
¤ सपवित्र  हस्त से आचमन करने से वह पवित्र उचिष्ट नहीं होता है ।
* कौन - कौन से कर्म दोनों हाथों में दर्भा लेकर करना चाहिए ?
॰ स्नान , दान , होम , जप , स्वाध्याय , पितृकर्म तथा संध्या - वन्दन दोनों हाथ में दर्भा लेकर करें ।
* पवित्र किसे कहते हैँ ?
2 दो अंगुल जिसका मूल भाग हो , 1 एक आंगुल की ग्रन्थी हो और 4 चार अंगुल जिसका अग्रभाग हो उसे पवित्र कहते हैं ।
* ब्रह्मग्रन्थी और वर्तुल ग्रन्थी कहाँ - कहाँ लगाना चाहिए ?
॰ ब्रह्मयज्ञ में , जप में , पहने जाने वाले पवित्र में ब्रह्मग्रन्थी लगावें ।
* ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी में क्या भेद हैं ?
॰ ब्रह्मग्रन्थी तथा वर्तुल ग्रन्थी परस्पर विपरीत क्रम से हैं ।
* कुशा तथा दूर्वा की पवित्री में अधिक उत्तम कौन हैं ?
॰ कुशा तथा दूर्वा की पवित्री से भी उत्तम सुवर्ण की पवित्री उत्तम है ।
* कुशा के अभाव में क्या - क्या लेना चाहिए ?
॰ कुशा के अभाव में काश , क्योंकि कुश काश के समान हैं । काश के अभाव में अन्यदर्भा भी उचित है , दर्भा के अभाव में स्वर्ण , रोप्य , ताभ्र भी ग्रहण किया जाता है ।
* दश दर्भायें कौन - कौन से होते हैं ?
॰ कुश , काश , शर , दुर्वा , यव , गोयुम , बलबज , सुवर्ण , रजत और ताम्र ये दश दर्भा कहलाती हैं ।
* यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो क्या करें ?
॰ यदि दोनों हाथो के लिए पवित्री न हो तो दाहिने हाथ के लिए तो पवित्री अत्यावस्यक है ।
* सुवर्ण पवित्री कितने वजन का हो ?
॰ सुवर्ण पवित्री 16 माशे से ऊपर वजन की बनानी चाहिए , इससे कम वजन की नहीं हो।
* शिखा बंधन मंत्र से करें या वैसे ही ?
॰ अमन्त्रक शिखा बंधन करने से जप होमादि सभी वृथा हो जाते हैं ।
* सदा यज्ञोपवीत और शिखा बाँधे क्यों रखना चाहिए ?
॰ बिना यज्ञोपवीत तथा बिना शिखा बाँधे रहने वाले व्यक्ति का किया हुआ सभी कर्म निरर्थक हो जाता है । उसका कोई फल नही प्राप्त होता ।
* शिखा बंधन सहित कौन - कौन कार्य करें ?
॰ शौच , दान , जप , होम , संध्या , देवपूजादि कार्य शिखा बाँध कर ही करना चाहिए ।
* शिखा कहाँ - कहाँ खुली रखें ?
॰ शौच , शयन , स्त्रीसंग , भोजन , दन्तधावन करते समय शिखा खुली रखनी चाहिए ।
क्रमशः .....