“ वाणी का महत्त्व “ : -
संसार
के सभी अनात्म पदार्थ तीन भागों में बँटे हैं - नाम , रूप और
क्रिया । संसार में हर चीज़ का नाम अवश्य है , उसका रूप है ,
उसमें क्रिया है । एक अविनाशी परमशिव परमेश्वर को छोड़कर बाकी सब इन
तीनों से ग्रस्त हैं । क्रिया से विक्रया , परिवर्तन ,
तब्दीली भी समझेंगे , हर वस्तु में या
परिस्पंदरूप या परिवर्तनरूप क्रिया " नारायण
" , अवश्य है । जन्म - नाश परिवर्तन तो हैं ही , स्थितिकाल मेँ भी हर चीज़ में बदलाव आता ही रहता है । " रूप " केवल आँखों से दीखने वाला आकार नहीं वरन्
जिसके सहारे पदार्थ का " निरूपण " होता है , उसके बारे में कहा - समझा जाता है,
उसे पदार्थ का " रूप " कहते हैं । शब्द में भी यह " रूप "
है क्योंकि शब्द भी उदात्त , कर्कश आदि तरहों
से निरूपित होता है । स्वाद , स्पर्श आदि सब इस
" रूप " में इकट्ठे हो जाते हैं ।
जगत् के सब पदार्थों के निरूपण हो सकने से वे रूपवान् हैं । और रूप को व्यक्त किया
जाता है नाम से तथा नाम अर्थात् शब्द को उत्पन्न करने वाली है वाक् अर्थात्
कर्मेन्दिय , क्रिया , क्रिया से शब्द
उत्पन्न होता है । दो चीजों की आपस में टक्कर होने से ही शब्द पैदा होता
है , वह चाहे वायु की ही टक्कर
हो । यद्यपि अनाहत ध्वनि की भी चर्चा आती है तथापि विशिष्ट आघातों के न होने को ही
वहाँ अनाहत कह देते हैं , सर्वथा
क्रिया के बिना शब्द उससे नहीँ सिद्ध होता । क्रियोत्पादक वाक् अर्थात् वाणी को
नाम से बढ़कर बताया । घड़े में वायु भरी रहती है , पानी डालें तो वह वायु निकल जाती है । ऐसे ही मन में ,
दिमाग में संसार के नाम भरे हुए हैं ,
वाक् के प्रयोग से उसमें परमेश्वर के
नाम भरेंगे तो संसार के नाम निकल जायेंगे। बिना दृसरी चीज़ भरे तो पहली चीज़ निकलेगी
नहीं । अतः वाणी की महत्ता स्पष्ट है ।
अकबर - बीरबल का एक किस्सा लोक प्रसिद्ध है : अकबर की बेगम साहिबा ने
बादशाह से कहा
" बीरबल को फालतू बढ़ावा
दिया हुआ है , उसे हटाकर मेरे भाई को मंत्री बनाओ । " अकबर अपने साले के लिये सीधे कैसे मना करता ! अतः बोला " परीक्षा लूँगा , अगर वह
बीरबल से बेहतर निकला तो उसे ही रख लूँगा । " दरबार
ने बादशाह ने खड़िया से एक लकीर खींच कर कहा " इस
लकीर को न काटना है ,
न मिटाना है , फिर भी छोटा कर देना है । " पहले बेगम साहिबा के भाई को मौका दिया । बहुत सोच -
विचार कर बेचारे ने कहा
" यह तो असम्भव है । “ फिर बीरबल की बारी आयी। उसने वही खड़िया लेकर उसी रेखा
के पास एक उससे भी लम्बीलकीर खींच दी । कहने लगा “ जहाँपनाह ! आपकी लकीर छोटी हो गयी । “ बेगम साहिबा भी समझ गयी किउसके भाई की
बुद्धि कितनी थी । जब समानजातीय दूसरी चीज
आयी तभी बड़ी - छोटी का ज्ञान हुआ । विचार करें : यहाँ परमेश्वर ही बादशाह है । सब
शास्त्रों को समझने वाली बुद्धि बीरबल है, तीक्ष्ण बुद्धि ही समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्रकट कर सकती है । परन्तु
यह माया को पसन्द नहीं ! माया ही बेगम है और उसका भाई है मन । मन कहता है
" बुद्धि में क्या विशेषता है कि
उसे प्रश्रय दिया जाये ? मौका
मुझे मिलना चाहिये । " माया
ही स्वार्थ - लोभ से बुद्धि की प्रधानता में रुकावट डालती है , आत्मा को ठीक मार्ग पर चलने नहीं देती ।
परमेश्वर ने परीक्षा के लिये ही नाम - रूप - कर्म की लकीर खींच दी है । इस
संसाररूप लकीर को मन छोटा करने की कोशिश करता है । क्योंकि संसार तो परमेश्वर का
बनाया है इसलिये इस पर मन का यह बस तो चल नही पाता कि इसे काट दे या मिटा दे दा
अन्य कोई उपाय
इसे सूझता नहीं जिससे वह छोटा हो । जब मन हार मान लेता है तब बुद्धि उपाय करती है
- वह " भूमा " की लकीर खींच देती है ! जब परमात्मा का व्यापक
स्वरूप प्रकट हो तभी संसार छोटा होगा । सांसारिक दुःख तब तक न मिट सकते हैं न कम
हो सकते है जब तक अनन्त परमात्मा का साक्षात्कार न हो । बिना अधिष्ठान का ग्रहण
किये अध्यस्त की तुच्छता नहीं लाई जा सकती । अतः वाक् - रूप क्रिया का महत्त्व है
क्योंकि वाक् से शास्त्रों को हृदयङ्गम करने पर ही संसार की अल्पता समझ में आयेगी
। वाक् को परमेश्वर के ही नाम से संलग्न करने पर वह शोकसागर से पार ले जायेगी । यद्यपि
कारण होने से वाक् अपने कार्यरूप नाम से श्रेष्ठ है क्योंकि कारण ही कार्य की
अपेक्षा प्रधान गिना जाता है जैसे गहनों से सोना या पुत्र से पिता , तथापि वाक् की श्रेष्ठता इस पर भी निर्भर करती
है कि उसका उपयोग क्या किया ; नामात्मक
ब्रह्म की उपासना करे अर्थात् परमात्मा के नामों का ही जप आदि करे तभी वाक् अपनी
श्रेष्ठता साबित कर पायेगी । परमेश्वर का नाम तो गुरु से मिल जायेगा पर वाक् से
उसका प्रयोग साधक को ही करना पड़ेगा । बीज मिलना महत्त्वपूर्ण है पर उसे बोना और भी
जरूरी है ! अकाल के समय सरकार ने बीज बाँटे । जिन्होंने तात्कालिक भूख को ही
महत्त्व दिया उन्होंने बीज खा लिये । एक - दो दिनों की भूख तो मिटी पर भूखमरी वैसी
- की - वैसी रही । जिन्होंने खाने से बोना बेहतर समझा उनका भूख का कष्ट कुछ समय तो
रहा पर फसल हो जाने पर आगे के लिये खुशहाली हो गयी । बीज को खाने से उसे बोना
श्रेष्ठ है क्योंकि तब आगे अधिक उपलब्ध होता है । इसी तरह गुरु से नाम ग्रहण करें
लेकिन उतने से कार्य नहीं होगा , वाक्
द्वारा उसका प्रयोग करना पड़ेगा , जप
, पाठ , अनुष्ठान करना पड़ेगा तभी नाममात्र की अपेक्षा वाक् बड़ा
फल देगी ।
श्री नारायण हरिः !
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