" अभेद - ज्ञान से
सर्वपाशोँ से मुक्ति " -
नारायण । " श्वेताश्वतरश्रुति " कहती है -
" संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः ।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा -
ज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ।। "
( श्वेताश्वतर श्रुति 1 / 5 )
अर्थात् यह जो विश्व क्षर - अक्षररूप और व्यक्त - अव्यक्त रूप है और
जिसमेँ ये मिले हुए रहते हैँ - इसका पालन - पोषण ईश्वर करता है । इसका भोक्ता जो
जीवात्मा है वह अनीश है तथा अपने को भोक्ता समझने के कारण बँधा हुआ है । परन्तु
देव को जानकर यह जीव समस्त पाशोँ से मुक्त हो जाता है । *
तो आईये " नारायण " इस गहन विषय पर विस्तार पूर्वक चर्चा - सतसंग करेँ । श्वेताश्वतर श्रुति के उपरोक्त
मन्त्र को देखे कि कहते है कि परमात्मा का ज्ञान होने से सारे बन्धन छूट जाते हैँ
और जबतक परमात्मा का ज्ञान नहीँ होता है यह जीव अपने को बद्ध अनुभव करता रहता है ।
मन्त्र के अन्तिम भाग मेँ देखे " ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः "- परमात्मा
का ज्ञान हुआ और जिसको ज्ञान हुआ वह सर्व पापोँ से मुक्त हो गया । बद्ध कैसे है ? " भोक्तृभावात्
" अर्थात् भोक्तापन के भाव से यह बद्ध है और जबतक यह बद्ध है तबतक इस बद्ध जीव का और जिससे यह बँधा
हुआ है उसका दोनोँ का संचालन ईश्वर करता है । इसी का नाम व्यवहार हुआ - यह बात मन्त्र मेँ कही गयी है ।
इस मन्त्र का सारांश यह है कि परमात्मा के ज्ञान से मोक्ष होता है और परमात्मा
के अज्ञान से जीव अपने को भोक्ता मानकर बँधा हुआ रहता है , और इसीसे
जिसके साथ वह बँधा हुआ है उस बँधनेवाले को और जिससे बँधा हुआ है उसका - दोनोँ का संचालन,
दोनोँ का नियन्त्रण ईश्वर करता है । मन्त्रका सीधा - सादा भाव पर गौर
से विचार करेँगे तो यह निकल आयेगा । " ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः
" - देव अर्थात् गायत्री मेँ जिसको देव कहा गया है वह " तत् सवितुः वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । " यह परमात्मा देव कैसा है ?
कि दोनोँ जगह बैठा हुआ है । एक तो वह " सविता " है ,
सारी सृष्टि उनने बनाई है - सृष्टि का कर्त्ता हुआ न वह - " भू
र्भुवः स्वः , और " धीयो यो नः प्रचोदयात् " - हमारी
बुद्धि का प्रेरक भी वही है अर्थात् हमारे शरीर मेँ आत्मा भी वही है । ऐसा जो देव है
- देव अर्थात् स्वयंप्रकाश परमात्मा । स्वयंप्रकाश, सर्वावभासक
परमात्मा का नाम देव है । उसको जब जान लेँगे , तब " सर्वपाशैः
मुच्यते " - सर्व फन्दो से छूट जायेँगे ।
ये फन्दे हैँ ब्राह्मणपना का , क्षत्रियपना का , वैश्यपना का , शुद्रपना का । लेकिन ये फन्दे भी अपने
कर्त्तव्य और भोक्तव्य को जब छोटा बना लेते हैँ , कम कर लेते
है तब ये मुक्ति के हेतु होते हैँ । क्या दुनिया भर का भोग हम ही भोगेँ और सब काम हम
ही करेँ? नहीँ , ब्राह्मणोचित कर्म करे
ओर ब्राह्मणोचित भोग भोगेँ । भोग और कर्म को संकुचित करने के लिए जब एक धेरे मेँ बाँध
दिया , तब समझेँ कि अब मुक्ति की ओर चल पड़े । यह ब्राह्मणत्व
का जो बन्धन है वह मुक्ति का प्रथम सोपान है । ब्राह्मणत्व का बन्धन , क्षत्रियत्व का बन्धन , वैश्यत्व का बन्धन , शुद्रत्व का बन्धन - ये अपने को मुक्त करने के साधन हैँ । थोड़े भोग अपने लिए
चाहिए और थोड़े कर्म अपने को करने हैँ- इस घेरे मेँ बन्धने के लिए चार्तुवर्ण निवृत्ति
का प्रथम सोपान है , और जो केवल मानव ही रह गया , अब उसके लिए खान - पानमेँ और काम - धंधे मेँ कोई संकोच न होगा और कोई संकोच
नहीँ होने से वह सब दृष्टि से विकृत होगा । इसीलिए घेरा होता है कि निकले आगे । अब
ब्रह्मचारी होकर रह रहे है कि अब वानप्रस्श होकर रह रहे हैँ , कि अब सन्यासी होकर रह रहे हैँ - अपना घेरा और छोटा - और छोटा - और छोटा हो
गया।
पाश क्या है ? " मुच्यते सर्वपाशैः " - यह सब फन्दे जो हैँ संसार के कि
यह स्त्री है , यह पुत्र है - कोई रस्सी नहीँ लगी रहती है और
पाश कितना प्रवल होता है । दोनोँ को बाँधने वाला , दोनोँ को फँसाने
वाला वह फन्दा कितना प्रवल है ! बाप और बेटे मेँ कोई रस्सी लगी रहती क्या कि बाप को
रस्सी से बाँध कर बेया घसीटे ले जा रहा है कि बापकी रस्सी बेटे के साथ जुड़ी रहती है
? कि नहीँ , यह एक मन का ही फन्दा है ,
इसी को बोलते हैँ - " पाश । " पाश अर्थात् फन्दा । पशुओँ को
फँसाने के लिए , हाथी को फँसाने के लिए , संसार मेँ जो जंगली जानवर होते है उनको फँसाने के लिए - ये शिकारी लोग अपने
कन्धे पर रस्सी का एक फन्दा रखते हैँ और उसको ऐसा फेँकते है कि बस ! जब कोई बैल बिगड़
जाता है तो उसको पकड़ने के लिए पाश होता है , युद्ध के भूमि मेँ
भी पहले पाश का प्रयोग किया जाता था । दूसरे को उसमेँ फँसा लेते थे । पाँव मेँ फन्दा
, गले मेँ फन्दा , यह पाशास्त्र है । इससे
मनुष्य फँस जाता है ।
कहाँ फन्दा है जिससे मनुष्य बँध जाता है ? परमात्मा को न जानने के कारण
अपने को मान लिया छोटा - मोटा और छोटा - मोटा होता है वह तो फँन्दे मेँ फँसता ही है
। हिमालय पहाड़ को कोई फन्दे मेँ थोड़े ही फँसाता है । पर जो एक पथ्थर का टुकड़ा है वह
तो फँस जायेगा । समुद्र मेँ कोई बाँध थोड़े ही लगाते हैँ , वह
तो कोई छोटी - मोटी नदी हो तो बाँध लगाते हैँ । तो परमात्मा को जाने तो पाश से मुक्त
हो जायेँगे ।
" घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमो ।
कुलं शीलं च वित्तं च अष्टोपाशाः प्रकीर्तिताः ।।
ये आठ पाश है । जबतक परमात्मा का ज्ञान नहीँ है तब तक ये मनुष्य को बाँध कर
रखते है । किसी से घृणा होगी कि यह बड़ा गन्दा है , किसी पर शंका होगी कि बाबा ,
यह हमारा नुकसान न कर दे , किसी से भय होगा कि
तो हमको मारने वाला है , किसी से लज्जा आयेगी , किसी के प्रति निन्दा का भाव आयेगा , यह कुल है ,
यह शील है , यह धन - सम्पदा है - ये आठ पाश हैँ
। इन फन्दोँ मेँ फँसा हुआ जीव होता है और जो ज्ञानी होता है वह इन फन्दोँ से मुक्त
" सदाशिव " है - " पाश मुक्तः सदाशिवः । "
प्रश्न यह है कि जाना कि परमात्मा मुक्त है , तो खुद मुक्त
कैसे हो गया ?
श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक है उसका मैँ रोज बचपन मेँ पाठ करता था -
" न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा
।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।। "
भगवान् कर्म से नहीँ बँधते हैँ - यह जाना ओर स्वयं कर्म से छूट गया - इस श्लोक
का अर्थ यही है। परमात्मा के बारे मेँ आप यह जानो कि परमात्मा कर्म - बन्धन और भोग
- बन्धन नहीँ है और आप कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से छूट जायेगेँ । अब यह बताये कि
परमात्मा यदि कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है तो इस बात को जानने वाला कर्म
- बन्धन और भोग - बन्धन से क्योँ मुक्त हो जायेगा ? हम जान लेँ कि यह करोड़पति है
तो क्या हम भी करोड़पति हो जायेँगे ? हम जान लेँ कि यह खेत की
चहारदिवारी के बाहर है तो क्या हम खेत की चहारदिवारी के बाहर हो जायेँगे ? कि नहीँ हो सतते । परमात्मा के बारे मेँ यह जानना कि वह कर्म - बन्धन और भोग
- बन्धन से मुक्त है और स्वयं का कर्म - बन्धन और भोक - बन्धन से मुक्त हो जाना यह
कैसे सम्भव है ?
" न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा
" - " न कर्मफले स्पृहा " अर्थात् भगवान् भोग - बन्धन से मुक्त
हैँ और " न माम् कर्माणि लिम्पनि " अर्थात् भगवान् कर्म - बन्धन से मुक्त
हैँ - लेप नहीँ है और स्पृहा नहीँ है - अर्थात् भोग और कर्म दोनोँ से मुक्त है परमात्मा
। तो,
" इति माम् योऽभिजानाति " - जो मुझे इस रूप मेँ जानता है
- " कर्मभिर्न न स बध्यते " - अर्थात्
वह कर्मो के द्वारा बद्ध नहीँ होता । जानोगे भगवान् को और छुटोगे आप ? यह तभी हो सकता है जब आत्मा और परमात्मा दोनोँ एक होवे । यदि परमात्मा कर्म
- बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त है तो आत्मा भी कर्म - बन्धन और भोग - बन्धन से मुक्त
है ।
" देवं ज्ञात्वा ज्ञानी सर्वपाशैः मुच्यते " - आश्चर्य ! आश्चर्य
!! दुसरे को मुक्त जाना और स्वयं मुक्त हो गये । यह कैसे हो सकता है ? कि जब दोनोँ
एक होँ , तभी हो सकता है। देखेँ " मेरे मित्र " ,
परमात्मा सारी सृष्टि मेँ रहता हुआ भी किसी के मरने से मरता नहीँ,
किसी के जन्मने से जन्मता नहीँ , किसी के दुःखी
होने दुःखी नहीँ होता , किसी के सुखी होने से सुखी नहीँ होता
। सबमेँ रहकर सबसे न्यारा " सदाशिव - परमात्मा " । सचमुच आप भी सबमेँ रहकर
सबसे न्यारे हो । वही तो हो ना आप भी मेरे मित्र ।
" ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः " - यह झूठा फंदा है , यह बाप
- बेटे का फन्दा , पति - पत्नि का फन्दा , भाई - भाई का फन्दा , ये सब झूठे हैँ और परमात्मा जैसे
सबमेँ रहकर सब से न्यारा है , वैसे ही आप भी सबमेँ रहकर सबसे
न्यारे हो , परमात्मा के बारे मेँ आप जानोगे और स्वयं मुक्त हो
जाओगे । नारायण , देखे इसमेँ श्रुतिभगवती ने एकता की बात बतायी
।
तो बँधे क्योँ ? कि " अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावात् " - उसी
परमात्मा को न जानने के कारण यह " आत्मदेव - महाराज " अनीश हो गये । ईश्वर
से जुदा हो गये - " अनीशात्मा " । और भोक्तृभावात् , यह हुआ कि जरा खायेँ - पीयेँ तो मोटे हो रहेँगे , और
नहीँ खाय - तो दुबले हो जायेँगे । ऐसा तो देह को लेकर ही हुआ न ! यह वृत्ति कैसी है
? कि जैसे एक स्त्री होवे और वह यह समझती हो कि हम स्नो - पावडर - लिपिस्टीक
, सब अपने शरीर पर लगावेँगे तब तो सुन्दर रहेँगे , नहीँ तो कुरूप हो जायेँगे , जैसे सहज सौन्दर्य का तिरस्कार
करके वह बनावटी सौन्दर्य को अपनी सुन्दरता का आधार मानती है वैसे ही " आत्मदेव
" परमात्मास्वरूप से तो सहज सुन्दर है , लेकिन यह समझते
हैँ कि हम यह करेँगेँ तो सुन्दर होँगे , यह भोगेँगे तो आनन्दी
होँगे , यह जानेँगे तो ज्ञानी होँगे , यह
भोगेँगे तो अमर हो जायेँगे ! स्वर्ग मेँ जबतक जाकर अमृत नहीँ पीयेँगे तबतक अमर कैसे
होँगे ? और जबतक हमको समाधि का विज्ञान नहीँ मालूम हुआ तबतक ज्ञानी
कैसे होँगे? और जबतक हमारे पास भोग की बहुत - सामग्री इकट्ठी
नहीँ हुई तबतक हम सुखी कैसे होँगे ? स्वयं सुखस्वरूप सुख के लिए
दूसरोँ की मुँह देखता है ! स्वयं ज्ञानरूप और ज्ञान के लिए दूसरे की ओर ताकता है ।
स्वयं अमृतरूप अविनाशी आत्मा और जिन्दा रहने के लिए पदार्थोँ की ओर ताकता है । क्यो
? इसका कारण है कि यह अपने को सत्स्वरूप , ज्ञानस्वरूप
, आनन्दस्वरूप नहीँ जानता है। यही है " अनीशश्चात्मा " ।
" देवं अज्ञात्वा " - उस आत्मा को न जानकर और अपने को दीन मानकर यह हीन हो
गया है । बँधता कैसे है ? " भोक्तृभवात् बध्यते ।
"
" भोक्तृभावात् " - मैँ भोक्ता हूँ । हम भोक्ता है तो भोग की सामग्री
चाहिए । जिस दिन कोई चन्दन लगाने वाला न आवे तो उस दिन सूना दिन मालूम पड़े ; जिस दिन
कोई तार - वार पहनाकर ( माला के साथ रहता है ) नाक - कान काटने का प्रयास न करे उस
दिन मालूम पड़ेगा आज कोई आया ही नहीँ । यह फूल है , यह माला है
, यह चन्दन है , यह खाना है , यह पीना है । इसीका नाम तो भोग है । जब भोक्ता बनकर बैठे तब तो फँसे ही न मेरे
भाईया ? वंशी मेँ मछली क्योँ फँसती है ? कि भोग के कारण- उसके मन मेँ जो वंशी के काँटे मेँ लगा हुआ मांस है
, उसको खाने के भाव से आया और वह फँस गयी और मारी गई बेचारी । चिड़िया
पाश मेँ कैसे फँसी ? ये शिकारी लोग क्या करते है कि कोई छः -
आठ पाव का लकड़ी का बना हुआ पाश होता है , उसी मेँ गोँद लपेट देते
है और कोई उसके बीच मेँ कोई दानेदार खाने की चीज सब रख देते हैँ। जब चिड़िया दाना खाने
जाती है तब उसके पाँव मेँ गोँद चिपक जाता है और वह बेचारी उड़ नहीँ पाती , फँस जाती है । पाश अर्थात् जाल । जाल मेँ मछली कैसे फँसी ? चिड़िया कैसे फँसी ? कि " भोक्तृभावात् " ।
चारा चुनने के लिये भीतर घुसी और फँस गयी महाराज । ऐसे ही जब आप चाहोगे कि आँख रहेगी
तो बढ़िया - बढ़िया देखेँगे और जीभ रहेगी तो बढ़िया - बढ़िया स्वाद चखेँगे , तब आत्मज्ञान कहाँ से होगा मेरे दादा , जब भोग मेँ फँसे रहोगे ? भोक्तापन के भाव से यह आत्मा फँस गया और अब असमर्थ हो गया । अब बन्दर के समान
हो गया । यह कैसे ? जैसे बन्दर को पकड़ने वाले एक छोटे मुँह के
बर्तन मेँ चने - चबेने भरकर बर्तन को धरती मेँ गाड़ देते हैं । अब बन्दर गया और उसने
उस बर्तन मेँ हाथ ड़ाला चना - चबेना निकालने के लिए । जब खाली हाथ होता है तब तो हाथ
घुस गया और अब जब चना हाथ मेँ आ गया और मट्ठी बँध गयी महाराज तब हाँथ नहीँ निकलता है
। चना वह छोड़ता नहीँ और हाथ उसका निकलता नहीँ । इसी बीज मदारी आकर बन्दर को पकड़ लेता
है । इसी प्रकार इस आत्मा ने परमात्मा को भुलाकर भोग जिस हाँड़ीमेँ रखा हुआ है उसमेँ
हाथ डाल लिया और अब छोड़ता नहीँ है । अरे छोड़ दे , छोड़ दे । नहीँ
छोड़ता । तो क्या हुआ कि जिसकी हाँड़िया , उसके हाथ आप लग गये
, अब वह आपको अपने काबू मेँ रखेगा ।
" संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते
विश्वमीशः "
अर्थात् यह क्षर और अक्षर , कार्य और कारण ये दोनोँ एकमेँ मिले
है और ये ही व्यक्त और अव्यक्त हैँ ; इनका भरण पोषण ईश्वर - सदाशिव
करता है । और यह असमर्थ जीवात्मा भी जब किसी भोग की लालच मेँ पड़कर उसमे फँस जाता है
और फिर जब भोग का भाव छोड़कर परमात्मा - सदाशिव को जानता है , तब वह जानता है कि हम बिना भोग के भी रह सकते हैँ , बिना
भोग के हमारी सत्ता है ।
श्री नारायण हरिः ।
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