Saturday, January 29, 2011

" राजा रघु "
नारायण । श्री
एक बार राजा रघु ऐसा ही सर्वमेध यज्ञ कर चुके थे । दान करते
नारायण
राजा रघु कहले लगे
जैसे ही रधु का निर्णय हुआ
नारायण । अन्तमेँ आकर ऋषियोँ ने बीच
नारायण । इस कथा के द्वारा कुछ सूक्ष्म बात भी बता भी जान लेँ ।
हमारे यहाँ
"
कपालं चेतीयत्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।।
" रघु " बड़े प्रतापी राजा हुए । वे इतने प्रतापी थे कि उन्ही के नाम से उनका " वंश " ही चल गया जिसे " रघुवंश " कहा जाता है । जो सर्व विदित है । साक्षात् श्री सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्री विष्णु यद्यपि उनके कुल मेँ उत्पन्न हुए , लेकिन फिर भी वह रामवंश नही कहा गया । उलटा राम का ही नाम रघु से पड़ा , रघु से उत्पन्न राघव , रघुकुलोद्भव , रधुनाथ , राघवेन्द्र , रघुवंशी नाम पड़े । यह राजा रघु की कितनी बड़ी महत्ता बताता है । रघु बड़े दानी थे । आजकल के राजा की तरह ( वर्तमान सरकारोँ ) नहीँ थे । आजकल के राजा का दान तो आप जानते ही हैँ । अगर तीन सौ बीस करोड़ रुपया आप लोगोँ से टैक्स लिया । उनमेँ से दो सौ अस्सी करोड़ रुपया उनके कर्मचारियोँ पर खर्च होता है अर्थात् वह रुपया खुद उन पर ही खर्च होता है जो टैक्स लेते हैँ । बाकी से कुछ सड़के इत्यादि बना दी गई । कहते हैँ कि " प्रजा ( जनता ) का कल्याण कर रहे हैँ " , नारायण , नाम हो रखा है " बैलफेयर स्टेट " ," जनकल्याण मन्त्रालय " अर्थात् जनता का कल्याण करने बाला राज्य , जनता का कल्याण करने बाला महकमा । आपके जितनी बरसोँ की कमाई विद्यमान हैँ , उस सबको लेना अर्थात जो कुछ जनता की सम्पति है उसे " चूँकि हम तुम्हारे उपर राज्य करते हैँ , इसलिये " लूट लेना - इसी का नाम " वेलफेयर " रखा है । लेकिन रघु प्राचीन हिन्दू राजा थे और जनता का कल्याण करते थे । जनकल्याण का अर्थ उन्होँने " जनता से राजा का कल्याण " ऐसा नही समझ रखा था ! जनता का कल्याण हो , उसे वे जनकल्याण मानते थे । आज जनता से जो अपना ज्यादा से ज्यादा कल्याण कर ले , वह उतना ही बड़ा " नेता " हो जाता है । नारायण , राजा रघु ऐसे नही थे , उनका दृष्टिकोण था कि हम अधिक से अधिक जनता का कल्याण करेँ । इसलिये वे बीच - बीच मेँ " सर्वमेध यज्ञ " करते थे जिसमेँ जितनी अपनी सम्पत्ति होती थी , सब दान कर देते थे । दूसरे राज्योँ पर चढ़ाई करके वहाँ से धन लाते थे , यही राजा का उस समय कार्य था , उसी धन के द्वारा " सर्वमेध यज्ञ " करके उसमेँ वह सम्पत्ति सबको बाँट देते थे ।- करते अपने पूजा के बर्तन और अपने सारे वस्त्र भी दान कर दिये थे । नारायण , यह कोई अतिशयोक्ति नही है । नारायण , श्री राजा रघु की बात जाने देँ , आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व होने होने वाले राजा " हर्ष " के बारे मेँ " फाहियान " और " इत्सिंग " लिखते हैँ कि वह हर " कुम्म के मेले मेँ " जाकर अपना सारा खजाना दान कर देता था और अपने वस्त्र तक दान कर के अपनी बहन से वस्त्र का एक खण्ड मांगकर उसे पहन कर वापिस जाता था । हर्ष कान्यकुब्ज नरेश था । जिसने यह देखा , वह राजा रघु के दान पर आश्चर्य नही करेगा । आज कहते हैँ " अपनी बड़ी से बड़ी चीज दान कर दी " फिर भी महलोँ मेँ उनके राग - रंग मेँ कोई फर्क नही पड़ता । यदि बम्बई , दिल्ली या अन्य कहीँ उनके दल का सम्मेलन हो रहा है तो बड़े से बड़े सिनेमा एक्टर और एक्ट्रेसेस को बुलाकर राग - रंग , नाच - गान मेँ करोड़ो रुपया खर्च हो जायेगा और खर्च होने के बाद , जनता को कहेँगे - " अपना - अपना पेट बाँध लेना चाहिये क्योँकि राष्ट्र पर आपत्ति है ! " आज के लोग इसी को जनकल्याण कहते हैँ । राजा रघु ने भी अपना सर्वस्व , बर्तन और वस्त्र तक दान कर दिये । संध्या - वन्दन करने के लिये एक मिट्टी का कुल्हड़ लेकर बैठे थे । नारायण । श्री राजा रघु संध्या - वन्दन करने के लिये केवल एक मिट्टी का कुल्हड़ लेकर बैठे थे । उसी समय एक ब्राह्मण सनातक वहाँ आया । विद्या अध्यन करने के बाद विवाह करने के पूर्व व्यक्ति को " स्नातक " कहते हैँ । उसने आकर राजा को आर्शीवाद दिया । राजा को उपर से निचे देखा और आर्शीवाद दे कर ही चलने लगा । उस स्नातक ब्राह्मण का नाम " कोत्स " था । नारायण , उसे वापिस जाते देख रघु ने पुछा " कोत्स ! किस मतलब से आये थे ? " स्नातक ब्राह्मण कौत्स ने कहा - " किसी मतलब से आया था लेकिन आपको देखकर समझ आ गया कि आपसे मेरा मतलब पूरा होने का नही है । इसलिये वापिस जा रहा हूँ । नारायण , शास्त्रोँ मेँ स्नातक को बड़ा पूज्य माना गया है । नारायण , उस ब्राह्मण स्नातक को राजा रघु हाँथ जोड़ कर कहने लगे " यह तो ठीक नहीँ है कि आप मेरे पास किसी मतलब से आये होँ और मैँ पूरा न कर सकूँ , आप ऐसे हीँ चले जाओ । बताइये तो सही कि बात क्या है ? ब्राह्मण स्नातक कौत्स ने कहा - " जाने दो , राजन् ! आपको सुनकर दुःख होगा । जब रघु ने बार - बार आग्रह किया तब ब्राह्मण स्नातक कौत्स ने कहा - " राजन् ! इसी आग्रह के चक्कर मेँ मैँ फँसा और आप भी फँसोगे , इसलिये हे राजन् । मुझे जाने दो । राजा रघु ने जिद पकड़ ली और कहा " अब तो बता दो हे ब्राह्मण देवता ।, कोत्स ने कहा - " मेरे पिता बड़े गरीब ब्राह्मण हैँ । मुझे गुरु जी के पास पढ़ने के लिये भेज दिया था । अध्ययन समाप्त हो गया । गुरु जी ने कहा तू पढ़ - लिख गया , अब तेरा " स्नातक संस्कार " करते हैँ । बहाँ बाकी राजघरानोँ के भी बच्चे भी थे । नारायण , प्राचीनकाल मेँ राजा और गरीब के बच्चे एक साथ पढते थे । एक साथ भिक्षावृति करते हुये विद्याध्यन करते थे । तब तक समाजवाद का जमाना नही जहाँ प्रधानमंत्री के लड़के आक्सपोर्ट मेँ और आपके लड़के म्युनिस्पैलिटी स्कूल मेँ और मध्यम वर्ग के कान्वेन्ट मेँ पढ़ेँ क्योँकि हम सब समान है । नारायण , यह समाजवाद तब तक नही आया था । अध्यन समाप्त होने पर गुरु ने स्नातक संस्कार कराया । तब फीस होती नही थी । अध्ययन के बाद जिसकी जो सामर्थ्य हो , जिसकी जो इच्छा हो , वह गुरु को देता था । किसी ने बहुत धन दिया , किसी ने थोड़ा दिया , गुरु सामर्थ्य के अनुसार लेते चले गये । मैने गुरु जी से कहा " मै क्या लाऊँ ? तो उन्हे पता था कि मैँ गरीब ब्राह्मण का पुत्र हूँ । कहने लगे जाने दे ! तूने मेरी इतनी सेवा की है , यह क्या कोई कम है । फिर तू ब्राह्मण है , तूझसे क्या लूंगा ? राजन् ! मेरे अन्दर बचपना था । गुरु जी से बार - बार कहा कि " कुछ तो लेलेँ भगवन् । जब मैने इस तरह चार - पाँच बार कहा तो उन्हेँ क्रोध आ गया और कहा - बड़ी दक्षिणा की बात करता है ! मैने तुझे " चोदह विद्याये " पढ़ाई है । जा , चौदह करोड़ सोने की मुद्राये ले आ ! राजन् । मेरा मुँह छोटा हो गया कि यहाँ तो चौदह सौ ताँवे की मुद्रायेँ लाने की सामर्थ्य नही है , फिर सोने की तो बात ही क्या ? मैँ बहाँ से चला । विचार किया कि राजा रघु से ले कर आऊँगा और गुरु जी को देकर उऋण हो जाऊँगा । घर - घर सुना था कि रघु सर्वमेघ याग कर रहे हैँ । मुझे आशा थी कि मुझे भी चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायेँ मिल जायेगी । यहाँ आकर देखा कि आप सर्वस्व दान कर चुके हो । अपना ही बर्तन आपका गायब है एक मिट्टी का कुल्हड़ रख लिया है आतने ।- " स्नातक मेरे द्वार पर आया और लौट जाये , यह नही हो सकता । स्वर्ण मुद्रायेँ दूँगा लेकिन मुझे दो - चार दिन का समय देवेँ ब्राह्मण कुमार । और तब तक आप अतिथिशाला मेँ ठहरेँ , खाने - पीने की सारी व्यवस्था वहाँ है । मैँ कुछ न कुछ इन्तजाम करूँगा , ऐसे नही लौटने दूँगा । कौत्स ने बहुत कहा कि मेरे मन मेँ कोई विकार नहीँ क्योकि आपके पास होता और आप ना करते तो कोई बात थी , लेकिन आपके पास तो है नहीँ । इसलिये मन मेँ कोई बुरा भाव न समझेँ । रधु ने विनती की आप कुछ दिन यहाँ निवास करो । आप चले जायेँगे तो मुझे परम दुःख होगा । कौत्स के मन मेँ बड़ा संकोच हुआ , फिर भी वहीँ ठहर गया । रघु विचार करने लगे कि क्या किया जाये , क्योँकि सर्वस्व दान हो चूका है । नारायण , वह सर्वस्व दान नकली नहीँ हुआ करता था । जितना भी धन कोष मेँ हुआ करता था और जितना भी धन दूसरे लोगोँ से लेना होता था , वह पहले ही ले लिया जाता था । अपने अन्तर्गत दूसरे जितने भी राजा हो सकते थे , उन सबसे ले लेते थे । अतः प्रजा से भी अब कुछ नहीँ लिया जा सकता । अब जबरदस्ती लेना अत्याचार होता । शास्त्र मेँ राजा का छठ्ठा भाग निश्चित किया है । इससे ज्यादा जो लेता है , वह पाप है । जनता से कुछ नहीँ लेना है । इस प्रकार विचार करते - निर्णय किया गया कि इस पृथ्वी मेँ तो अब कही से सम्भावना नहीँ है । देवलोक पर चढ़ाई करके कुवेर को जीतकर कुछ धन लाया जाये । नारायण , यह उस समय राजा की दृष्टि थी । यह राजा नहीँ कि खर्चा बढ़ गया है तो जनता को और चूसो । अरे ! राजा हो , कोई और साधन सोचो ।, वैसे ही आज्ञा हो गई कि " सवेरे ही शस्त्र और रथ तैयार रखना । देवलोक पर चढ़ाई करके वहीँ से कुछ धन लाया जायेगा । उनके रथ सूर्यलोक , स्वर्गलोक तक जाया करते थे । " रघुवंश " मे लिखा है " आनाकरथवत्मानां " उनके रथ इतने प्रतापी थे । यक्षराज धनाध्यक्ष कुवेर को पता लगा तो उसे शर्म आई कि जिसकी ऐसी वृति है कि अपना सर्वस्व दान कर दिया है , वह ब्राह्मण स्नातक के लिये चलकर मेरे पास आये यह शोभा नही देता । इसलिये कुवेर ने उसी समय वहाँ स्वर्ण - वृष्टि कर दी क्योँकि श्री रघु अपने लिये नहीँ वल्कि ब्राह्मण स्नातक गुरुजी को दक्षिणा दे सके इस प्रयोजन से धन चाहते थे । राजा रघु प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त मेँ उठकर स्नान , ध्यान करके बाहर आये तो देखा कि सारा आंगन स्वर्ण से भरा है ! यह देख कर श्री रघु देवताओँ की प्रार्थना करने लगे । जैसे ही प्रातःकाल का प्रकाश हुआ , ब्राह्मण स्नातक कौत्स को बुलाया और उन स्वर्ण मुद्राओँ को दिखा कर कहा कि " ले जाओ । " ब्राह्मण स्नातक ने कहा " मुझे तो चौदह करोड़ ही चाहिये , बाकी नही लूँगा । " लेकिन कुबेर वृष्टि करने लगेँ तो फिर क्या कहना है ! वहाँ से वृष्टि होगी तो गिनकर तो होगी नही । जैसे वर्तमान सरकारे आपको पानी देते हैँ तो पानी के साथ एक मीटर ( पानी मापक यन्त्र ) लगा देते हैँ कि इतने गैलन पानी इतने पैसे लेँगे । नारायण , पानी तक बेचते हैँ । जलदाय विभाग खोल रखा है । नारायण , मैने सुना है पहले - पहल राजस्थान के अन्दर " जोधपुर " मेँ जब पानी देने का यन्त्र तो उस समय जोधपुर के राजा " महाराजा उम्मेद सिंह जी थे । उनसे लोगोँ ने कहा कि " सबको पानी मिलेगा , इसकी व्यवस्था के लिये मीटर ( पानी मापक यन्त्र ) भी आये हैँ । " महाराजा श्री उम्मेद जी बोले " इससे क्या होगा ? " घरोँ मेँ मीटर लगाये जायेँगे उससे पानी का दाम लगेगा । महाराजा श्री उम्मेद सिँह जी ने कहा - " क्या मुझे भिश्ती बनाओगे ? " मैँ तो राजा हूँ । क्या पानी के पैसे लूँगा । जब पानी बरसता है तब " इन्द्रदेव " मीटर नही लगाता , कितना सड़कोँ मेँ बह गया , कहाँ - कहाँ बहा कोई रुकावट नही । इसी प्रकार स्वर्ण -वृष्टि हुई तो गिनती करके नारायण , थोड़े ही होगी । जब उन स्वर्ण मुद्राओँ को गिना गया तो चौदह करोड़ से कई गुना माल था । ब्राह्मण स्नातक कोत्स ने उनमेँ से चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायेँ ले लीँ । राजा श्री रघु ने ब्राह्मण स्नातक कौत्स से कहा- " तुम्हारे निमित्त आया धन मैँ रख लूँ , यह नही हो सकता । आजकल के राजा मेँ क्या यह भाव है ? आज कल जिस निमित्त पैसा आया और पुरा खर्च नही होता किसी कारण तो वह पैसा " लेप्स " हो जाता है । यह लेप्स पैसोँ का क्या होता है , ईश्वर जाने । राजा रधु ऐसे नही थे । वे श्री कौत्स से कहते हैँ तेरे निमित्त ये स्वर्ण मुद्राये आई है तू ले जा । कौत्स ने कहा मैँ तो चौदह करोड़ ही श्री गुरु जी को दक्षिणा देने के लिये लूगाँ । इससे ज्यादा मैँ नही लूंगा । अगर दो चार ज्यादा हो तो ले लेता । मैँ इतना बड़ा दुःख का पहाड़ नही लूँगा । नारायण , बाकी न रघु रखने को को तैयार हो रहे थे और न कौत्स । दोनोँ मेँ बड़ा झगड़ा हुआ । एक कहे तू ले जा दूसरा कहे तू रख ले । नारायण , वाद - विवाद बढ़ गया ।- बचाव किया । ऋषियोँ ने कहा - इस धन को ले जा कर हिमालय मेँ गाड़ दो । ब्राह्मण के निमित्त का धन राजा रखे , यह ठीक नही और बिना मतलब धन एकत्र करके ब्राह्मण बुद्धि भ्रष्ट करे , यह भी ठीक नहीँ । इसलिये इसे गाड़ दो ताकि यह किसी को दुःख न दे । नारायण , वही धन " द्वापर " ओर " कलि की संघि मेँ " युद्धिष्ठिर बहाँ से निकालकर लाये थे । भगवान व्यास को पता था कि इस प्रकार सारा धन गाड़ दिया गया था । चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायेँ कौत्स ने लाकर गुरुजी को दे दिये । कार्य पूरा हो गया । यह राजा रघु की कथा है ।" लघु " शब्द मेँ " " की जगह " " उच्चारण भी मान्य है । इसलिये लधु , रघु दोनोँ का अर्थ एक ही है । वह परब्रह्म परमात्मा ही अपने " लघुभाव " को अर्थात परिच्छिन्नभाव को प्राप्त हुआ है , तब उसे " रघु " कहते हैँ । जब परिच्छिन्नभाव को प्राप्त हो तभी उसे राजा अर्थात् ईश्वर कहेँगे । समष्टि और व्यष्टि मेँ व्यष्टि की अपेक्षा तो समष्टि व्यापक है , लेकिन उस अखण्ड चिन्नमात्र की अनन्तता की अपेक्षा तो वह भी परिच्छिन्न ही है । कारण उपाधि भी उपाधि तो ही है । वह रघु सर्वस्व दान करता है । ईश्वर जीव को सब कुछ देता है , अपने लिये कुछ नही रखता । इस लिये तो वह ईश्वर है । नारायण , रोज श्री शिवमहिम्न का पाठ करते है उसमेँ कहते हैँ -महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः ।"
बुड्ढ़ा बैल
"
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।
, बर्तन की जगह मनुष्योँ की कपाल , लगाने के लिये चिता की भस्म । शिव ने अपने लिये ढ़ंग का कुछ भी नही रखा , फिर भी -सुरास्तां ताम् ऋद्धिं विदधति भवद्भ्रूप्रणिहिताम् ।"
अपने पास कुछ न होते हुए भी सारे ही देवताओँ को ऋद्धियाँ भी वही श्री साम्ब सदाशिव देते हैँ । जिसके पास कुछ नही है वही दे सकता है
उसके पास कौत्स चौदह करोड़ मुद्रायेँ लेने आता है । कौत्स का मतलब है कुछ फेँकना । कौत्स ने भी तो एक तरह से फेँका ही था
"
तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ।।
! जिसको अपने आत्माराम की प्राप्ति हो गई है उसे इस विषयोँ की मृगतृष्णा लोभ मेँ नही ड़ाल सकती । दे वही सकता है जो अपने भोग के लिये नही रखना चाहता । जिसे अपने भोग के लिये चाहिये , नारायण , उसकी समस्या है कि " क्या बतायेँ , महँगाई के जमाने मेँ अपना ही खर्चा पूरा नही पड़ता । खर्जा कभी पूरा नही पड़ना है , चाहे दस लाख कमा लेँ । वह बेचारा कहाँ से देगा , जो खुद ही विषय - मृगतृष्णा मेँ फँसा है । राजा रघु , ईश्वर , सर्वस्व दान कर देता है । यहाँ तक की बर्तन और वस्त्र तक दान कर देता है । केवल मिट्टी का एक कुल्लहड़ लिये हुये बैठा है । , बार - बार गुरु जी को यह कह कर कि " कुछ मांग लो ।" जो जीव अपने गुरु को अर्पण करने के लिये चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राये चाहता है , वह ईश्वर के पास पहुँचता है । इन चौदह चीजोँ की ही अनंत वृतियाँ हैँ - पाँच कर्मेन्द्रिया , पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ , और अन्तःकरण - चतुष्टय ( मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार ) । इन चौदह की अनंत वृतियाँ है । वे अनंत वृतियाँ सारी स्वर्ण होँ , स्वर्ण वाली हो अर्थात शुभ ही होँ । हम सब रोज प्रार्थना करते हैँ " भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः " कान की वृति भद्र होँ , आख की वृति भद्र होँ , कल्याण करने वाली होँ । ये सभी वृतियाँ स्वर्णवत् शुद्ध होँ । मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार सब उसी ईश्वर को विषय करेँ , उससे भिन्न किसी को विषय न करेँ । जीव ईश्वर के पास माँगने पहूँचता है क्योँकि और कौन देगा ? जब पहुँचता है तब कहता है -अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।"
जब पास पहुँचा तो यहाँ अमंगल दिखा
, कपड़ा - लत्ता भी नहीँ । भगवान ने चिन्ता मत कर , " मंगलमसि " , यह भगवान का नाम है । जिसने सारी भद्रवृतियोँ को ईश्वर से माँग लिया । उसका जीवन धन्य है । नारायण । आप सबको अनंत भद्रवृतियोँ की प्राप्ती हो भगवान श्री भूतभावन से प्रार्थना करता हूँ ।
*
श्री नारायण हरिः ।।

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