Tuesday, September 6, 2011

" सद् धर्म सदाचार " -

" सद् धर्म सदाचार " -
चरित्र शुद्धि : अपने देशमेँ या अपनी भारतीय संस्कृति मेँ अपने मनकी वासना पूरी करना - इस बातको महत्त्व नहीँ देते हैँ । महत्त्व देते हैँ चारित्र्यको । अपना चरित्र शुद्ध रहे । तो , अनुशासनके अनुसार चलनेसे चरित्र शुद्ध रहता है और वासनानुसारी होनेसे चरित्र अशुद्ध रहता है । शासनानुसारी और वासनानुसारी दो प्रकारका चरित्र होता है । यदि अपनी - अपनी वासना पूरी करते रह जायेँगे तो अभिमान बढ़ जायेगा , वासनाएँ बड़ जायेँगी , मांगे बढ़ जायेँगी और एक दिन उनके पूरी न होने पर दुःख होगा । दुःखकी सृष्टि बढ़ाने का उपाय है अपनी वासना को बढ़ाना । वस्तुतः कोई एक बड़ा होना चाहिए , जिसके सामने हम अपनी वासना को रोक सकेँ । और जब किसी को बड़ा मानना हो तो अपने पतिको ही अपने से बड़ा मानो । इसीको गौरवका भाव कहते हैँ । आदरका भाव रखना - आदर करेँगे तो आदर पायेँगे । और अनादर करेँगे तो अनादर पायेँगे । जो आपको पाना है वही आपको देना चाहिए । " न तपरस्य संदध्यात् प्रतिकुलं यदात्मनः " । जो बात अपने प्रतिकूल पड़ती हो वह दूसरे के लिए भी नही करनी चाहिए ।
छोटा आदमी बड़ा कार्य : छोटी नदी बड़ी नदी से मिल जाती है तो समुद्रमेँ पहुँच जाती है  । यदि वह स्वतन्त्र पहुँचने की कोशिश करे तो मार्ग मेँ ही सूख जायेगी । इसलिए पहले बड़ी नदीसे मिलकर चलो । छोटी नदी भी पहुँच जायेगी ।
" बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति "
छोटे - से - छोटा आदमी भी बड़ेकी मदत लेकर बड़ा - से बड़ा कार्य कर सकता है ।
" सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगाः " । एक छोटा सा झरना भी महानदी से मिलकर समुद्र तक पहुँच जाती है ।
मातापिताका कर्त्तव्य : मैने सुना है कि इंगलैण्डके राजकुमार जहाजमेँ जैसे कुली कोयला झोँकते हैँ , वैसे आजकल कोयला झोँकनेका काम कर रहे है । ऐसा क्योँ होता है ? इसलिए होता है कि हमारे राजकुमार हैँ ये केवल कोमल - कोमल कामोँके ही अभ्यासी न रह जाँए , भोग - विलासके अभ्यासी न रह जाँये , परिवारके मोहमेँ ही फँसे न रह जाँय - बालक को परिवारसे अलग रखना , परिवारके मोहसे मुक्त रखना , उसको निष्पक्ष बनाना , परिश्रमी बनाना , सेवक बनाना , शिक्षित करना माता - पिताका  परम कर्त्तव्य है । व्यवहार मेँ सरलता : जो दृसरेके मनकी परवाह नहीँ करेगा वह तो कभी भी व्यवहारमेँ सफल नहीँ होगा । कोई मशीनसे तो काम नहीँ लेना पड़ता है कि जो बटन दबाया और काम ले लिया ।  आखिर तो मनुष्यसे काम लेना पड़ता है । उसके मनका ख्याल नहीँ करेँगे तो वह आपके मनका ख्याल क्योँ करेगा ?
विश्वास : जहाँ विश्वास परस्पर नहीँ होगा - वहाँ क्या होगा ? वहाँ सेवा नहीँ होगी , वहाँ आग जलेगी , आग । प्रेम विश्वासमेँ से निकलता है - प्रेमका बाप विश्वास है । जहाँ परस्पर विश्वास होगा वहीँ प्रेम होगा । जो हमसे प्रेम नहीँ करता है , उससे उदासीन होना नहीँ पड़ता है , उससे उदासीनता तो स्वाभाविक हो जाती है ।
श्री नारायण हरिः ।           ]

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