श्री गंगा जी के तट पर ....
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धुंध और बादलोँसे भरा सुन्दर प्रभात था । ठंढी हवा चल रही थी । नन्हे- नन्हे ओस कणोँसे पृथ्वी भीग गयी थी । सर्दियोँकी सुबह थी । मीठी महीन स्वर लहरीके साथ गँगा मन्द गतिसे बह रही थी । गंगाकी पतली महीन धार चाँदीके फीतेकी के भाँति चमक रही थी । एक दिव्य आनन्द और शान्तिकी वर्षा हो रही थी ।
कितनी सुखद और शान्ति पूर्ण सुबह थी ।
मैँ गंगा के तट पर बैठा था । वातावरण इतना शान्त और एकान्त था , कि कुछ कहने - सुनने की स्थिति मे नहीँ था । वाणी मूक थी । दिमाग शान्त था । हृदय गति इतनी धीमी हो गयी थी लगता था मानो हृदय रुक गया है । सांस स्थिर हो गये हैँ । शून्य , एक दम शून्य ।
समाधिका - सा अनुभव । स्थित - प्रज्ञ की सी स्थिति ।
ब्राह्मी स्थितिका सा आनन्द ।
सब कुछ भूल गया था ।
सब कुछ छुट गया था ।
सब कुछ खो गया था ।
सब कुछ बह गया था ।
पहले आँखे खुली थी , फिर बन्द हो गयी । फिर पता नही क्या हुआ ? जागने पर पता चला गंगा तट पर हूँ । क्या सो गया था ? नहीँ । क्या जाग रहा था ? क्या अर्धनिद्रा मेँ था ? नहीँ । अक्सर था क्या ? क्या कहूँ क्या था ? कहने सुननेके परे था । सोने - जागने के
अतिरिक्त था । कुछ नहीँ और सब कुछ था । इस स्थितिको भाषा और शब्द बाँध नही सकते । खुली आँखेँ जो कुछ नजर आता है वह " दृश्य " है । बन्द आँखे जो देखती है ; वह द्रष्टा है । बाहर जगत है , अन्दर जगदीश्वर । बाहर प्रकृति है , भीतर परमात्मा ।
जय जय शंकर हर हर शंकर ।।
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