अमृत विन्दु ।
* एक नियम ग्रहण करेँ जीवनमेँ और कष्ट उठाकर भी उसका पालन करेँ । तब तपस्या हो जायगी ।
दुश्चरित्रताकी निवृतिके लिए धर्म को धर्म को धारण करेँ , वासनाकी निवृत्तिके लिए उपासना करेँ । राग - द्वेषकी निवृतिके लिए भक्ति करेँ । अभिमानके निवृतिके लिए शरणागति लेँ । अज्ञानकी निवृतिके लिए ज्ञान मार्ग पर चलेँ ।
* अज्ञान क्या है ? अपनेसे दूर किसी वस्तुको ढूँढना , उसका आदि - अन्त ढुँढना - दिशामेँ , वस्तुमेँ -यह बिल्कुल अज्ञान है । तब ज्ञान कहाँ है ? आप जहाँ बैठे हैँ बहीँ से आपका पूर्व शुरु होता है । हमारे दाहिने पूर्व है तो हमारे बायेँ पश्चिम है ।
* जब आप बाहर ढूँढने जायेँगे तो कहीँ आदि - अन्त नहीँ मिलेगा और जब अपने पास लौट आवेँगे तो इनका आदि - आपको अपने आप मिल जायेगा ।
* ईश्वरकी शरणागतिका अर्थ है - पूर्व , पश्चिम , उपर - निचे भटकना नही , अपने घर मेँ आजाना ।
* बात - बातमेँ तो चिढ़ते हैँ आप शान्ति कहाँसे मिलेगी , चिढ़ना छोड़देँ शान्ति आपके आगे खड़ी है । अपने मनकी तो जिद्द किये बैठेँ है , आपको शान्ति कहाँसे मिलेगी , जिद्द छोड़देँ शान्ति आपके पास खड़ी है । दूसरे को तो आप बेबकुफ समझते हैँ अपनेको समझदार समझते है आपको शान्ति कहाँसे मिलेगी ? आत्म निरिक्षण बाली जो दृष्टि है बह हमारे जीवन मेँ आनी चाहिए ।
नारायण । नारायण ।।
हरि । हरि ।।
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