" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 1 )श्रीगुरु " तार " अथवा प्रणव अथवा ॐकार की मूर्ति है । ॐकार की जो तीन मात्रा - अ . उ , एवं म् हैँ , यदि प्रस्न्न हो तो शिष्य के जो त्रिविध मल हैँ - अर्थात् स्थूल , सूक्ष्म , व कारण मल , अथवा जो अणु , तनु एवं पृथु मल , अथवा तन्त्रोक्त आणवादिक मल - इत्यादि संज्ञाओँ से निर्दिष्ट मल हैँ - उन त्रिविध मलोँ का नाश कर देती है ; तथा अन्नमय . प्राणमय , मनोमय एवं आनन्दमय - इन पञ्चकोशोँ की जड़ता का परिहार घटित करके जो अति विशुद्ध ब्रह्मवचर्यस् अथवा तेज है , उसे प्रकाशित कर देती है । ओँकार की जो अर्द्धमात्रा है , वह व्यक्त से अव्यक्त तत्त्व की ओर ले जाने के लिये सेतु - स्वरूपिणी है । इस अर्द्धमात्रा का आश्रय लिये बिना किसी प्रकार भी परम अव्यक्त तत्त्व मेँ प्रवेश नहीँ पाया जा सकता । एक ओर व्यक्त रूप जो अ , उ , म् - इस त्रिमात्रा द्वारा गृहित होता है और दूसरी ओर परम अव्यक्त जो अमात्र या मात्रातीत है अर्थात् जो किसी मात्रा द्वारा गृहित नही होता - इन्हीँ दोनोँ के मध्यस्थल मेँ अवस्थित है ॐकार की अर्द्धमात्रा । यह नित्य एवं विशेषरूपेण अनुच्चार्य है । यह दोनोँ का संयोगकारक सेतु है । अर्थात् इसका आश्रय लेने पर ही व्यक्त से अव्यक्त लाभ होता है ।ॐकार मेँ छन्दः , प्रयोग आदि सब है एवं उसी से उत्पन्न ब्रह्माण्ड सम्पुटित रहता है - इस प्रकार कही जाने वाली जो ॐकार शक्ति है , वह सामान्य को दृष्टिगोचर नहीँ होती , किन्तु यह श्रीगुरुरूप मेँ प्रकट जो प्रणवमूर्ति है , वह नियत यशोमण्डित है - उसमेँ समस्त शक्तियाँ सम्यक रूप से प्रस्फुटित हैँ - वे सर्वलोकनयनगोचर हो कर अपनी अनन्त महिमा का स्थापन करते हैं । ॐकार का यह प्रकृत ( गुरुरूप ) स्वरूप मात्रातीत अथवा अमात्र है । इस मात्रातीत स्वरूप को अक्षुण रखते हुए ही वह ( ओँकार ) त्रिमात्रा एवं अर्द्धमात्रा मेँ क्लृप्त अथवा कल्पित है ।जय जय शंकर ।कामकोटी शंकर
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