" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 5 ) समाप्त ।
नारायण । अनन्त जन्मार्जित कर्मो के गुरु - भार से शिष्य जब बिल्कुल अतल जलधि - जल मेँ डूब रहा होता है , घोरता , मुढ़ता प्रभृति गुणोँ के द्वारा यह कर्मभार जब क्रमशः वृद्धि को पार होता रहता है , तब प्रलय - पयोधि - जल मेँ पृथ्वी के मग्न हो जाने के समय श्रीभगवान् ने - " वराहरूप " मेँ अवतीर्ण होकर द्रंष्टा ( दाँत ) द्वारा वसुन्धरा को ऊर्ध्व मेँ धारण किया था , वैसे ही श्रीगुरु भी गुरु -भाराक्रान्त पृथ्वी की भाँति अनन्त भाराक्रान्त शिष्य को " लीलया " अर्थात् अनायास अथवा करुणावशतः उर्ध्व मेँ धारण करते हैँ ।
पुनः श्रीगुरु श्रुति - पथ मेँ " बीजमन्त्र " धारण करते हैँ । इस मंत्र से ही आत्मचैतन्य उद्भासित होता है । " मीन अवतार " मेँ जैसे भगवान् समस्त पृथ्वी का बीज धारण किया था एवं उसी से समस्त पृथ्वी पुनः आविर्भूत हुई थी , श्रीगुरु भी उसी प्रकार इस बीजमन्त्र को धारण करते हैँ और उसे शिष्य के श्रुति - पथ का गोचर बनाते हैँ । एवं इस बीज से भी मूलतत्त्व आविर्भूत होता है । ( यहाँ पृथ्वी " earth " नहीँ है ) । आत्मवस्तु सर्वदा ही विद्यमान है , तथापि उसका मानो बीजमन्त्र से आविर्भाव होता है । उपलब्धि ही उसका आविर्भाव है । समस्त सृष्टि भी बीजाकार मेँ रहती है , बाद मेँ इस बीज से पुनः आविर्भूत होती है ।
नारायण । फिर " कूर्मावतार " मेँ जैसे श्रीभगवान् ने समुद्र मन्थन के समय " मन्थनदण्ड " धारण किया था , श्रीगुरु भी उसी प्रकार ब्रह्मवर्च्चस् - प्राप्ति के निमित्त शिष्य के आत्मा के मन्थन करने का दण्ड स्वयं धारण किये रहते हैँ ।
श्रीनृसिँहावतार मेँ श्रीभगवान् ने जैसे " हिरण्यकशिपु " को विदीर्ण करके पृथिवी का पाप - हरण किया था , वैसे ही श्रीगुरु भी शिष्य के क्लेश - व्युह अर्थात् अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश - इस पञ्चक्लेश की समष्टि का निःशेष रूप से विनाश करते है ।
अन्त मेँ " श्रीवामनावतार " मेँ श्रीभगवान् ने उरुक्रम - रूप से जैसे बलि के यज्ञ का भरण किया था , उसी प्रकार श्रीगुरु भी शिष्य का " उरु " अर्थात् विस्तीर्ण पद अर्थात् अभ्युदय - लाभ के लिये जो " मख " अर्थात् यज्ञ है उसका भरण या पालन किया करते हैँ ।
।। ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः ।।
समाप्त ।
श्री नारायण हरिः ।
पुनः श्रीगुरु श्रुति - पथ मेँ " बीजमन्त्र " धारण करते हैँ । इस मंत्र से ही आत्मचैतन्य उद्भासित होता है । " मीन अवतार " मेँ जैसे भगवान् समस्त पृथ्वी का बीज धारण किया था एवं उसी से समस्त पृथ्वी पुनः आविर्भूत हुई थी , श्रीगुरु भी उसी प्रकार इस बीजमन्त्र को धारण करते हैँ और उसे शिष्य के श्रुति - पथ का गोचर बनाते हैँ । एवं इस बीज से भी मूलतत्त्व आविर्भूत होता है । ( यहाँ पृथ्वी " earth " नहीँ है ) । आत्मवस्तु सर्वदा ही विद्यमान है , तथापि उसका मानो बीजमन्त्र से आविर्भाव होता है । उपलब्धि ही उसका आविर्भाव है । समस्त सृष्टि भी बीजाकार मेँ रहती है , बाद मेँ इस बीज से पुनः आविर्भूत होती है ।
नारायण । फिर " कूर्मावतार " मेँ जैसे श्रीभगवान् ने समुद्र मन्थन के समय " मन्थनदण्ड " धारण किया था , श्रीगुरु भी उसी प्रकार ब्रह्मवर्च्चस् - प्राप्ति के निमित्त शिष्य के आत्मा के मन्थन करने का दण्ड स्वयं धारण किये रहते हैँ ।
श्रीनृसिँहावतार मेँ श्रीभगवान् ने जैसे " हिरण्यकशिपु " को विदीर्ण करके पृथिवी का पाप - हरण किया था , वैसे ही श्रीगुरु भी शिष्य के क्लेश - व्युह अर्थात् अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश - इस पञ्चक्लेश की समष्टि का निःशेष रूप से विनाश करते है ।
अन्त मेँ " श्रीवामनावतार " मेँ श्रीभगवान् ने उरुक्रम - रूप से जैसे बलि के यज्ञ का भरण किया था , उसी प्रकार श्रीगुरु भी शिष्य का " उरु " अर्थात् विस्तीर्ण पद अर्थात् अभ्युदय - लाभ के लिये जो " मख " अर्थात् यज्ञ है उसका भरण या पालन किया करते हैँ ।
।। ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः ।।
समाप्त ।
श्री नारायण हरिः ।
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