" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 2 )
श्रीगुरु की जो दिव्य अंगगन्ध है , वह समस्त इन्द्रियवर्ग के जो स्थूल व सूक्ष्म भोग्य हैँ , उन्हे शुद्ध करती है । जो अन्न - रूप मेँ खाया या पीया जाता है , केवल वही नहीँ , अन्यान्य इन्द्रयोँ द्वारा भी जितका आहरण किया जाता है , वह समस्त आहार ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध द्वारा शोधित हो जाता है । समस्त इन्द्रियवर्ग की आहारशुद्धि ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध के आस्वादन का फल है , यह क्षितितत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरू के वदनकमल का जो मधुर हास्य है , उनके नयनकमल की जो प्रसन्न ( प्रसादमय ) दृष्टि है , उनके मुखकमलावयव की जो स्निग्ध , शान्त , मधुर भङ्गी है - ये सभी जिस अमृतरस का क्षरण करते रहते हैँ , उसके द्वारा शिष्य आचार शुद्ध हो जाता है । एवं तब वह साधु , शोभन अनुष्ठान करने मेँ प्रवृत्त होता है । श्रीगुरु की परम सुन्दर , परम रमणीय , शुद्ध , मधुर , विमोहन भङ्गी के दर्शन से प्राण पुलकित एवं शुद्ध होते हैँ । प्राणशुद्धि के फल से समस्त आचार , अनुष्ठान पवित्र हो जाते हैँ । जिसने एक बार श्रीगुरु के मुखकमल से क्षरित अमृत - रस - कणोँ के पान का आस्वादन पाया है , उसके द्वारा अब असाधु , अशोभन कर्म अनुष्ठित हो ही नहीँ सकते । यह अप् ( जल ) तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु का विश्वविमोहन रूप जिसके मन मेँ प्रतिफलित होता है , जो सर्वदा उसी मनोहर मूर्ति का ध्यान करता है , जिसका चित्त उसी शुद्ध अपापविद्ध परम पवित्र मूर्ति द्वारा सर्वता भरित रहता है , उसके विचार व चित्त शुद्ध हो ही जाते हैँ । अन्य कोई भी चिन्ता या विचार उसके मन मेँ स्थान पाता ही नहीँ । श्रीगुरु की विशुद्ध मूर्ति के ध्यान मेँ उसका मन निविष्ट रहता हुआ पवित्र हो जाता है । यह " तेजस " तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु के मुखनिःसृत वाक्योँ द्वारा शिष्य की " धी " अथात् बुद्धि बढ़ती है । श्रीगुरु ही सर्व - " धी " अर्थात् बुद्धि साक्षी है । श्रीगुरु के वाक्य द्वारा , उपदेश द्वारा शिष्योँ की बुद्धि सत्पथ पर चालित होती है । श्रीगुरु का वाक्य ही " महामन्त्र " है । " मन्त्रमूलं गुर्रोवाक्यम् । श्रीगुरु का वाक्य , उनका उपदेश हृदय मेँ रह कर बुद्धि का प्रेरक बनता है । बुद्धि को शुद्ध करने मेँ , प्रस्फुटित करने मेँ श्रीगुरुवाक्य की भाँती शक्तिधर और कोई नहीँ है । श्रीगुरु का वाक्य हृदय मेँ धारण करने से बुद्धि विपथ पर चालित या प्रचारित नहीँ हो सकती । इसीलिए श्रीगुरुवाक्य ही आचारशुद्धि का हेतु है । बुद्धि के पार जो परमतत्त्व है , उसकी उपलब्धि का उपाय भी गुरुवाक्य से ही होता है । यह " आकाव - तत्त्व " की शुद्दि है ।
किन्तु उसके पूर्व , " श्रीगुरुपादपद्म " का दिव्य स्पर्श शिष्य के सर्वाङ्ग मेँ " आनन्दलहरी " उत्पन्न कर देता है । श्रीचरणस्पर्शमात्र से ही शिष्य मानो एक दिव्य आनन्द , एक मधुर सिहरन , एक दिव्य पुलक का अनुभव करता है । माने की एक शक्ति का संचार इस स्पर्श के फलस्वरूप धटित होता है । जीव की स्वाभाविक आनन्दमात्रा के पोषण और परिपूरण मेँ यह सर्वोतम है , यही " वायुतत्त्व " की शुद्धि है ।
यद्यपि श्रीगुरु की यह अङ्गगन्ध , मुखपद्म के अमृतरस - कण , अपरूप रूप , शुद्ध शान्त हृत्कर्ण - रसायन शब्द एवं आनन्दमय स्पर्श - आहार , आचार , विचार , प्रचार व संचार की पंचविध शुद्धि करते हैँ . तथापि परमार्थतः , श्रीगुरु अशब्द , अस्पर्श , अरूप . अगन्ध , अरस अर्थात् ब्रह्माभिन्न ब्रह्मस्वरूप ही है । इससे मूलशुद्धि अर्थात् मूला अविद्या की शुद्धि होती है । श्रीगुरु -तत्त्व मेँ शुद्ध सच्चिदानन्द तत्त्व का पर्यवसान होने पर भी श्रीगुरु भगवान् के प्रतित्रय अर्थात् अपरा , परा और परमा , शक्तित्रय अर्थात् अन्तरंगादि के त्रिवेणीसंगम हैँ ।
* श्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् *
सर्वज्ञ शङ्कर । कामकोटी शङ्कर ।।
जय जय शंकर । कालटी शंकर ।।
श्रीगुरु की जो दिव्य अंगगन्ध है , वह समस्त इन्द्रियवर्ग के जो स्थूल व सूक्ष्म भोग्य हैँ , उन्हे शुद्ध करती है । जो अन्न - रूप मेँ खाया या पीया जाता है , केवल वही नहीँ , अन्यान्य इन्द्रयोँ द्वारा भी जितका आहरण किया जाता है , वह समस्त आहार ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध द्वारा शोधित हो जाता है । समस्त इन्द्रियवर्ग की आहारशुद्धि ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध के आस्वादन का फल है , यह क्षितितत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरू के वदनकमल का जो मधुर हास्य है , उनके नयनकमल की जो प्रसन्न ( प्रसादमय ) दृष्टि है , उनके मुखकमलावयव की जो स्निग्ध , शान्त , मधुर भङ्गी है - ये सभी जिस अमृतरस का क्षरण करते रहते हैँ , उसके द्वारा शिष्य आचार शुद्ध हो जाता है । एवं तब वह साधु , शोभन अनुष्ठान करने मेँ प्रवृत्त होता है । श्रीगुरु की परम सुन्दर , परम रमणीय , शुद्ध , मधुर , विमोहन भङ्गी के दर्शन से प्राण पुलकित एवं शुद्ध होते हैँ । प्राणशुद्धि के फल से समस्त आचार , अनुष्ठान पवित्र हो जाते हैँ । जिसने एक बार श्रीगुरु के मुखकमल से क्षरित अमृत - रस - कणोँ के पान का आस्वादन पाया है , उसके द्वारा अब असाधु , अशोभन कर्म अनुष्ठित हो ही नहीँ सकते । यह अप् ( जल ) तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु का विश्वविमोहन रूप जिसके मन मेँ प्रतिफलित होता है , जो सर्वदा उसी मनोहर मूर्ति का ध्यान करता है , जिसका चित्त उसी शुद्ध अपापविद्ध परम पवित्र मूर्ति द्वारा सर्वता भरित रहता है , उसके विचार व चित्त शुद्ध हो ही जाते हैँ । अन्य कोई भी चिन्ता या विचार उसके मन मेँ स्थान पाता ही नहीँ । श्रीगुरु की विशुद्ध मूर्ति के ध्यान मेँ उसका मन निविष्ट रहता हुआ पवित्र हो जाता है । यह " तेजस " तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु के मुखनिःसृत वाक्योँ द्वारा शिष्य की " धी " अथात् बुद्धि बढ़ती है । श्रीगुरु ही सर्व - " धी " अर्थात् बुद्धि साक्षी है । श्रीगुरु के वाक्य द्वारा , उपदेश द्वारा शिष्योँ की बुद्धि सत्पथ पर चालित होती है । श्रीगुरु का वाक्य ही " महामन्त्र " है । " मन्त्रमूलं गुर्रोवाक्यम् । श्रीगुरु का वाक्य , उनका उपदेश हृदय मेँ रह कर बुद्धि का प्रेरक बनता है । बुद्धि को शुद्ध करने मेँ , प्रस्फुटित करने मेँ श्रीगुरुवाक्य की भाँती शक्तिधर और कोई नहीँ है । श्रीगुरु का वाक्य हृदय मेँ धारण करने से बुद्धि विपथ पर चालित या प्रचारित नहीँ हो सकती । इसीलिए श्रीगुरुवाक्य ही आचारशुद्धि का हेतु है । बुद्धि के पार जो परमतत्त्व है , उसकी उपलब्धि का उपाय भी गुरुवाक्य से ही होता है । यह " आकाव - तत्त्व " की शुद्दि है ।
किन्तु उसके पूर्व , " श्रीगुरुपादपद्म " का दिव्य स्पर्श शिष्य के सर्वाङ्ग मेँ " आनन्दलहरी " उत्पन्न कर देता है । श्रीचरणस्पर्शमात्र से ही शिष्य मानो एक दिव्य आनन्द , एक मधुर सिहरन , एक दिव्य पुलक का अनुभव करता है । माने की एक शक्ति का संचार इस स्पर्श के फलस्वरूप धटित होता है । जीव की स्वाभाविक आनन्दमात्रा के पोषण और परिपूरण मेँ यह सर्वोतम है , यही " वायुतत्त्व " की शुद्धि है ।
यद्यपि श्रीगुरु की यह अङ्गगन्ध , मुखपद्म के अमृतरस - कण , अपरूप रूप , शुद्ध शान्त हृत्कर्ण - रसायन शब्द एवं आनन्दमय स्पर्श - आहार , आचार , विचार , प्रचार व संचार की पंचविध शुद्धि करते हैँ . तथापि परमार्थतः , श्रीगुरु अशब्द , अस्पर्श , अरूप . अगन्ध , अरस अर्थात् ब्रह्माभिन्न ब्रह्मस्वरूप ही है । इससे मूलशुद्धि अर्थात् मूला अविद्या की शुद्धि होती है । श्रीगुरु -तत्त्व मेँ शुद्ध सच्चिदानन्द तत्त्व का पर्यवसान होने पर भी श्रीगुरु भगवान् के प्रतित्रय अर्थात् अपरा , परा और परमा , शक्तित्रय अर्थात् अन्तरंगादि के त्रिवेणीसंगम हैँ ।
* श्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् *
सर्वज्ञ शङ्कर । कामकोटी शङ्कर ।।
जय जय शंकर । कालटी शंकर ।।
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