" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 3 ) -
" श्रीगुरुः " इनमेँ पाँच वर्ण हैँ । श्री , ग् , उ , र , उ , एवं विसर्ग । उपरोक्त दोनोँ " उ " को एक ही वर्ण मानना होगा । " गकार " का उच्चारण स्थान है जिह्वामूल । यह क्या सूचित करता है ? मूल से भ्रष्ट जो दीन लोग हैँ ( जीव ) की वाक् , बुद्धि और प्राण के मूल मेँ जो श्रुतिसिद्ध आत्म तत्त्व स्थित है , उस आत्मतत्त्व की प्राप्ति करता है यह " गवर्ण " है , और " रकार " का उच्चारण स्थान " मूर्धा " है इसलिए यह मानेँ कि बताता है कि " गुरु " - शब्दस्थ रकार क्षयशील विषय मेँ तृष्णायुक्त , अथवा जिसकी तृष्णा क्षय - प्रवण हो गयी है , ऐसे कातर जीव को मूर्धास्थित तेज वा प्रकाश द्वारा संजीवित करता है । और दोनोँ " उकारो " मेँ से एक , मोह के मूल मेँ जो अविद्या है , उसे उत्पाटित करता है , अर्थात् समूल विनाश करता है , और दूसरा " उकार " जो है वह मिमल ज्ञान का उदय कराता है । एक उकार द्वारा अज्ञान का उच्छेद और दूसरे उकार द्वारा ज्ञान का उदय समझना चाहिए । इसके द्वारा एकभक्तिरूप जो उत्कृष्ट ज्ञान है उसे भी समझना होगा । उकार की यह द्विविध वृति है । उकार का उच्चारण स्थान है " ओष्ट " । इस " ओष्ठ " के द्वारा ही सभी वर्ण नियन्त्रित है । अर्थात् ओष्ठ के द्वारा किसी - किसी स्थल मेँ वर्ण छिन्न ( inhibited ) होते हैँ , एवं उसके द्वारा ही वर्ण का बहिःप्रकाश का उदय ( exhibition या expression ) भी होता है । ओष्ठ हमारे मुख मेँ मानो वाल्ब ( valve ) की तरह काम करता है - सब कुछ की गतागति मानो यही नियन्त्रित करता है ।
और मेँ " श्री " शब्द , जो शीर्णता के कारण श्रीहीन हो गया है उसे श्रीसम्पन्न सौन्दर्यमण्डित कर देता है - यही समझाता है । और " श्रीगुरुः " पद मेँ सबके अन्त मेँ जो विसर्ग - ( : ) है , उसके द्वारा समस्त प्रपञ्च का उपशमात्मक परम उपरम वा " शान्तं शिवम् अद्वैतम् " रूप परम तत्त्व सूचित होता है । तदनुसार " श्रीगुरुः " पद के पाँच वर्ण -
* मूलतत्त्वप्रापण ( गमयति ) ।
* तेजःसञ्चार वा बलाधान ।
* अज्ञान का उच्छेद एवं ज्ञान का उदय ।
* अभ्युदय ( श्री ) ।
* निःश्रेयस् ( विसर्ग ) ।
इन पाँच को सूचित करते है । " श्रीगुरुः " शब्द मेँ ही इतना अपूर्व रहस्य है ।
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।
कामकोटी शंकर । काँची शंकर ।।
सर्वज्ञ शंकर । कालटी शंकर ।।
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।
श्रीजयेन्द्रगुरुभ्यो नमः ।
" श्रीगुरुः " इनमेँ पाँच वर्ण हैँ । श्री , ग् , उ , र , उ , एवं विसर्ग । उपरोक्त दोनोँ " उ " को एक ही वर्ण मानना होगा । " गकार " का उच्चारण स्थान है जिह्वामूल । यह क्या सूचित करता है ? मूल से भ्रष्ट जो दीन लोग हैँ ( जीव ) की वाक् , बुद्धि और प्राण के मूल मेँ जो श्रुतिसिद्ध आत्म तत्त्व स्थित है , उस आत्मतत्त्व की प्राप्ति करता है यह " गवर्ण " है , और " रकार " का उच्चारण स्थान " मूर्धा " है इसलिए यह मानेँ कि बताता है कि " गुरु " - शब्दस्थ रकार क्षयशील विषय मेँ तृष्णायुक्त , अथवा जिसकी तृष्णा क्षय - प्रवण हो गयी है , ऐसे कातर जीव को मूर्धास्थित तेज वा प्रकाश द्वारा संजीवित करता है । और दोनोँ " उकारो " मेँ से एक , मोह के मूल मेँ जो अविद्या है , उसे उत्पाटित करता है , अर्थात् समूल विनाश करता है , और दूसरा " उकार " जो है वह मिमल ज्ञान का उदय कराता है । एक उकार द्वारा अज्ञान का उच्छेद और दूसरे उकार द्वारा ज्ञान का उदय समझना चाहिए । इसके द्वारा एकभक्तिरूप जो उत्कृष्ट ज्ञान है उसे भी समझना होगा । उकार की यह द्विविध वृति है । उकार का उच्चारण स्थान है " ओष्ट " । इस " ओष्ठ " के द्वारा ही सभी वर्ण नियन्त्रित है । अर्थात् ओष्ठ के द्वारा किसी - किसी स्थल मेँ वर्ण छिन्न ( inhibited ) होते हैँ , एवं उसके द्वारा ही वर्ण का बहिःप्रकाश का उदय ( exhibition या expression ) भी होता है । ओष्ठ हमारे मुख मेँ मानो वाल्ब ( valve ) की तरह काम करता है - सब कुछ की गतागति मानो यही नियन्त्रित करता है ।
और मेँ " श्री " शब्द , जो शीर्णता के कारण श्रीहीन हो गया है उसे श्रीसम्पन्न सौन्दर्यमण्डित कर देता है - यही समझाता है । और " श्रीगुरुः " पद मेँ सबके अन्त मेँ जो विसर्ग - ( : ) है , उसके द्वारा समस्त प्रपञ्च का उपशमात्मक परम उपरम वा " शान्तं शिवम् अद्वैतम् " रूप परम तत्त्व सूचित होता है । तदनुसार " श्रीगुरुः " पद के पाँच वर्ण -
* मूलतत्त्वप्रापण ( गमयति ) ।
* तेजःसञ्चार वा बलाधान ।
* अज्ञान का उच्छेद एवं ज्ञान का उदय ।
* अभ्युदय ( श्री ) ।
* निःश्रेयस् ( विसर्ग ) ।
इन पाँच को सूचित करते है । " श्रीगुरुः " शब्द मेँ ही इतना अपूर्व रहस्य है ।
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।
कामकोटी शंकर । काँची शंकर ।।
सर्वज्ञ शंकर । कालटी शंकर ।।
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।
श्रीजयेन्द्रगुरुभ्यो नमः ।
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