Monday, September 5, 2011

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 4 )

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 4 )

 
तो आइए नारायण । थोड़ा गुरु - शक्ति पर बात करे - नारायण । गुरु - शक्ति पराङ्मुखी अथवा बर्हिमुखी समस्त वृत्तियो को पत्यङ्गमुखि अथवा अन्तर्मुखी कर के शिष्य को धीर बना देती है . जिससे वह बाहर के विषयोँ मेँ आवृतचक्षुः अर्थात् ढ़की हुई आँख वाला हो कर अन्तराआत्मा का , प्रत्यगात्मा का दर्शन करने मेँ समर्थ होता है , एवं अमृत्व - लाभ कर सकता है । बाहर बहुदिशाओँ मेँ प्रसारित , बहु - विषयोँ मेँ प्रधावित . शक्ति - विषय को शिष्यरूप मेँ अङ्गीकार करते ही वे उसे परम प्रसन्न , ब्रह्मानन्द के अनुभव योग्य बना देती है । शिष्य - रूप मेँ इस स्वीकार का प्रतिग्रह के द्वारा इस अङ्गीकार के लेशमात्र द्वारा ही त्रिविधताप - क्लिष्ट दुःखतप्त जीव को वे सर्वोत्तम " भजनानन्द " एवं अपार " ब्रह्मानन्द " के अनुभव योग्य बना देते हैँ । यही उनकी " प्रतिग्रह " - शक्ति की महिमा है ।
श्रीगुरु अपने " विग्रहशक्ति " द्वारा मूर्त हो कर प्रकट रूप मेँ दिखाई दे कर , अर्थात् देह - रूप - विग्रह - धारी बन कर मूर्त वा स्थूल घट - पट आदि विषय को अर्मूत परम - तत्त्व मेँ लीन वा लय करा देते हैँ । स्वयं स्वरूतः अमूर्त होते हुए भी मूर्ति धारण कर के , आकर , मूर्त को अमूर्त मेँ ले जाने का कारण बनते हैँ । ऐसा ही उनका मूर्ति धारण का विचित्र रहस्य है । जो मूर्ति वे धारण करते है वह भी अमायिक , अप्राकृत है ।
मूर्त विग्रह के रूप मेँ उनका यह जो अवतरण है , यही उनकी " परिग्रशक्ति " है । श्रीभगवान के अवतार - रूप - परिग्रह नैमित्तिक हैँ , किन्तु श्रीगुरु विग्रह - रूप मेँ अवतरण नित्य है ।
उनका संग्रह , प्रतिग्रह . विग्रह . परिग्रह - सभी कुछ उनकी करुणा है ।
परम शिव के मस्तक से माँ गङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ , किन्तु शिव की प्रकटमूर्ति श्रीगुरु के श्रीचरण से ही गंङ्गा का उद्भव है । हर - जटाजाल से तो एक ही गङ्गा की उत्पत्ति है , और साक्षात् शंकर - मूर्ति श्रीगुरु के श्री - पाद पद्म से पंचगङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ है । संग्रह , प्रतिग्रह , विग्रह , परिग्रह और अनुग्रह - यह पञ्चशक्तिरूपा पञ्चगङ्गा , श्रीगुरु की यह शक्तिधारा परमपावनी मन्दाकिनी धारा के समान ही शुद्ध करने वाली है ।
।। श्रीआचार्य चरणकमलेभ्यो नमः ।।
श्री नारायण हरिः ।

।। श्रीआचार्य च

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