दुःखी कौन ? - " प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् " -
" दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत्
। " -
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 76 }
वार्तिककार आचार्य
सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धः नामक ग्रन्थ में कहते है -
" दुःखि यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत्
। "
कितनी सुन्दर बात
हमारे आचार्य जी कह रहे हैं - यदि आत्मा दुःखी होता , तो
" मैं दुःखी हूँ " या "
मैं दुखी था " - इसका गवाह कौन है ?
इसका साक्षी कौन है ? क्योंकि , किसी वस्तु की सिद्धि दो तरह से होती है । अदालत में मुकदमा जाये तो जज को
दो चीज चाहिए - एक तो लिखन्त दस्तावेज हो और दूसरे , गवाह {
साक्षी } चाहिए । शास्त्र तो दस्तावेज हैं ,
निर्णय करने के लिए लिखित प्रमाण है और फिर साक्षी भी चाहिए । तो ,
देखिए मेरे भाई , यदि दूसरे के बारे में कोई
बात जाननी हो तो जैसी लिखी हो , वैसा मानना पड़ेगा और अपने
बारे में कोई बात जाननी हो तो वहाँ स्वानुभूति का प्रमाण मुख्य होगा । अपनी आँख से
देखी हुई जो चीज़ होती है , उसके लिए लाख लिखा मिल जाय ,
लेकिन अपनी आँख की देखी हुई जो चीज़ होती है , उसपर
अविश्वास नहीं होता है । माने हमारी प्रमाण्य - बुद्धि जो है , वह स्वानुभूति में अधिक है । बेटा भी आकर कहे , पत्नी भी कहे , माँ भी कहे , लेकिन अपनी आँख से देखी हुई चीज़ होवे तो किसीकी भी बात नहीं मानते हैं ,
अपनी आँख की बात मानते हैं ।
अब यह जो " मैं दुःखी हूँ " - यह
कहाँ लिखा हुआ है , इसलिए आप अपने को दुःखी मानते हो कि आप अपने
दुःखीपने के स्वयं साक्षी हो ?
कोई दूसरा कहे कि " आप दुःखी हो " तो
आप कैसे मान सकते है ?
दूसरे के कहने से नहीं मानेंगे , दूसरे के लिखने से नहीं मानेंगे। हम ही तो अपने
दुःखीपने के साक्षी हैं । अब जो जिसका साक्षी होता है , वह उससे भिन्न होता है - यह नियम है भाई । हम घड़े को
जानते हैं , तो घड़े से अलग होते हैं । देह को जानते हैं तो
देह से अलग होते हैं । अपने दुःखीपने को हम जानते हैं , सो दुःखीपने से हम अलग होते हैं । यदि हम अपने
दुःखीपने को नहीं जानते है तो हम दुःखी नहीं हैं और यदि दुःखीपने को जानते र्है , तो भी दुःखी नहीं हैं । यह क्या आश्चर्य है ? " दुःखी यदि भवेदात्मा , कः साक्षी
दुःखीनो भवेत्
" ? " दुःखीनो
साक्षिता नास्ति
" - जो दुःखी है , वह गवाह नहीं है । वह तो लड़ाई करने वाला है । और , " साक्षिणो दुःखिता तथा " - जो
साक्षी है , वह दुःखी नहीं है ।
भाई साहब , यह आत्मा जो है वह दुःखी
नहीं है । भगवान् आचार्य सुरेश्वर कहते हैं -
" नर्ते स्याद् विक्रियां दुःखी , साक्षिणा का विकारिणः " ।
{ नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 77 }
आचार्य जी कहते हैं
कि - विकार के बिना कोई दुःखी नहीं हो सकता है ।
जब सड़ाँध पैदा होती
है , तब मनुष्य दुःखी होता है । चाहे शरीर में
सड़ाँध पैदा हो कि इन्द्रियों में सड़ाँध पैदा हो कि मन में सड़ाँध पैदा हो । विकार
अर्थात् किसी चीज़ का सड़ना । एक रूप से दूसरे रूप मेँ बदल जानां । बिना परिवर्तन के
कोई दुःखी नहीं हो सकता । हमारी जो चीज़ थी , वैसी नहीं
रही , बदल गयी , तब न हम
दुःखी हुये ! तो बिना विकार के कोई दुःखी नहीं हो सकता और " साक्षिका का विकारिणः " - जो
विकारी है, वह साक्षी नहीं है । जो बदल रहा है , वह गवाह नहीं है । बदलने का तो गबाह है न । अतः -
" धीविक्रिया सहस्त्रणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः " ।
मैं सहस्त्र - सहस्त्र
विकारों का साक्षि हूँ । दिन भर में बुद्धि सैकड़ों रूप बदल लेती है - यह प्रिय है ,
यह अप्रिय है , यह मेरा है और यह तेरा है ?
यह दुःख है , यह सुख है । यह बुद्धि बहरूपिया
है । " माया महाठगिनि हम जानी " , " रमैया का दुलहिन , लूटा बाजार " । यह तो वेश्या की तरह
श्रृङ्गार करती रहती है , रूप
बदलती रहती है । कभी आँसू गिराती है , कभी हँसाती है , मुस्कुराती
है । इस वेश्या के समान बुद्धि के हजारो विकारों के हम साक्षी हैं । "
अतोऽहमविक्रियः " - मैं तो निर्विकार हूँ और निर्विकार में
दुःखीपना होता नहीं है ।
तो फिर यह दुःखीपना
कहाँ से आया ?
यह भूल से दुःख माना
गया है । भूल के सिवाय दुःख का कोई कारण नहीं है ।
" प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् " ।
जिसकै हम दुःखी कहते
हैं , वह प्रज्ञा का अपराध है अर्थात् समझ का कसूर
है ।
जब - जब हम दुःखी
होते है . तब समझना हमारी समझ कुछ गलती कर रही है ।
जय हो सदाशिव !
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