।। श्रीगुरुभ्यो नमः
।।
" अद्वैत
वेदान्त और परमाभक्ति " -
भारतीय संस्कृति धर्म तथा दर्शन का मूल स्रोत वेद ज्ञान का अक्षय भण्डार है
। मानवीय धर्म तथा तत्त्वज्ञान का उद्गम यह वेद अनादि काल से मनुष्य को इष्ट प्राप्ति
तथा अनिष्ट परिहार के अलौकिक मार्ग का प्रदर्शन कर धर्म , अर्थ , काम और मोक्षरूप चतुर्विध
पुरुषार्थ की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा है । " मन्त्र ब्राह्मणात्मको
वेदः " अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणात्मक वेद है । मन्त्र समुदाय को संहिता
भी कहते हैँ
, संहिता
एवं ब्राह्मणात्मक वेद के अन्तिम भाग उपनिषद् हैँ । उपनिषद् को ही वेदान्त कहते हैँ
क्योँकि वे वेद के अन्तिम भाग हैँ । " वेदस्य अन्तः " - इस व्युत्पत्ति के
अनुसार वेद का अन्तिम भाग अथवा वेद का सार भाग को " वेदान्त " कहते हैँ जो
उपनिषद् ही है
, " वेदान्तो नाम उपनिषद् प्रमाणम् तदुपकारिणि शारीरिक सूत्रादीनि च । " उपनिषद्
ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद्मगवद्गीता ये तीनोँ ग्रन्थ वेदान्त के " प्रस्थानत्रयी
" के नाम से जाने हैं। इस प्रस्थानत्रयी के उपर भाष्य की रचना कर आचार्योँ ने
उपनिषदादिका गंभीर और निगूढ़ अर्थ का प्रतिपादन करने का प्रयास किया है । आचार्योँ के
मत की भिन्नता के कारण शास्त्रोँ का तात्पर्यार्थ भी अनेक रूप से गृहित हुआ है । प्रस्थानत्रयी
के सुप्रसिद्ध भाष्यकारोँ मेँ आचार्य शङ्कर का नाम अग्रगण्य है । आचार्य शङ्कर ने उपनिषद् , ब्रहसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता
के उपर जो भाष्य की रचना की है वह " अद्वैत - भाष्य " के नाम से ख्यात है
। यद्यपि अद्वैत परम्परा अनादि काल से आचार्य परम्परा के माध्यम से प्रवाहित होती आ
रही है तथा आचार्य शङ्कर के पूर्व भी अनेक आचार्यो द्वारा सुसमृद्ध हुई है तथापि आचार्य
शङ्कर ने अपने विश्व प्रसिद्ध एवं विद्वतापूर्ण भाष्य के माध्यम से अद्वैत मतवाद को
एक सुव्यवस्थित एवं सर्वजन ग्राह्य स्वरूप प्रदान किया । अद्वैत वेदान्त के अनुसार
सच्चिदानन्द स्वरूप एक अद्वितीय निर्गुण निर्विकार सर्वधर्म रहित ब्रह्म ही सत्य है
। " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः " जीव का वास्तविक स्वरूप
ब्रह्म ही है । " न विद्यते द्वैतं यत्र " इस व्युत्पत्ति के अनुसार अद्वैत
मेँ केवल एक ही तत्त्व की वास्तविकता मानी गयी है । एक तत्त्व ब्रह्म के अतिरिक्त यद्यपि
सम्पूर्ण संसार को मिथ्या माना गया है , परन्तु यहाँ मिथ्या का तात्पर्य आकाश - कुसुम के तरह
अलीक नहीँ है ।इस सिद्धान्त मेँ तीन सत्ता मानी गयी है । जगत् की व्यावाहारिक सत्ता , ब्रह्म की परमार्थिक सत्ता
ओर रज्जू - सर्प आदि की प्रतिभासिक सत्ता है । अतः जगत् की यद्यपि ब्रह्म के तुल्य
पारमार्थिक सत्ता नहीँ है , तथापि व्यावहारिक सत्ता है जो व्यवहार काल मेँ सत्य है और जबतक ब्रह्मज्ञान
नहीँ होता तबतक स्थायी है । कहा गया है कि -
" देहात्मप्रत्ययो यद्वत् प्रमाणत्वेन कल्पितः ।
लौकिकं तद्वदेवेदं प्रमाणं त्वाऽऽत्मनिश्चयात् ।। "
अपना वास्तविक स्वरूप अखण्डाद्वैत सच्चिदानन्द ब्रह्मरूपता को भूलकर अपने को
कर्त्ता , भोक्ता आदि संसार
धर्म से युक्त मानता है एवं अनादि काल से संसार मेँ जन्म मृत्यु आदि अनन्त दुःख से
त्रस्त होता है । कर्म परिपाक होने पर वह दुःख निवृत्ति एवं परमानन्द स्वरूपता की प्राप्ति
की इच्छा कर सद्गुरुके शरणापन्न होता है और सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त कर अपने स्वरूप
मेँ स्थित हो जाता है । इस मत मेँ ज्ञान को ही परम पुरुषार्थरूप मोक्ष का साधन माना
गया है । " आत्मा वाऽरे द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्याऽऽत्मनो
वाऽरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वँ विदितम् " , " तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति
नायः पन्था विद्यतेऽयनाय " ।
" ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः " इत्यादि श्रुति प्रमाण
से यह ज्ञात होता है कि ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है , ऐसा सिद्ध किया गया है ।
अब यदि " अद्वैत वेदान्त " मेँ एक अद्वितीय तत्त्व की सत्ता है तथा
ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है तो सहज ही प्रश्न उठता है कि अद्वैत वेदान्त मेँ भक्ति
की कोई सम्भावना बनती है अथवा नहीँ । इस समस्या पर विचार से पूर्व संक्षेप मेँ जान
लेना अपेक्षित होगा कि " भक्ति " से क्या तात्पर्य है । भक्ति का लक्षण अद्वैत
के परमाचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने करते हुए कहा है -
" द्रुतस्य भगवद्धर्माद्धारावहिकतां गता ।
सर्वेशे मनसो वृत्तिर्भक्तिरित्याभिधीयते ।। "
भगवद्धर्म अर्थात् भगवद्गुण श्रवणादि से द्रविभूत हुए चित्त की सर्वेश्वर भगवान्
विषयक तैल धारावत् अविच्छिन्नवृत्ति ही भक्ति कही जाती है ।
" मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ।। "
" लक्षणं भक्ति योगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृत ॥ "
जिस प्रकार गङ्गा का प्रवाह अखण्ड रूपसे समुद्र की ओर बहता रहता है उसी प्रकार
मेरे गुणोँ के श्रवण मात्र से मन की वृत्ति का अविच्छिन्न रूप से सर्वान्तर्यामीके
प्रति हो जाना ही निर्गुण योग का लक्षण है ।
" भज सेवायाम् " धातु से क्तिन् प्रत्यय करने से भक्ति शब्द निष्पन्न
होता है । भक्ति के स्वरूप के विषय मेँ नारद भक्तिसूत्र मेँ कहा गया है कि-
" सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा " " अमृत स्वरूपा च " अर्थात्
वह भक्ति ईश्वर के प्रति परमप्रेमरूपा और अमृत स्वरूपा है । जिसको पाकर मनुष्य सिद्ध
हो जाता है ,
तृप्त
हो जाता है ,
जिसके
प्राप्त होनेपर मनुष्य न किसी वस्तुकी इच्छा करता है , न शोक करता है , न द्वेष करता है , न किसी वस्तु मेँ आसक्त होता
है और न उसे विषय भोगोँ की प्राप्ति मेँ उत्साह होता है । जिसको जानकर ही मनुष्य उन्मत
हो जाता है स्तब्ध हो जाता है वह भक्ति है । क्रमशः .....
.नारादीय भक्ति सूत्र मेँ ही बताया गया है कि पराशर नन्दन व्यास जी के मतानुसार
भगवान् की पूजा आदिमे अनुराग होना भक्ति है । ऋषि शाण्डिल्य के मतमेँ आत्मरतिके अविरोधि
विषय मेँ अनुराग होना भक्ति है । देवर्षि महामुनी नारद के मत मेँ अपने सब कर्मोँ को
भगवान् को अर्पण करना और भगवान् का थोड़ा - सा भी विस्मरण होने मेँ परम व्याकुल होना
ही भक्ति जैसे - व्रजगोपियोँ की भक्ति है । इस भक्ति सूत्र मेँ 11 ग्यारह प्रकार की
भक्ति का वर्णन किया गया है यथा -
* गुणमहात्मयासक्ति * रूपासक्ति * पूजासक्ति * स्मरणासक्ति * दास्यासक्ति
* सख्यासक्ति * कान्तासक्ति * वात्सल्यासक्ति * आत्मनिवेदसक्ति * तन्मयतासक्ति * और
* परमविरहासक्ति ।
नवधा भक्ति का वर्णन बहुशास्त्रोँ मेँ प्राप्त होता है ।
" श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।"
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि वेदान्त शास्त्र मेँ विशेषतः अद्वैतवेदान्त मेँ
भक्ति सम्भव है अथवा नही ?
अद्वैतवेदान्त मेँ भक्ति की क्या उपयोगिता है ? इन प्रश्नोँ
के उत्तर मेँ यह कहा जाता है कि न केवल अद्वैतवेदान्त मेँ भक्ति सम्भव है अपितु इसमेँ
भक्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर देशिकेन्द्र एवं
उनके अनुयायी आचार्यगण द्वारा सैद्धान्तिक रूप से अद्वैतात्मबोध से ही मुक्ति सम्भव
है , यह शास्त्र प्रमाण और तर्कादिके द्वारा प्रतिपादन किया गया
है अर्थात् अद्वैतात्म निश्चय ही वह चरम कारण है जिसके होने पर मनुष्य का अज्ञान नष्ट
होकर अपने स्वरूप की स्थिति प्राप्त होती है पर मुक्ति के प्रति या अद्वतात्मबोध के
प्रति भक्ति की कारणता का किसी भी आचार्य के द्वारा खण्डन न किये जाने से यह प्रमाणित
होता है कि भक्ति वेदान्त सिद्धान्त की विरोधिनी नहीँ अपितु उपादेया है । जिसको मूलतः
वेदान्त कहते हैँ , उस उपनिषद् मेँ अनेकानेक उपासनाओँ का वर्णन
उपलब्ध है । " श्वेताश्वतरोपनिषद् " मेँ यह भी बताया गया है कि -
" यस्य देवे परा भक्तिर्यथादेवे
तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिताः ह्यार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। "
और " बृहदारण्यक श्रुति " मेँ भी कहा गया है कि " आत्मेत्येवोपासीत
अत्र ह्येते सर्वँ एकं भवन्ति "
आचार्य भाष्यकार शङ्कर के भाष्य समेत समस्त वेदान्त ग्रन्थ मेँ भक्ति का कहीँ
प्रत्यक्ष - प्रतिपादन तो कहीँ पर परोक्ष प्रतिपादन हुआ है । समस्त वेदान्त शास्त्र
के" मंगलाचरण " मेँ कहीँ परमेश्वर की तो कहीँ गुरु की भक्ति अराधना आदि किया
गया है । आचार्य शङ्कर सैद्धान्तिक रूप मेँ अद्वैततत्त्व का प्रतिपादन करते हैँ , श्रुति
- स्मृति आदि प्रमाण और तर्क आदि के द्वारा केवल एकमेवाद्वितीय परमार्थतत्त्व ही शास्त्र
प्रतिपाद्य है पर उनके द्वारा किया गया श्रीबद्रीनाथ आदि धामोँका उद्धार और स्तोत्र
आदि का प्रणयन का अवलोकन करे लगता है उनके जैसे भक्त ( आचार्य शङ्कर ) तो इस संसार
मेँ विरल है । विवेक चूड़ामणि मेँ तौ आचार्य ने मुक्तकण्ठ से घोषणा कि है कि -
" मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्याभिधियते ।। "
धर्म
, अर्थ , काम , मोक्ष इन
चार प्रकार के पुरुषार्थोँ मेँ भक्ति का समावेश सम्भव नहीँ है । क्योँकि इन चारोँ का
फल इस प्रकार बताया गया है - धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अर्थ - भौतिक साधनोँ
से सम्पन्न होता है तथा काम से व्यक्ति पुत्रैषणा , वित्तैषणा
इत्यादि को प्राप्त करता है और मोक्ष - निर्विकल्प माना जाता है । अतः इन चार प्रकार
के पुरुषार्थोँ के अतिरिक्त पञ्चम पुरुषार्थ भक्ति को मानना आवश्यक है ।
!! श्री हरिः !!
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