" महावाक्याणि "
" महावाक्याणि "
नारायण । " महाश्रोत्रिय " , " महायात्रा " , " महाप्रस्थान " , " महाज्ञानी " आदि जैसे शब्द हैँ , वैसा ही श्रुति – “ महावाक्य " है । इसका एक यह भी
अर्थ हो सकता है कि - जिससे बड़ा , जिससे
व्यापक अर्थ वाला कोई अन्य वाक्य नहीँ हो सकता । दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि -
जिसके पश्चात् दूसरा वाक्य बोलना ही पड़ता हो । या योँ कहे कि बोलने की आवश्यता ही
न रह जाती हो । जो प्राणी दिन - रात बहिर्मुख बने रहते हैँ , जो प्राणी आठो प्रहर इन्दियद्वारोँ पर ही डटे रहते है , उनमेँ से जब कीसी नाटक के नटोँ या पालतू तोते - मैनाओँ के समान इन
महावाक्योँ को बोल उठे तो उसकी बात हम नहीँ कहते हैँ । हम तो केवेल उन महामना - महामुनियो.की ओर को संकेत करना चाहते
हैँ , जिनके हृदयधाम मेँ धधकती हुई ज्ञानाग्नि की ज्वाला मेँ
सृष्टि के पदार्थोँ की स्वाधिन सत्ता सरकण्डे की रूई के समान भड़भड़ा कर भस्म हो
चुकी हो । वे जब एकान्त हृथय मन्दिर के मौनप्रदेश मेँ बैठकर इन वाक्योँ को बोल
बैठते हैँ और जब उनके हृदय - प्रदेश मेँ सदा के लिये सन्नाटा छा जाता है - जिसके
बाद एक भी अन्ववर्थ वाक्य ऐसा सुनाई नहीँ पड़ सकता जो उनके उस गंभीर सन्नाटे को कभी
भी भंग कर सकता हो , तब इन वाक्योँ को " महावाक्य " कहना बड़े ही गौरव की
बात प्रतीत होती है । श्रुति न जिन महावाक्यो को गान की है वे सभी प्राणीयोँ के
अन्दर गुप्तभाव से रहने वाले " पूण अहं " का वर्णन करने वाला है ।
क्षुद्र अहं ने जीवात्माओँ को संकुचित कर रक्खा है । विचार की आँच से जब क्षुद्र
अहं जल जाता है तब वही पूर्ण अहं प्रत्यक्ष दर्शन दे देता है । आँख का पलक खुलते
ही जैसे अनन्त आकाश आँखोँ के सामने आ खड़ा होता है इसी प्रकार क्षुद्र अहं को हटाते
ही अनन्त आत्मतत्व साधक को दीखने लग पड़ता है । उसी पुण्यकीर्ति अवस्था की ओर संकेत
करने वाले ये " महावाक्य" हैँ । जितने भी वेदादि सद्शास्त्र है वे इसी
पूर्ण अहं की ध्वनियाँ है , आवाज़े हैँ । मनन के सागर मेँ
गहरे उतरे हुये लोगौँ को ही ऐसी ईश्वरीय आवाज़ेँ सुनाई पड़ा करती हैँ । इसी कारण
वेदोँ को " अपौरुषेय " कहा जाता है । वेदोँ को कोई पुरुष बनाता नहीँ
किन्तु ये तो शुद्ध मन से सुनने की बाते हैँ । इसीलिये वेदोँ को ऋषियोँ द्वारा
प्रकट होना बताया जाता है । महावाक्योँ की मृतप्राय आवाजेँ जनसाधारण के हृदय मेँ
भी सुनाई तो पड़ती है , परन्तु वे अपने क्षुद्र अहंकार के
परवश होने के कारण इनको अनसुनी कर देते हैँ । सभी प्राणी अपने जी मेँ अपने आपको
बड़े से बड़ा और अच्छे से अच्छा मानते हैँ । सभी को अपना आपा सर्वगुणसम्पन्न और सबसे
अच्छा प्रतीत है । सभी अवसर पाते ही अपनी बड़ाई बघारने से चुकते नहीँ हैँ । परन्तु
ऐसी सर्वहृदयेश्वरी महत्ता का जो गुप्त कारण है उसका किसी को पता नहीँ है । "
नारायण " ! हम तो इसी गुप्त महत्ता को ही सोया पड़ा हुआ " अहँ
ब्रह्मास्मि " कहते है । अन्दर जो निःशब्द भाषा मेँ " अहं ब्रह्मास्मि
" की अखण्ड रटना चल रही है , उसी से यह प्राणी अपने को
सर्वोत्तम समझ रहा है । हमारे रोम - रोम मेँ " अहं ब्रह्मास्मि " यह
महामन्त्र समाया हुआ है । मौत ने सारे संसार को अपने जबड़े मेँ दबा रखा है परन्तु
उस मौत को भी निगल जाने वाला यह अन्दर का " अहं ब्रह्मास्मि " कभी मरना जानता
ही नहीँ । इस अन्दर के " अहं ब्रह्मास्मि " को इस मांस की चादर ने लपेट
रखा है । अब तो हमेँ क्षुद्र देहाभिमान के रूप मेँ इस " अहं ब्रह्मास्मि
" की निर्बल ( मुर्दा ) आवाज़ कभी कभी सुनाई पड़ जाती है । अब इसमेँ ब्रह्मतेज
नहीँ रह गया है । अन्दर के इस " अहं ब्रह्मास्मि " को - सोय पड़े हुये इस
ॐ को हम साधकोँ को धीरतापूर्वक जगाना पड़ेगा । जब यह पूरा पूरा जाग उठेगा और इस
मांस की चादर को तोड़ फोड़ डालेगा , तब यह देहाभिमान को ,
क्षुद्र अहंकार को जलाकर राख कर देगा । देहाभिमान के जलने का बहाना
पाकर यही " अहं ब्रह्मास्मि " फिर ब्रह्माण्ड भर मेँ फैल जायेगा और इस
अनन्त ब्रह्माण्ड पर फिर अपना एकछत्र आधिपत्य जमा लेगा । ऐसी दिव्य अवस्था जब आ
जाती है तब ही " अहं ब्रह्मास्मि " आदि महावाक्योँ के बोलने का सच्चा
अधिकार प्राप्त होता है । नहीँ तो कोरे शाब्दिक ( शास्त्रीय ) ज्ञान से कुछ भी
होने वाला नहीँ है । गुड़ कहने मात्र से किसी का मुह मीठा नहीँ हो जाता है - राम
राम रटने से तोता मुनि नहीँ हो जाता है । ऐसी दिव्य अवस्था जब आती है तब शान्ति का
अनन्त समुद्र उमड़ पड़ता है । तब शोक , भय , दीनता आदि ठहर नहीँ पाते हैँ । जिन लोगोँ के पवित्र मानस मेँ इस तरह के
" अपौरुषेय" महावाक्य सुनाई पड़ने लगते हैँ , जिनके
हूदय मेँ पूर्णता की गुंजार रहने लग जाती है , वे ही मुनि
हैँ , वे ही जीवनमुक्त हैँ , उनको ही
विदेह मुक्ति का मिल सकती है । जिसकी वाणी
के पीछे अनुभव का बल नहीँ होता है ऐसी निस्तेज वाणी से बोले हुए " अहं
ब्रह्मास्मि " आदि महावाक्य उसी तरह बन्धनकारक होते हैँ , जिस प्रकार अन्य अपशब्द बन्धनकारक होते हैँ। क्योँकि अनुभव रहित पुरुष जब
इन महावाक्योँ को कहते हैँ तब वे आत्मघात कर बैठते है क्योँकि उनमेँ दम्भ आदि दोष
बहुतायत से उत्पन्न हो जाते हैँ ।
मुख्य महावाक्य चार हैँ -
( 1 ) - " अहं ब्रह्मास्मि
" , ( 2 ) - " प्रज्ञानं ब्रह्म
" , ( 3 ) - " तत्त्वमसि " , ( 4 ) - " अयमात्मा ब्रह्म
" ।
ब्रह्म और आत्मा की एकता रूप जो मोक्ष का साधन है- उसका ज्ञान इन या इन
जैसे वाक्योँ से ही हो पाता है । आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है , यह ज्ञान तो युक्ति से भी हो जाता है । परन्तु यह आत्मा और वह ब्रह्म
तत्त्व दोनोँ एक ही तत्त्व है , इस बात जानने का उपाय शब्द
प्रमाण के अतिरिक्त और कुछ भी नही है ।
" येनेक्षते श्रृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च ।
स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ।। "
प्रज्ञानं ब्रह्म " चक्षु और
श्रोत्र के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति बाहर निकलती है , उस वृत्ति से उपहित जो चैतन्य किंवा ज्ञान है , उसी से तो यह संसार रूपादि पदार्थोँ को देखा करता है और शब्दोँ को सुना
करता है । नासिका के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति जो बाहर निकलती है अन्तःकरण की
उस वृत्ति से उपहित जो चैतन्य किँवा " प्रज्ञान " है , उसी " प्रज्ञान " से तो यह संसार भले - बुरे गन्दोँ को सूँघा
करता है । वागिन्द्रय से ढके हुए उसी चैतन्य किँवा " प्रज्ञान " से ये
सब शब्द बोले जाते हैँ ।
रसना के द्वारा जो अन्तःकरण की वृत्ति बाहर निकलती है , उसको जिस चैतन्य अपनी उपाधि बना लिया है , उसी से तो ये स्वादु या अस्वादु रस पहचाने जाते हैँ । इतना ही नहीँ और भी
इन्दियोँ तथा अन्तःकरण की वृत्तियोँ से जिस चैतन्य किँवा जिस " प्रज्ञान की
सूचना जब - तब मननशील पुरुष को मिला करती है उसी को आचायोँ ने " प्रज्ञान
" कहा है । ब्रह्मा , विष्णु , इन्द्र
, देवता , मनुष्य तथा पशु - पक्षियोँ मेँ यही
" प्रज्ञान " व्याप्त हो रहा है । वेदादि - शास्त्र सभी इसी "
प्रज्ञान - सुर्य " की बिखरी हुई किरणे हैँ। इसी के सहारे से जगत् के जन्म
, स्थित और प्रलय हो रहे हैँ - इस कारण कहना पड़ रहा कि "
सर्वान्तर्वासी " यह " प्रज्ञान " ही " ब्रह्मतत्व " है
। क्योँकि सर्वत्र व्याप्त यह " प्रज्ञान " ही ब्रह्म है , इसी से मैँ मुमुक्षु अब यह बात बेधड़क होकर कह रहा हूँ कि मुझ मेँ जो
" प्रज्ञान " है वह भी " ब्रह्मतत्व " ही है । आज से मैँ इस
" महामहिम - प्रज्ञान " पर झूठा अहंकार ( क्षुद्र अहंकार ) करना छोड़
देता हूँ । इतना जानने पर भी यदि मैँ इस सर्वत्र व्याप्त " प्रज्ञान "
पर क्षुद्र अहंकार करूँगा तो मैँ " ब्रह्मद्रोही " हो जाऊँगा । व्यापक
ब्रह्म को " क्षुद्र अहम् " मेँ परिच्छिन्न करने का " घोर पातक
" मुझे लगेगा।
" अहं ब्रह्मास्मि " योँ सिद्धान्तरूप से तो सभी देहोँ मेँ वह
परमतत्व परिपूर्ण हो रहा है और सभी की बुद्धियो का साक्षी भी है । सभी प्राणी अपने
को सबसे बड़ा और सबसे गुणी मान कर " अहं ब्रह्मास्मि " की रटन
अज्ञानपूर्वक करते ही रहते हैँ । परन्तु इतने मात्र से साधक का कुछ भी उपकार नहीँ
हो पाता । जब तो किसी साधक को उसके साथ ही यह स्फूर्ति अथात् प्रतीति भी हो जाय कि
वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्व ही मेरी बुद्धि का साक्षी है , तो वैसे स्फुर्तियुक्त आत्मा के विस मेँ ही हम "
अहम् " ( मैँ ) शब्द कह रहे है । जब कोई साधक अपने उपर पड़ी हुई अविद्या की
चादर को बार - बार उतार कर फेँकने लगता है , जब कोई साधक
मांस के झोँपड़े मेँ से निकल कर बाब - बार बाहर बैठने लगता है , तब उस साधक को ही हम " अहम् " ( मैँ ) कहना चाहते हैँ । देश काल
या वस्तु परिच्छिन्न मेँ न आने वाली स्वभाव से ही परिपूर्ण वस्तु है वह "
ब्रह्म " कही जाती है । इस " मैँ " को और उस " ब्रह्म "
को परस्पर एक बता देना " अस्मि " इस तीसरे पद का काम है । जिसका भाव यही
होता है कि " मैँ " अर्थात् साधक " ब्रह्मतत्व " ही हूँ अथवा
मैँ साधक ही तो ब्रह्म हूँ । अविद्या के प्रताप से जो मैँ अपने आपको संसारी आदि
मान बैठा था वह भी मैँ नहीँ हूँ । देहेन्द्रियादि के साथ जल मरने वाला क्षुद्र
प्राणी मैँ कदापि नहीँ हूँ । अथवा अविद्या के प्रताप से जो मैँ " ब्रह्मतत्व
" को अपने से पृथक् - सातवे आसमान पर रहने वाला - तत्व मान बैठा था वह "
ब्रह्मतत्व " मुझसे पृथक् पदार्थ नहीँ है ।
" तत्त्वमसि " जो अभी तक वृथा ही ( न मालूम क्योँ ) शरीरोँ के
वेष्टनो से लिपटा पड़ा था , जो शरीर के साथ वृथा ही बार
- बार मर और जी रहा था , श्रवणादि का अनुष्ठान करके महावाक्य
की समझने की योग्यता अब इसमेँ आ गयी है , जो तीनोँ देहोँ
अर्थात् तीनोँ पुरोँ से अलग रहने लगा है , जो तीनोँ देहोँ के
साक्षि की हैसियत मेँ आ गया है , उसी को हम "
लक्षणावृत्ति " से " त्वं " अर्थात् " तू " कह रहे हैँ ।
सृष्टि बनने से पूर्व सम्पूर्ण भेदोँ से रहित जो एक नामरूप रहित वस्तु थी ,
सृष्टि बन जाने के बाद अब भी जो वस्तु वैसी की वैसी ही है , जिस सद्वस्तु मेँ अब भी कोई विकार नहीँ आया है , उसी
निर्विकार सद्वस्तु को हम " लक्षणावृत्ति " से " तत् "
अर्थात् " वह " कह रहे हैँ । इन दोनो शब्दोँ के लक्ष्यार्थोँ की जो छिपी
हुई एकता है , उसी गुप्त एकता का ग्रहण " असि" (
है ) यह पद करा रहा है । परन्तु कितना भी प्रयत्न करे इस लक्ष्यार्थ तक तो केवल
अधिकारी लोँगोँ की ही उदार दृष्टी पहुँचेगी । दूसरे अनाधिकारी लोग तो इस महावार्ता
को हँसी - ठिठोली मेँ टाल देँगे और परम पद के साथ खिलबाढ़ कर बैठेँगे । मुमुक्षु
साधकोँ को चाहिये कि " तत् " " त्वं " पदोँ की जो एकता
प्रमाणपुष्ट हो चुकी है , उसका दिव्यानुभव वे भी ले लेँ
, और वैसा अनुभव करके अनादि काल की इस वृथा खटपट को भूल जाँय । वे
अनुभव करेँ कि क्या हम अनादि काल से इसी " भवजाल " मेँ उलझे रहने को
यहाँ उतरे हैँ ? क्या इस संसार की बेमतलब उखाड़ - पछाड़ ही
हमारे इस जीवन का चरमलक्ष्य है ? या हमारा अपना कोई स्थाई
रूप भी है ? जिसके आधार से हमको शान्ति के सुखद दर्शन मिल
सकते हैँ । इसी गंभीर प्रश्न का उत्तर " तत्त्वमसि " ( तुम तो वह हो )
आपको खटपट की कुछ भी आवश्यकता नहीँ है । यह " तत्त्वमसि " महावाक्य आपको
संकेत कर रहा है ।
" अयमात्मा ब्रह्म " जो तत्व स्वयंप्रकाश होने के कारण ही यद्यपि
सबको प्रत्यक्ष हो रहा है , फिर भी मायामोहित प्राणी ने इस स्वयंप्रकाशतत्व की भी ऐसी अपेक्षा की है
जैसी कदाचित् कदाचित् शत्रुओँ की भी कोई न करता हो । कोटिजन्मोँ के पुण्योँ के
परिपाक से जब किसी साधक की सूक्ष्म दृष्टि उस तत्व तक जा पहुँचे तब सूक्ष्म दृष्टि
से पकड़ लिये हुए उसी तत्व को हम " अयम् ( यह) कह रहे हैँ - अर्थात् यह तत्व
कभी किसी से छिपता नहीँ है और यह कभी किसी का दृश्य नहीँ नहीँ होता है । अहंकार
, प्राण , मन , इन्द्रिय
तथा देह का जो समुह है , उस सभी का अधिष्ठान , सभी का साक्षी , सभी से प्रत्यक् , सभी से आन्तर , जो कोई तत्व है उसी को हम आत्मा कहते
हैँ। यह जो आकाशादि संसार हमेँ दिख रहा है यह सब क्षणभंगुर है । यह क्षणभंगुर
संसार अपने स्वभाव के अनुसार जब शेष नहीँ रह जायगा , तब जो
तत्व शेष बचेगा उस तत्व को हम " ब्रह्म " कहते हैँ । वह ब्रह्मतत्व साधक की समझ मेँ आया हुआ स्वयं
प्रकाश आत्मा ही तो है । इस आत्मा से भिन्न कोई ब्रह्मनाम का पदार्थ होता होगा यह
विचार प्रमाणानुमोदित नहीँ है । इस आत्मा से भिन्न किसी को ब्रह्म समझना भारी से
भारी भूल है ।
श्री नारायण हरिः ।
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