Wednesday, May 9, 2012


                         
                       " परमेश्वर- पशुपति "
                    
शिव । शिव ।। परमेश्वर का एक नाम है " पशुपति " । यहाँ जो पशु कहा जाता है वह उसके वाहन ऋषम या पहरेदार " नन्दी " को सूचित नहीँ करता । पशु हम ही हैँ । जीव सब पशु है । उनके मालिक अर्थात् स्वामी के रूप मेँ जो ईश है वही पशुपति है ।
पशु जिस स्थान मेँ हरे पत्ते हो उस स्थान की ओर भागते हैँ । उनके समान हम भी इन्द्रियसुख को खोजते - खोजते भागते रहते हैँ । मालिक जैसे अपने पशु को बाँध रखते है वैसे पशुपति ईश्वर हमेँ बाँध रखता है ।
दीख सकता है कि - " कहाँ बाँध रखा है ? कोई बन्धन आँखोँ के किए दिखाई नहीँ देता है । फिर भी अनजान मेँ ही हम इस बंधन के बारे मेँ समय समय पर बोलते हैँ । एक कार्य के लिए हम बहुत प्रयत्न करते हैँ । फिर भी वह सफल नहीँ होता । उस समय हम यह कहकर अपने आप को तसल्ली दिला लेते हैँ कि " यथा शक्ति किया । फिर भी कर्मबन्ध किसको छोड़ता है ? काम सफल नहीँ हुआ । कर्म बंध जो है वही बन्धन है। पशुपति ने हमेँ पूर्वकर्मो से बाँध दिया है । "
रस्सी से बंधे जानवर को उस रस्सी पर गुस्सा होगा , पर उसे खोल दिया जाय तो क्या होता है ? वह दूसरे बगीचे मेँ चरता है । बाद मेँ बगीचे का मालिक उसे मारमार कर उसका कचुमर निकाल देता तो हम उसे बाँध देते हैँ । हममेँ इच्छा नामक बदमाशी है , इसलिए पशुपति ने हमेँ बाँध रखा है । अगर बच्चे की विषमबुद्धि चली जाय तो हम उसे बाँध कर न रखेँगे । हमारी इच्छा न रहे तो भगवान् भी हमेँ मुक्त करेँगे । इच्छा के कारण ही हम कई लोगोँ को कष्ट देकर खुद कष्ट उठाते हैँ । इच्छा मिट जाय तो किसी को हमारी ओर से कोई कष्ट नही होगा । ईश्वर खोल देँगे ।
बन्धन मिट जाय तो हम दूसरे के बगीचे मेँ नहीँ चरेँगे , क्योँकि दूसरे के बगीचे न चरने की बुद्धि हममेँ आ जाय तभी पशुपति बन्धन को निकालते हैँ । बन्धन के निकलने के बाद बन्धन की स्थिति से उन्नत होकर हमेँ  जिसने बाँधा था उसकी स्थित मेँ पहुँच जायेँगे । बन्धन जब तक रहे तब तक हम अलग हैँ , और भगवान् अलग । इसलिए हम उनकी पूजा करते हैँ । " बन्धन चला जाय तो हम जान लेँगे कि हम ही वह है । " बाद मेँ पूजा की भी जरूरत नहीँ होती ।
श्रुतिमहारानी कहती है कि एक स्थिति तक जीव पशु है । वह कौन स्थिति है ? कहा है-
" देवतां अन्यां उपासते "
इसका सामान्य अर्थ बताया जाता है कि अपने इष्ट देवता को छोड़कर उससे अन्य किसी देवता का उपासक पशु है । यह गलत है । " अपने पूजित देवता अपने लिए अभी इतनी होड़ , ईर्ष्या , लड़ाई . झगड़ा है तो तब कैसे होगा ? उसकी कल्पना भी नहीँ कर सकते। अपनी सभी इच्छाओँ को , सबको कार्यरूप मेँ लाने के प्रयत्न न करने की रीति से हमेँ कर्म ने बन्धन मेँ बाँध रखा है न ? इससे हम बचते गये न ?
पशु को न बाँध रखे तो वह पौधोँ का नाश करता है । स्वयं मार खाता है । उसी तरह कर्म से हमेँ ईश्वर बाँध न रखता तो हम अपने आपको भ्रष्ट कर लेते और संसार को भ्रष्ट कर करते । अब भी हम संसार को भ्रष्ण करते हैँ । अगर कमजोरी मेँ ऐसा करेँ तो स्वेच्छा का पूर्णबल हो तो हम कितना बिगाड़ेँगे ? रस्सी लगाकर बाँधने के कारण ही कम से कम किसी समय मेँ पशु को खूँटे के पास लेटना संभव होता है । कर्म हमेँ बांध देता है । इसलिए हम कभी न कभी उसके खूँटे ईश्वर पर चित्त को लगाते है । नहीँ तो ईश्वर को एकदम भूलकर योँ संसार सागर मेँ उलझे रहेँगे ।
भगवान् ने हमेँ इसलिये बांध रखा है कि हम अपनी भलाई के लिए खुद अपने को कष्ट देने न रहेँ। उनसे पूछे कि - कब खोल देँगे ? तो वे कहते है - अगर तुममेँ किसी को कोई कष्ट न देकर और उससे अपने लिए कोई पाप न कमाने की परिपक्वता आ जाये तो मैँ खोल दूँगा ।
बच्चा नटखटपन करता है है । बाद मेँ उसे कांची हाउस मेँ बन्द कर देता है । तमी पशु को मालूम होता है कि हमेँ रस्सी से बाँध कर ही रखना अच्छा है । इसी तरह हमेँ भी कर्म बन्धन के प्रति गुस्सा होता है । अगर भगवान् ऐसा बंधन नहीँ लगाता तो हमेँ हार व दुःख सब नहीँ होते । हार व दुःख के आने पर हम बुद्धि पाते हैँ कि हमेँ इतना ही बंधा है और जीवित रहते समय तृप्ति से , शान्ति से जीवन बिताने का यत्न करते हैँ । अगर यह नहीँ होता तो हमारी इच्छा व योजना का कोई अंत नहीँ होता । इतने जोर के बंधन रहते ही हर एक की इच्छा भले ही उसके लिए सारी सृष्टि की आहुति करेँ तब भी पर्याप्त नहीँ होती । द्युलोक को काफी न मानकर चन्द्रमण्डल , मंगलग्रह की बाते करते हैँ। बंधन ही रहा तो पूछने की ही जरूरत ही नहीँ रहती । है । बाद मेँ उसे कांची हाउस मेँ बन्द कर देता है । तमी पशु को मालूम होता है कि हमेँ रस्सी से बाँध कर ही रखना अच्छा है । इसी तरह हमेँ भी कर्म बन्धन के प्रति गुस्सा होता है । अगर भगवान् ऐसा बंधन नहीँ लगाता तो हमेँ हार व दुःख सब नहीँ होते । हार व दुःख के आने पर हम बुद्धि पाते हैँ कि हमेँ इतना ही बंधा है और जीवित रहते समय तृप्ति से , शान्ति से जीवन बिताने का यत्न करते हैँ । अगर यह नहीँ होता तो हमारी इच्छा व योजना का कोई अंत नहीँ होता । इतने जोर के बंधन रहते ही हर एक की इच्छा भले ही उसके लिए सारी सृष्टि की आहुति करेँ तब भी पर्याप्त नहीँ होती। द्युलोक को काफी न मानकर चन्द्रमण्डल , मंगलग्रह की बाते करते हैँ। बंधन ही रहा तो पूछने की ही जरूरत ही नहीँ रहती ।अन्य है । यह सोचकर जो पुजा करता है वही पशु है । " यही इसका ठीक अर्थ है । योँ भगवान् अलग हैँ भक्त अलग है । यह भेद बुद्धि जब तक रहती है तब तक कर्म है । कर्म जब तक है तब तक बन्धन भी है ।
शास्त्र मेँ कहे धर्म कार्य का बंधन दूसरी रस्सी ( रज्जु ) के समान है । वह गाँठ के साथ लगता बंधन नहीँ है । बन्धन के समान लगेगा । शास्त्र के नियम बहुत कठोर , अनिवार्य और वन्धित करने के समान लगेँगे , पर इन्द्रियोँ के द्वारा जो पक्की गाँठ का बन्धन लगता है , उस इच्छा के बन्धन से छूटकर अन्त मेँ पूर्णशान्ति , सुख व मुक्ति प्राप्त करनी है तो यह बन्धन अवश्य लगे रहना है ।
इच्छा का बन्धन चला जाय तो शास्त्र का बन्धन भी चला जायेगा । पर उसके दूर होने के लिए हमेँ दूसरे बन्धन को अपने आप लगा लेना चाहिए । धार्मिक रूप से मनुष्य कार्य, देवकार्य , पूजा . यज्ञ , परोपकार , जीवात्मकैँकर्य आदि सब करना चाहिए । इच्छा चली जाय तो ये दैवकार्य , वैदिक कार्य , समाजिक कार्य सब रुक जायेँगे ।
अगर व्यक्ति इस स्थिति को पहुँच जाय तो देवता लोगोँ को उक्त साधक पर गुस्सा आता होगा । मनुष्य वैदिक कार्य करे तो ही देवताओँ को आहुति मिलेगी , नहीँ तो वे भूखे रहेँगे । इसलिए अगर यह कर्म को छोड़कर , यज्ञ . तर्पण . पूजा आदि को रोक लेँ तो देवोँ को भोजन नहीँ मिलेगा । इससे उन्हे क्रोध होगा । अगर गाय का दूधारूपन रुक जाये तो उससे कोई लाभ नहीँ होगा । तुरन्त उसको घास या चारा देना बन्द करते है न? मनुष्य की इच्छाएँ सब अन्त हो तो वह ऐसी स्थिति मेँ आएगा कि उसे किसी भी देवता का अनुग्रह न हो । उसके लिए उसका आहुति देना भी बन्द होगा । मनुष्य का कर्म रुक जाये तो बाद देवताओँ को उससे कोई लाभ नहीँ होगा । इसी कारण पुराणोँ मेँ देखते हैँ कि जब कोई ऋषि ब्रह्मज्ञान पाने के लिए तपस्या करते थे तब देवता विध्न उपस्थित करते थे ।
इसीसे मुर्ख और अज्ञानी को " देवानांप्रियः " का नाम पड़ा है । देवानांप्रियः का अर्थ है देवोँ का प्यारा । वह स्तुति के शब्द जैसे लगेगा । अशोक चक्रवर्ति ने भी शिलालेखोँ और स्तूपोँ मेँ अपना वर्णन " देवानां प्रिय अशोक " अंकित कर लिया है । पर असल मेँ देवताओँ को तृप्त करने की स्थिति मेँ ज्ञान की खोज न करके कर्म मेँ ही जो मूर्ख उलझा है वही देवानांप्रियः है ।- पुराने समय मेँ ज्ञान प्राप्त लोग भी शास्त्र कर्म को छोड़ने मेँ झिझकते थे । दूसरोँ को मार्ग दर्शाने के लिए वे लोग , चाहे अपने लिए अनावश्यक क्योँ न हो , तो भी , निरन्तर कर्म किया करते थे । हमने तो जरा भी बिना झिझक के , खुशी से सकल शास्त्र धर्मो को छोड़ ही दिया है , पर ज्ञानी भी न बने ।
ज्ञानी नहीँ थे तो देवानांप्रियः होते तो देवोँ की प्रीति से हम मरने के बाद लोक जा सकते। देवलोक मनोरंजन का लोक है । वह मोक्ष नहीँ है , मेरे मित्र । मोक्ष आत्मानन्द शाश्वत रूप मेँ देता है जो इन्द्रियोँ से परे आनन्द से बढ़कर है । देव लोक वह लोक है जो हमेँ तब तक भोग्य सुख प्रदान करता है जब तक हमेँ वैदिक कर्म से प्राप्त पुण्य खर्च नहीँ होता । पुण्य के खतम होने पर हमेँ भूलोक ही लौटना पड़ेगा । मोक्ष सुख और देवलोक बनाम स्वर्ग सुख के बीच अजगजान्तर है यानी आकाश - पाताल का अन्तर है। फिर भी दुःख व कष्ट से मनुष्य लोक से कम - से - कम देवलोक पहुँचे तो वह श्रेष्ठ ही है , मेरे भैया । क्या हम उसके लिए मार्ग बना रहे हैँ ? वह भी नहीँ है । देवोँ को तृप्ति देनेवाले वैदिक कर्मो को छोड़ने के बाद हम कैसे उनको प्यारे लगेँगे ? हम " नरकानांप्रिय" ही बने है - हम ऐसी स्थिति मेँ हैँ कि नरकवासी ही हमारे साथी के रूप मेँ आएंगे और वे ही हमेँ अपने प्यारे मानेँगे । दुष्ट रहने से मूर्ख रहना उत्तम है । पहले हमेँ मूर्ख देवानांप्रिय बनना चाहिए । बाद " पशुपति " थोड़ा - थोड़ा करके बन्धन को खोल देँगे । देवलोक की इच्छा , कर्म के प्रति आसक्ति - इन दोनोँ के बिना कर्म करेँ तो वह कर्म ही शुद्धि देकर ज्ञान की मार्ग की नीँव ड़ालेगा । बाद मेँ हम ऐसे ज्ञानी सकेँगे जो देवोँ के प्यार और धृणा की परवाह न करेँ । तब पशु ( जीव ) - पाश ( रस्सी - बन्धन) - पति ( ईश्वर) आदि तीनोँ मेँ पशु व पाश मिटकर पति मात्र रहेगा । हम पशु ही पति के रूप मेँ रहेँगे । शैव सिद्धान्त मेँ पति - पशु - पाश के नाम से जो कहा जाता है वही भगवान श्रीआद्य शङ्करभगवत्पादचार्य के अद्वैत वेदान्त मेँ जीव - ब्रह्म - माया कहा जाता है । आचार्य शङ्कर नेँ भी पशु - पाश के शब्दोँ का प्रयोग " सौन्दर्यलहरी " के श्लोक मेँ किया है । श्लोक इस प्रकार है -
" चिरं जीवन्नेव क्षपित पशु पाश व्यतिकरः ।
परानंदाभिख्य रसयति रसं त्वत्भजनवान् ।।
अर्थात् हे अंबिके । जो तुम्हारी पूजा करता है वह पशु - पाश आदि के मिलन से उत्पन्न कष्ट दूर करके सदा परमानन्द का रस लेता है ।
शिव । शिव ।।

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