!! छिन्नमस्ता रहस्य!!
!! छिन्नमस्ता रहस्य!!
शिव ! शिव !! " छिन्नमस्ता
" मूर्ति मेँ देखेँ भगवती खड़ी है । अपने सिर को काट कर अपने हाथ मेँ रखा है । मुंह उपर कर रखा है । हाथ
मेँ रखे सिर का मुख खुला हुआ
है । उस मुंह मेँ अपने कटे हुए गले से एक रक्त की धारा अपने ही मुख मेँ जा रही है । एक रक्त की धारा एक सखी के मुंह मेँ
जा रही है और अन्य धारा
दूसरी सखी के मुंह मेँ । यह अपने ही मस्तक की बलि भगवती ने अपने को दे रखी है । बलि का अर्थ होता है उपहार ( gift ) । आजकल यज्ञ मेँ अन्तिम बलि नारियल की दी जाती है । नारियल अपने सिर का प्रतिक है ।
" गोपथ ब्राह्मण
" मेँ उसे नर बलि कहा है । अपने सिर को काट कर देने का विधान कहीँ नहीँ है । नारियल या सिर चढ़ाने का अर्थ अन्तिम बलि देना ही
है । अतः " छिन्नमस्ता
" ने अपनी सिर रूपी अहन्ता की बलि देकर उसे " पाणि " मेँ रखा है ।
भगवति की " स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया
च " ज्ञान , बल और क्रिया रूपी तीन रक्त की धारायेँ बह रही है । उसमेँ ज्ञान , इच्छा और क्रिया समकालिक है । जीव मेँ अभी ये समकालिक नहीँ है । हम इच्छा करते हैँ सत्य
बोलेँ ,
पर क्रिया करते हैँ दूसरे को ठगने की । इन तीनोँ को समकालिक हो
कर स्वतन्त्र होना
है । अतः भगवती के छिन्न मस्तक होने पर ये तीन धारायेँ निकली । एक रक्त की धारा ज्ञान की अपने ही मुंह मेँ पड़ी । कटी हुई
अहन्ता माया रूपी अन्तःकरण
से कट कर साक्षी के मुंह मेँ पड़ी । इच्छा और क्रिया रूपी दो रक्त की धारायेँ दाहिनी सखी विद्या और बांयी सखी अज्ञसेविका के मुंह मेँ पड़ी। दाहिनी सखी साधक है । बांयी सखी अज्ञ है । जो भी उसकी सेवा
करता है वह उसकी क्रियाओँ
से लाभ उठाता है ।
यह " छिन्नमस्ता " की मूर्ति
" वेदान्त " की
मूर्ति है । " समित्पाणिः " मेँ कहा गया है कि समिधा को पाणि मेँ लेकर गुरु के पास जाओ । तो समिधा को पाणि मेँ ही क्योँ रखा ? क्योँकि जिससे काटोगे
उसी मेँ रखना है । जिस आत्मतत्त्व से अविद्या को काटोगे उसी मेँ रखना है । जिस आत्मतत्त्व से अविद्या को काटोगे उसी
आत्मत्त्व मेँ अविद्या लीन
होगी । सूर्यकान्तामणि या आतशी शीशा स्वयं कागज को नहीँ जलाता बल्कि सूर्य जलाता है पर सूर्यकान्तमणि मेँ चढ़ा हुआ सूर्य ही
जलाता है । उसी प्रकार
ब्रह्माकार वृत्ति मेँ उपारूढ़ ब्रह्म ही अज्ञान को काट रहा है । ब्रह्माकार वृत्ति तो स्वयं माया है वह अज्ञान को क्या
काटेगी ।
शिव ! शिव !!
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