Wednesday, September 15, 2010

प्रभुके प्रेम के लिए , पूरी तैयारी चाहिए

ऐसा न हो कि मेघ आएं , बरसेँ और चले जाय ।
तुम सूखे के सूखे ही जाओ ।
तुम्हारी तैयारी चाहिए ।
स्वीकार का भाव चाहिए ।
प्यास चाहिए , तड़पन चाहिए ।
चातक की भांति मुँह खोल के आकाश की तरफ प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए ।
आकाश की तरफ उठा होना चाहिए ।
प्रतीक्षातुर होना चाहिए ।
तब कही स्वांति की बूंद तुम्हारे मुंह मेँ गिरेगी ।
गी । प्रेम - बरसता हैँ -
जैसे दीये से रोशनी फैलती है ।
जैसे फूल से गन्ध बहती है ।
अगर तुम तैयार हो , तो तुम प्रेम से भर सकते हो ।
तुम्हारे अंग - अंग मेँ रोशनी भर सकती है ।
तुम्हारे नासापुर गन्ध से सराबोर हो सकते हैँ ।
तुम सब कुछ पा सकते हो ।
तुम सब कुछ लूट सकते हो ,
तुम सम्राट हो सकते हो ,
तुम शाहंशाह बन सकते हो ।
तुम पर निर्भर करता है ।
तुम्हारी पात्रता चाहिए ।
तुम्हारी योग्यता चाहिए ।
तुम्हारी बेचैनी चाहिए ।
परमात्मा का प्रेम पाने के लिए ।
श्रीमन्न नारायण नारायण हरि हरि ।।

श्री गंगा जी के तट पर ..

श्री गंगा जी के तट पर ....
*
धुंध और बादलोँसे भरा सुन्दर प्रभात था । ठंढी हवा चल रही थी । नन्हे- नन्हे ओस कणोँसे पृथ्वी भीग गयी थी । सर्दियोँकी सुबह थी । मीठी महीन स्वर लहरीके साथ गँगा मन्द गतिसे बह रही थी । गंगाकी पतली महीन धार चाँदीके फीतेकी के भाँति चमक रही थी । एक दिव्य आनन्द और शान्तिकी वर्षा हो रही थी ।
कितनी सुखद और शान्ति पूर्ण सुबह थी ।

मैँ गंगा के तट पर बैठा था । वातावरण इतना शान्त और एकान्त था , कि कुछ कहने - सुनने की स्थिति मे नहीँ था । वाणी मूक थी । दिमाग शान्त था । हृदय गति इतनी धीमी हो गयी थी लगता था मानो हृदय रुक गया है । सांस स्थिर हो गये हैँ । शून्य , एक दम शून्य ।
समाधिका - सा अनुभव । स्थित - प्रज्ञ की सी स्थिति ।
ब्राह्मी स्थितिका सा आनन्द ।
सब कुछ भूल गया था ।
सब कुछ छुट गया था ।
सब कुछ खो गया था ।
सब कुछ बह गया था ।

पहले आँखे खुली थी , फिर बन्द हो गयी । फिर पता नही क्या हुआ ? जागने पर पता चला गंगा तट पर हूँ । क्या सो गया था ? नहीँ । क्या जाग रहा था ? क्या अर्धनिद्रा मेँ था ? नहीँ । अक्सर था क्या ? क्या कहूँ क्या था ? कहने सुननेके परे था । सोने - जागने के
अतिरिक्त था । कुछ नहीँ और सब कुछ था । इस स्थितिको भाषा और शब्द बाँध नही सकते । खुली आँखेँ जो कुछ नजर आता है वह " दृश्य " है । बन्द आँखे जो देखती है ; वह द्रष्टा है । बाहर जगत है , अन्दर जगदीश्वर । बाहर प्रकृति है , भीतर परमात्मा ।

जय जय शंकर हर हर शंकर ।।

श्री गुर पादुका पंचकम् ( श्री आद्य शंकराचार्य विरचित )

* गुरु पादुका पंचकम् *
जगज्जनिस्थेम -लयालयाभ्यां, अगण्य पुण्योदय भाविताभ्याम् ।
त्रयीशिरोजात निवेदिताभ्यां, नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ॥1॥
विपत्तमस्तोम विकर्तनाभ्यां, विशिष्ट संपति विवर्धनाभ्याम् ।
नमज्जनाशेष विशेषदाभ्यां, नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ॥2॥
समस्तदुस्तर्क कलड्क पड्का -पनोदन प्रौढ जलाशयाभ्याम् ।
निराश्रयाभ्यां निखिलाश्रयाभ्यां, नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ॥3॥
तापत्रयादित्य करार्दितानां, छायामयीभ्यां अतिशीतलाभ्याम् ।
आपन्नसंरक्षण दीक्षिताभ्यां, नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ॥4॥
यतो गिरोऽप्राप्य धिया समस्ता, हिया निवृत्ताः सममेव नित्याः।
ताभ्यामजे शाच्युत भाविताभ्याम् , नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ॥5॥
ये पादुकापञ्चक मादरेण, पठन्ति नित्यं प्रयताः प्रभाते,
तेषां गृहे नित्यनिवासशीला , श्री देशिकेन्द्रस्य कटाक्षलक्ष्मीः ॥6॥

आँखेँ खोलो ॥

कहाँ दौड़ रहे हो ?
कहाँ भाग रहे ?
कहाँ भटक रहे हो ?
कहाँ माथा पटक रहे हो ?
कहाँ रेत पर महल बना रहे हो ?
कहाँ इन्द्र - धनुषके स्वप्न देख रहे हो ?
तुम नशे मेँ हो , तुम बेहोशीमेँ हो ।
तुम काँप रहे हो ,
तुम्हारे पैर डगमगा रहे हैँ ,
तुम जो कुछ कर रहे हो ,
बेहोशी मेँ कर रहे हो ।
जितना जल्दी हो सके जाग जाओ ,
वर्ना तुम्हारी पीड़ा बढ़ती जाएगी ,
तुम्हारी व्यथा फैलती जाएगी ,
तुम्हारी बीमारी असाध्य होती जाएगी ।
तुम उठो , जागो ,
तुम जाओ उनके पास , जो जागे हुए है ।

अमृत विन्दु ...

अमृत विन्दु ।
* एक नियम ग्रहण करेँ जीवनमेँ और कष्ट उठाकर भी उसका पालन करेँ । तब तपस्या हो जायगी ।
दुश्चरित्रताकी निवृतिके लिए धर्म को धर्म को धारण करेँ , वासनाकी निवृत्तिके लिए उपासना करेँ । राग - द्वेषकी निवृतिके लिए भक्ति करेँ । अभिमानके निवृतिके लिए शरणागति लेँ । अज्ञानकी निवृतिके लिए ज्ञान मार्ग पर चलेँ ।
* अज्ञान क्या है ? अपनेसे दूर किसी वस्तुको ढूँढना , उसका आदि - अन्त ढुँढना - दिशामेँ , वस्तुमेँ -यह बिल्कुल अज्ञान है । तब ज्ञान कहाँ है ? आप जहाँ बैठे हैँ बहीँ से आपका पूर्व शुरु होता है । हमारे दाहिने पूर्व है तो हमारे बायेँ पश्चिम है ।
* जब आप बाहर ढूँढने जायेँगे तो कहीँ आदि - अन्त नहीँ मिलेगा और जब अपने पास लौट आवेँगे तो इनका आदि - आपको अपने आप मिल जायेगा ।
* ईश्वरकी शरणागतिका अर्थ है - पूर्व , पश्चिम , उपर - निचे भटकना नही , अपने घर मेँ आजाना ।
* बात - बातमेँ तो चिढ़ते हैँ आप शान्ति कहाँसे मिलेगी , चिढ़ना छोड़देँ शान्ति आपके आगे खड़ी है । अपने मनकी तो जिद्द किये बैठेँ है , आपको शान्ति कहाँसे मिलेगी , जिद्द छोड़देँ शान्ति आपके पास खड़ी है । दूसरे को तो आप बेबकुफ समझते हैँ अपनेको समझदार समझते है आपको शान्ति कहाँसे मिलेगी ? आत्म निरिक्षण बाली जो दृष्टि है बह हमारे जीवन मेँ आनी चाहिए ।
नारायण । नारायण ।।
हरि । हरि ।।

श्रीमद्शंकराचार्य अष्टोत्तरशत् नामावलि :-

।।श्रीमद्शंकराचार्य अष्टोत्तरशत् नामावलि : ।।
+
.. श्री शंकराचार्य अष्टोत्तरशत नामावलिः .. श्रीशंकराचार्यवर्यो ब्रह्मानन्दप्रदायकः | अज्ञान तिमिरादित्यस्सुज्ञानाम्बुधि चन्द्रमाः || १|| १) ॐ श्री शंकराचार्यवर्याय नमः २) ॐ ब्रह्मानन्दप्रदायकाय नमः . ३) ॐ अज्ञानतिमिरादित्याय नमः . ४) ॐ सुज्ञानाम्बुधिचन्द्रमसे नमः वर्णाश्रमप्रतिष्टाता श्रीमान्मुक्तिप्रदायकः | शिष्योपदेशनिरतो भक्ताभीष्टप्रदायकः || २|| ५) ॐ वर्णाश्रमप्रतिष्ठात्रे नमः ६) ॐ श्रीमते नमः ७) ॐ मुक्तिप्रदायकाय नमः ८) ॐ शिष्योपदेशनिरताय नमः . ९) ॐ भक्ताभीष्टप्रदायकाय नमः सूक्ष्मतत्त्वरहस्यज्ञः कार्याकार्यप्रबोधकः | ज्ञानमुद्राञ्चितकरश्शिष्यहृत्तापहारकः || ३|| १०) ॐ सूक्ष्म-तत्त्व-रहस्य-ज्ञाय नमः ११) ॐ कार्याकार्यप्रबोधकाय नमः . १२) ॐ ज्ञान-मुद्राञ्चितकराय नमः १३) ॐ शिष्यहृत्तापहाराकाय नमः "तापत्रयाग्नि संतप्त साम्ह्लादन चन्द्रिका", परिव्राजाश्रमोद्धर्ता सर्वतन्त्रस्वतन्त्रधीः | अद्वैतस्थापनाचार्यस्साक्षाच्छंकररूपभृत् || ४|| १४) ॐ परिव्राजाश्रमोद्धर्त्रे नमः . १५) ॐ सर्वतन्त्रस्वन्त्रधिये नमः . १६) ॐ अद्वैत-स्थापनाचार्याय नमः.१७) ॐ साक्षाच्छंकररूपभृते नमः भव एव भवा निति मे नितरं समजायत चेतसि कौतिकिता मम वारय मोह महाजलधिं भव शंकर देशिकमे शरणम् शंकर शंकर साक्षाद् नारायण स्वयम् | तयोर् विवादे संप्राप्ते किंकरः किं करोम्यहम् || षण्मतस्थापनाचार्यस्त्रयीमार्ग प्रकाशकः | वेदवेदान्ततत्त्वज्ञो दुर्वादिमतखण्डनः || ५|| १८) ॐ षण्मतस्थापनाचार्याय नमः १९) ॐ त्रयीमार्गप्रकाशकाय नमः२०) ॐ वेदवेदान्ततत्त्वज्ञाय नमः . २१) ॐ दुर्वादिमतखण्डनाय नमः वैराग्यनिरतश्शान्तस्संसारार्णवतारकः | प्रसन्नवदनाम्भोजः परमार्थप्रकाशकः || ६|| २२) ॐ वैराग्यनिरताय नमः २३) ॐ शान्ताय नमः . २४) ॐ संसार्णवतारकाय नमः . २५) ॐ प्रसन्नवदनाम्भोजाय नमः २६) ॐ परमार्थप्रकाशकाय नमः पुराणस्मृतिसारज्ञो नित्यतृप्तो महाञ्छुचिः | नित्यानन्दो निरातंको निस्संगो निर्मलात्मकः || ७|| २७) ॐ पुराणस्मृतिसारज्ञाय नमः २८) ॐ नित्यतृप्ताय नमः . २९) ॐ महते नमः . ३०) ॐ शुचये नमः ३१) ॐ नित्यानन्दाय नमः . ३२) ॐ निरातंकाय नमः ३३) ॐ निस्संगाय नमः . ३४) ॐ निर्मलात्मकाय नमः निर्ममो निरहङ्कारो विश्ववन्द्यपदाम्बुजः | सत्त्वप्रधानस्सद्भावस्सङ्ख्यातीतगुणोज्ज्वलः || ८|| ३५) ॐ निर्ममाय नमः ३६) ॐ निरहङ्काराय नमः ३७) ॐ विश्व-वन्द्य-पदाम्बुजाय नमः . ३८) ॐ सत्त्वप्रधानाय नमः ३९) ॐ सद्भावाय नमः ४०) ॐ सङ्क्यातीतगुणोज्ज्वलाय नमः अनघस्सारहृदयस्सुधीस्सारस्वतप्रदः | सत्यात्मा पुण्यशीलश्च साङ्ख्ययोगविलक्षणः || ९|| ४१) ॐ अनघाय नमः ४२) ॐ सारहृदयसुधिये नमः . ४३) ॐ सारस्वतप्रदाय नमः I . ४४) ॐ सत्यात्मने नमः ४५) ॐ पुण्यशीलाय नमः ४६) ॐ साङ्ख्ययोगविलक्षणाय नमः तपोराशिर् महातेजो गुणत्रयविभागवित् | कलिघ्नः कालकर्मज्ञस्तमोगुणनिवारकः || १०|| ४७) ॐ तपोराशये नमः ४८) ॐ महातेजाय नमः . ४९) ॐ गुणत्रयविभागविते नमः ५०) ॐ कलिघ्नाय नमः . ५१) ॐ कालकर्मज्ञाय नमः ५२) ॐ तमोगुणनिवारकाय नमःभगवान्भारतीजेता शारदाह्वानपण्दितः | धर्माधर्मविभावज्ञो लक्ष्यभेदप्रदर्शकः || ११|| ५३) ॐ भगवते नमः ५४) ॐ भारतीजेत्रे नमः . ५६) ॐ धर्माधर्मविभावज्ञाय नमः ५७) ॐ लक्ष्यभेदप्रदर्शकाय नमः नादबिन्दुकलाभिज्ञो योगिहृत्पद्मभास्करः | अतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नित्यानित्यविवेकवान् || १२|| ५८) ॐ नादबिन्दुकलाभिज्ञाय नमः ५९) ॐ योगिहृत्पद्मभास्कराय नमः ६०) ॐ अतीन्द्रिय ज्ञाननिधये नमः . ६१) ॐ नित्यानित्यविवेकवते नमः चिदानन्दश्चिन्मयात्मा परकायप्रवेशकृत् | अमानुषचरित्राढ्यः क्षेमदायी क्षमाकरः || १३|| ६२) ॐ चिदानन्दाय नमः . ६३) ॐ चिन्मयातमने नमः ६४) ॐ परकायप्रवेशकृते नमः ६५) ॐ अमानुषचरित्राढ्याय नमः . ६६) ॐ क्षेमदायिने नमः ) ॐ क्षमकारय नमः भव्यो भद्रप्रदो भूरि महिमा विश्वरञ्जकः | स्वप्रकाशस्सदाधारो विश्वबन्धुश्शुभोदयः || १४|| ६८) ॐ भव्याय नमः ६९) ॐ भद्रप्रदाय नमः ७०) ॐ भूरिमहिम्ने नमः ७१) ॐ विश्वरञ्जकाय नमः ७२) ॐ स्वप्रकाशाय नमः ७३) ॐ सदाधारय नमः . ७४) ॐ विश्वबन्धवे नमः७५) ॐ शुभोदयाय नमः विशालकीर्तिर्वागीशस्सर्वलोकहितोत्सुकः | कैलासयात्रसंप्राप्त चन्द्रमौलिप्रपूजकः || १५|| ७६) ॐ विशालकीर्तये नमः ७७) ॐ वागीशाय नमः ७८) ॐ सर्वलोकहितोत्सुकाय नमः . ७९) ॐ कैलासयात्रसंप्राप्त चन्द्रमौलिप्रपूजकाय नमः कांच्यां श्रीचक्र राजख्य यन्त्र स्थापन दीक्षितः | श्रीचक्रात्मक ताटङ्क तोषिताम्बा मनोरथः || १६|| ८०) ॐ कांच्यां श्रीचक्र राजख्य यन्त्र स्थापन दीक्षिताय नमः ८१) ॐ श्रीचक्रात्मक ताटङ्क तोषिताम्बा मनोरथाय नमः ब्रह्मसूत्रोपनिषद्भाष्यादिग्रन्थकल्पकः | चतुर्दिक्चतुराम्नायप्रतिष्ठाता महामतिः || १७|| ८२) ॐ ब्रह्मसूत्रोपनिषद्भाष्यादिग्रन्थकल्पकाय नमः . ८३) ॐ चतुर्दिक्चतुराम्नायप्रतिष्ठात्रे नमः. ८४) ॐ महामतये नमः .द्विसप्तति मतोच्छेत्ता सर्वदिग्विजयप्रभुः | काषायवसनोपेतो भस्मोद्धूळितविग्रहः || १८|| ८५) ॐ द्विस्पतति मतोच्छेत्त्रे नमः . ८६) ॐ सर्वदिग्विजयप्रभवे नमः ८८) ॐ भस्मोद्धूळितविग्रहाय नमः . ज्ञानत्मकैकदण्डाढ्यः कमण्डलुलसत्करः | गुरुभूमण्डलाचार्योभगवत्पादसंज्ञकः || १९|| ८९) ॐ ज्ञानत्मकैकदण्डाढ्याय नमः ९०) ॐ कमण्डलुलसत्कराय नमः ९२) ॐ भूमण्डलाचार्याय . ९३) ॐ भगवत्पादसंज्ञकाय नमः 20 व्याससंदर्शनप्रीतः ऋष्यशृङ्गपुरेश्वरः | सौन्दर्यलहरी मुख्य बहुस्तोत्र विधायकः || २०|| ९४) ॐ व्याससंदर्शनप्रीताय नमःशन्ंकरश्शंकरस्साअक्षाद्व्यासो नारायण स्वयम् | तयोर् विवादे संप्राप्ते किंकरः किं करोम्यहम् || ९५) ॐ ऋष्यशृङ्गपुरेश्वराय नमः ९६) ॐ सौन्दर्यलहरी मुख्य बहुस्तोत्र विधायकाय नमः 21 चतुष्षष्टिकलाभिज्ञो ब्रह्मराक्षसपोषकः | श्रीमन्मण्डनमिश्राख्यस्वयंभूजयसन्नुतः || २१|| ९७) ॐ चतुष्षष्टिकलाभिज्ञाय नमः . ९८) ॐ ब्रह्मराक्षसपोषकाय नमः . ९९) ॐ श्रीमन्मण्डनमिश्राख्यस्वयंभूजयसन्नुताय नमः तोटकाचार्यसम्पूज्य पद्मपादर्चिताङ्घ्रिकः | हस्तामलयोगिन्द्र ब्रह्मज्ञानप्रदायकः || २२|| १००) ॐ तोटकाचार्यसम्पूज्याय नमः १०१) ॐ पद्मपादर्चिताङ्घ्रिकाय नमः १०२) ॐ हस्तामलयोगिन्द्र ब्रह्मज्ञानप्रदायकाय नमः सुरेश्वराख्य सच्छिष्य सन्यासाश्रम दायकः | नृसिंहभक्तस्सद्रत्नगर्भहेरम्बपूजकः || २३|| १०३) ॐ सुरेश्वराख्य सच्छिष्य सन्यासाश्रम दायकाय नमः १०४) ॐ नृसिंहभक्ताय नमः १०५) ॐ सद्रत्नगर्भहेरम्बपूजकाय नमः व्याख्यसिंहासनाधीशो जगत्पूज्यो जगद्गुरुः | इति श्रीमच्छंकराचार्यसर्वलोकगुरोः परम् || २४|| १०६) ॐ व्याख्यसिंहासनाधीशाय नमः best. १०७) ॐ जगत्पूज्याय नमः १०८) ॐ जगद्गुरवे नमः नाम्नामष्टोत्तरशतं भुक्तिमुक्तिफलप्रदं | त्रिसन्ध्यां यः पठेद्भक्त्या सर्वान्कामानवाप्नुयात् ||
।।श्रीमद्शंकराचार्य अष्टोत्तरशत् नामावलि सम्पूर्ण ।।

पाप प्रायश्चित हरिः स्मरण [परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।। ]

पाप प्रायश्चित हरिः स्मरण [परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।। ]


परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।।पाप प्रायश्चित हरिः स्मरणपापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः ।प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः ।।प्रायश्चित्तान्शेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै ।यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणंम्परम् ।।कृते पापे अनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते ।प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम् ।।प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्लादिषु संस्मरन् ।नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः ।।विष्णुसंस्मरणात्क्षीमसमस्तक्लेशसञ्चयः ।मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नो अनुमीयते ।।वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु ।तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम् ।।क्क नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् ।क्क जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् ।।तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो मुने ।न याति नरकं मर्त्य सङ्क्षीणाखिलपातकः ।।मनःप्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः ।नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ।।वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च ।कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ।।तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ।।तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम् ।मनसः परिणामो अयं सुखदुःखादिलक्षणः ।।
हे मैत्रेय, बड़े से बड़े से लेकर छोटे पापों के लिये स्वयम्भुव मनु (ध्रुव जी के पितामहः) आदि ने विभिन्न विभिन्न प्रायश्चित बताये हैं । ये सब प्रायश्चित जो तप कर्म आदि पर आधारित हैं, इस सभी में से कृष्ण भगवान् का अनुस्मरण करना (भगवान् को याद करना) सबसे श्रेष्ठ है ।जिस मनुष्य का हृदय पाप हो जाने के अनन्तर, तप्त हो रहा है (जो दुखी हो रहा है), उसके लिये तो एक ही सबसे परम प्रायश्चित है - और वो है हरि स्मरण । प्रातःकाल में, रात्रि में, सन्धया के समय, और मध्य रात्रि में जो मनुष्य भगवान को याद करता है, उसके सभी पापोंका अन्त हो जाता है और वह भगवान नारायण को प्राप्त करता है । भगवान विष्णु का संस्मरण करने के कारण उसके समस्त दुःख आदि क्षीण हो जाते हैं और वह मुक्ति भागी हो जाता है । ऍसे मनुष्य के लिये तो स्वर्ग भी एक विघ्न की तरह आंका जाता है । जिसका मन भगवान वासुदेव का ही जप, होम, अर्चन आदि (भगवान वासुदेव के ही याद करने) में लगा हुआ है, उसके लिये तो इन्द्रपद का फल भी कोई मायने नहीं रखता । कहां तो पुनर्जन्म की प्राप्ति करवाने वाला स्वर्ग और कहां मुक्ति का अनुत्तम (उत्तम से भी उत्तम) बीज (साधन) भगवान वासुदेव का जप ।इसलिये, हे मुनि, जो पुरुष इस मृत्यु लोक में दिन रात विष्णु भगवान को याद करता है (स्मरण करता है), उसके समस्त (अखिल) पापों का क्षय (अन्त) हो जाने के कारण वह नरक में नहीं जाता ।जो मन को प्रिय लगे वह स्वर्ग है और जो मन को विपरीत लगे वह नरक है । हे द्विजोत्तम, नरक और स्वर्ग ही पाप और पुण्य के दूसरे नाम हैं । जब वास्तव में एक ही वस्तु दुख भी दे सकती है, और सुख भी, और ईर्ष्या का कारण भी हो सकती है और क्रोध का भी, तो वास्तव में यह भाव उस वस्तु के कारण हैं ही कहां । कभी वही वस्तु प्रिय लगने के बाद दुख का कारण हो जाती है, और कभी क्रोध का कारण होने के बाद वही प्रसन्न का कारण बन जाती है । इसलिये, किसी भी वस्तु में न तो दुख है और न ही सुख । यह सुख और दुख तो मन से ही उत्पन्न होते हैं ।(सारः सुख और दुख मिलने के लिये किसी कारणों की भी आवश्यकता नहीं है । पाप का क्षय होने पर मनुष्य दुख के हवाले नहीं होता । पाप के क्षय का परम उपाय भगवान का ही है । उन्हें रात दिन याद करने पर मनुष्य के पापों का क्षय होता है । )।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।

तीन गुण : -सत रज तम

सत्व,रज और तम,यह तीन आत्मा के तीन तत्व है,संसार के प्रत्येक प्राणी में यह गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं,जिस प्राणी   मे जिस गुण की अधिकता होती है वह उन्ही लक्षणों की तरह से व्यवहार करता है,सत्व गुण ज्ञानमय है,तमोगुण अज्ञानमय है,और रजो गुण रागद्वेश मय होता है,सत्व गुण में प्रति प्रकाशरूप शान्ति होती है,रजोगुण में आत्मा की अप्रतीतिकर दुख कातरता और विशयभोग की लालसा होती है,तमोगुण मोह युक्त विषयात्मक,अविचार और अज्ञानकोटि मे आता है,इसके अतिरिक्त इन गुणो के उत्तम,मध्यम और निम्न लक्षण भी मिलते है,यथा सतोगुणी व्यक्ति मे वेदाभ्यास,तप,ज्ञान,शौच,जितेन्द्रियता,धर्मानुष्ठान,परमात्म चिन्तन के लक्षण मिलते है,रजोगुणी व्यक्ति के अन्दर सकाम कर्म मे रुचि,अधैर्य,लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मो का आचरण और अत्याधिक विषयभोग के लक्षण मिलते है,तमोगुणी व्यक्ति लोभी,आलसी,अधीर,क्रूर,नास्तिक आचारभ्रष्ट याचक तथा प्रमादी होता है.अतीत,वर्तमान,और आगामी क्रमानुसार भी सत्वगुण,रजो गुण और तमोगुण के शास्त्रो मे लक्षण बताये गये है.जो कार्म पहले किया गया हो,और अब भी किया जा रहा हो,और आगे करने मे लज्जा का अनुभव हो,उसे तमोगुणी कर्म कहते है,लोक प्रसिद्ध के लिये जो कार्य किये जाते है,उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुख होता है,इन्हे ही रजोगुण कर्म कहते हैं,जिस कार्य को करने में मनुष्य के अन्दर सदा इच्छा बनी रहे,और वह सन्तोषदायक हो,तथा जिसे करने पर मनुष्य को किसी प्रकार की लज्जा न हो,उसे ही सतोगुणी कर्म कहते है.प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक,कहा जाता है,रजो गुण अर्थ मूलक,और सतोगुण धर्म मूलक कहा जाता है,सतोगुणी व्यक्ति देवत्व को,रजोगुणी मनुष्यत्व को,और तमोगुणी तिर्यक योनियों को प्राप्त होता है.ऊपर वाली तीन गतियां भी कर्म और ज्ञान के भेद से तीन तीन प्रकार की है,जैसे अधम सात्विक,मध्यम सात्विक,और उत्तम सात्विक,और अधम राजसिक,मध्यम राजसिक,और उच्च राजसिक,अधम तामसिक,मध्यम तामसिक,और उच्च तमसिक आदि.महाराजा ' मनु  ' के अनुसार इन्द्रियगत कर्मो में अतिशय आसक्ति तथा धर्म भावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है,जिस विशय की तरफ़ इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है,उसी मे उतरोत्तर आसक्ति बढती जाती है,इससे मानव का वर्तमान तो बिगडता ही है,परलोक मे भी अति दुख और नरक पीडा भुगतनी पडती है,नरक का मतलब है कि निम्न कोटि की योनियो मे जन्म लेना पडता है,और अपार यातना सहनी पडती है,जिन भावनाओ से जो जो कर्म किये जाते है,उन्ही के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगने पडते है,संक्षेप मे प्रवृत्तिमार्गी कर्मो के यही परिणाम है,निवृत्ति मार्गी कर्मो के अनुसार वेदाध्ययन तप ज्ञान अहिंसा और गुरु सेवा आदि कर्म मोक्ष के कारक है,इनमे आत्म ज्ञान श्रेष्ठ है,यही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन कहा जाता है,ऊपर बताये गये सभी कर्म,वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट है,वैदिक कर्म मूलत: दो तरह के है-प्रवृत्ति मूलक,और निवृत्ति मूलक,पहले का अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि मे प्रवेश दिलाता है,और निवृत्ति मूलक कर्म से मोक्ष मिलता है.आत्मज्ञानी सर्वभूतो मे आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतो को देखता है,इससे उसे ब्रह्म पद की प्राप्ति होती है,यही कर्मज्ञ की पूर्णता है |
जय जय शंकर । हर हर शंकर ।

Tuesday, September 14, 2010

Bhaja Govindamभज गोविन्दं : - मूल संसकृत ,हिन्दी एवं अंग्रजी अनुवाद सहित

Bhaja Govindam भज गोविन्दं


भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥ हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥ O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as memorizing the rules of grammar cannot save one at the time of death. ॥1॥
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥ हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥ O deluded minded ! Give up your lust to amass wealth. Give up such desires from your mind and take up the path of righteousness. Keep your mind happy with the money which comes as the result of your hard work. ॥2॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥ स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥ Do not get attracted on seeing the parts of woman's anatomy under the influence of delusion, as these are made up of skin, flesh and similar substances. Deliberate on this again and again in your mind. ॥3॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥ जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥ Life is as ephemeral as water drops on a lotus leaf . Be aware that the whole world is troubled by disease, ego and grief. ॥4॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥ जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥ As long as a man is fit and capable to earn money, everyone in the family show affection towards him. But after wards, when the body becomes weak no one enquires about him even during the talks. ॥5॥
यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥ जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥ Till one is alive, family members enquire kindly about his welfare . But when the vital air (Prana) departs from the body, even the wife fears from the corpse. ॥6॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥ बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥ In childhood we are attached to sports, in youth, we are attached to woman . Old age goes in worrying over every thing . But there is no one who wants to be engrossed in Govind, the parabrahman at any stage. ॥7॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥ कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥ Who is your wife ? Who is your son? Indeed, strange is this world. O dear, think again and again who are you and from where have you come. ॥8॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥ सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥ Association with saints brings non-attachment, non-attachment leads to right knowledge, right knowledge leads us to permanent awareness,to which liberation follows. ॥9॥
वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥ आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥ As lust without youth, lake without water, the relatives without wealth are meaningless, similarly this world ceases to exist, when the Truth is revealed? ॥10॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥ धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥ Do not boast of wealth, friends (power), and youth, these can be taken away in a flash by Time . Knowing this whole world to be under the illusion of Maya, you try to attain the Absolute. ॥11॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥ दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥ Day and night, dusk and dawn, winter and spring come and go. In this sport of Time entire life goes away, but the storm of desire never departs or diminishes. ॥12॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२अ॥ बारह गीतों का ये पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२अ॥ This bouquet of twelve verses was imparted to a grammarian by the all-knowing, god-like Sri Shankara. ॥12A॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता,
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥ तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥ Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥ बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥ Matted and untidy hair, shaven heads, orange or variously colored cloths are all a way to earn livelihood . O deluded man why don't you understand it even after seeing.॥14॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥ क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥ Even an old man of weak limbs, hairless head, toothless mouth, who walks with a stick, cannot leave his desires. ॥15॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः,
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः,
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥ सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥ One who warms his body by fire after sunset, curls his body to his knees to avoid cold; eats the begged food and sleeps beneath the tree, he is also bound by desires, even in these difficult situations . ॥16॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं,
व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन,
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥ किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥ According to all religions, without knowledge one cannot get liberated in hundred births though he might visit Gangasagar or observe fasts or do charity. ॥17॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः,
शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥ देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥ Reside in a temple or below a tree, sleep on mother earth as your bed, stay alone, leave all the belongings and comforts, such renunciation can give all the pleasures to anybody. ॥18॥
योगरतो वाभोगरतोवा,
सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,
नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥ कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥ One may like meditative practice or worldly pleasures , may be attached or detached. But only the one fixing his mind on God lovingly enjoys bliss, enjoys bliss, enjoys bliss. ॥19॥
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥ जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥ Those who study Gita, even a little, drink just a drop of water from the holy Ganga, worship Lord Krishna with love even once, Yama, the God of death has no control over them. ॥20॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥ बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥ Born again, die again, stay again in the mother's womb, it is indeed difficult to cross this world. O Murari ! please help me through your mercy. ॥21॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो,
रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥ रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥ One who wears cloths ragged due to chariots, move on the path free from virtue and sin,keeps his mind controlled through constant practice, enjoys like a carefree exuberant child. ॥22॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्,
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥ तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥ Who are you ? Who am I ? From where I have come ? Who is my mother, who is my father ? Ponder over these and after understanding,this world to be meaningless like a dream,relinquish it. ॥23॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥ तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥ Lord Vishnu resides in me, in you and in everything else, so your anger is meaningless . If you wish to attain the eternal status of Vishnu, practice equanimity all the time, in all the things. ॥24॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥ शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥ Try not to win the love of your friends, brothers, relatives and son(s) or to fight with your enemies. See yourself in everyone and give up ignorance of duality everywhere.॥25॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः,
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥ Give up desires, anger, greed and delusion. Ponder over your real nature . Those devoid of the knowledge of self come in this world, a hidden hell, endlessly. ॥26॥

गेयं गीता नाम सहस्रं,
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,
देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥ भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥ Sing thousand glories of Lord Vishnu, constantly remembering his form in your heart. Enjoy the company of noble people and do charity for the poor and the needy. ॥27॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः,
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं,
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥२८॥ सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥ People use this body for pleasure which gets diseased in the end. Though in this world everything ends in death, man does not give up the sinful conduct. ॥28॥
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः,
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥ धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥ Keep on thinking that money is cause of all troubles, it cannot give even a bit of happiness. A rich man fears even his own son . This is the law of riches everywhere. ॥29॥
प्राणायामं प्रत्याहारं,
नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं,
कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥ प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥ Do pranayam, the regulation of life forces, take proper food, constantly distinguish the permanent from the fleeting, Chant the holy names of God with love and meditate,with attention, with utmost attention. ॥30॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं,
द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥ गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥ Be dependent only on the lotus feet of your Guru and get salvation from this world. Through disciplined senses and mind, you can see the indwelling Lord of your heart !॥31॥
मूढः कश्चन वैयाकरणो,
डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,
बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥ इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥ Thus through a deluded grammarian lost in memorizing rules of the grammar, the all knowing Sri Shankara motivated his disciples for enlightenment. ॥32॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥ गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥ O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as there is no other way to cross the life's ocean except lovingly remembering the holy names of God. ॥33॥

Sunday, September 12, 2010

ध्यान : -

ध्यान

वर्तमान में जीने को ध्यान कहते हैं। हमारी सारी ऊर्जा बाहर की ओर बह रही है, ध्यान द्वारा ऊर्जा को रोका जा सकता है। ध्यान का मतलब है हमारी सारी ऊर्जा अंदर की ओर मूड़ जाए, अभी हमारी ऊर्जा का केन्द्र दूसरों में स्थित है, इसलिए कोई हमारी प्रशंसा करता है, तो हम फूले नहीं समाते, कोई निंदा करता है, तो क्रोध से भर जाते हैं।होना तो यह चाहिए कि हम सब कुछ देखें, सब कुछ सुनें, फिर उस पर विचार करें। हमें क्या करना है, इसका निर्णय हमारा अपना होना चाहिए हर व्यक्ति अकेला है आप जैसा दूसरा व्यक्ति न पैदा हुआ था, न अभी है और न होगा।
आप अपने संस्कार साथ लेकर पैदा हुए, इसलिए मेरा जीवन कैसा है। मेरी परिस्थितियाँ कैसी हैं, मेरा स्वभाव कैसा है इन सब पर विचार करते हुए निर्णय होना चाहिए। ध्यान आपको वह समझ देता है, जिससे आप उचित निर्णय कर अपने जीवन को सुचारु रूप से चला सकें।
ऋषियों ने योग की जो व्यवस्था हमारे सामने रखी, उसमें ध्यान 7वीं सीढ़ी है। वास्तव में इसे 7वीं सीढ़ी न कहकर 15वीं सीढ़ी कहना चाहिए, क्योंकि सब से पहले दो अंग-यम और नियम 10 हैं। ऋषियों की यह व्यवस्था पूर्ण है और इसमें कोई त्रुटि नहीं है।
ध्यान का मतलब है अपना निरीक्षण करना। सबसे पहला काम आप करें, जो भी काम आप करते हैं, उसे पूरी निष्ठा, लगन तथा ईमानदारी से करें, बाकी सब कुछ शक्ति पर छोड़ दें। बस, यहीं से ध्यान की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
इसका अच्छा उदाहरण यह है: कौरव तथा पांडव दोनों अपने गुरु से धनुर्विद्या सीखते थे। एक दिन गुरु ने परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने दूर पेड़ बैठी एक चिड़िया को दिखाया और कहा कि चिड़िया की आँख को निशाना लगाओ। फिर गुरु ने एक-एक करके सभी शिष्यों से पूछा कि तुम्हे क्या दिखाई दे रहा है?
किसी ने कहा पेड़ दिखाई दे रहा है, किसी ने कहा पेड़ की शाखाएँ दिखाई दे रही हैं, किसी ने कहा टहनी पर बैठी चिड़िया दिखाई दे रही है, किसी ने कहा पत्ते दिखाई दे रहे हैं। अंत में अर्जुन ने कहा गुरुजी मुझे तो केवल चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है। यह सुनकर गुरु ने निशाना लगाने की आज्ञा उसे दे दी। अर्जुन ने चिड़िया की आँख को बेध दिया।रात में सोने से पूर्व आँखे बंद कर 10-15 मिनट तक अपने बिस्तार पर सीधे लेट जाएं और शरीर को पूरी तरह शिथिल कर दें। श्वास को स्वभाविक स्थिति में लें। फिर जो कुछ भी आपने दिनभर किया है, उसका विश्लेषण करें कि कहाँ आपने क्रोध किया, कहाँ आपने झूठ बोला, कहाँ आपसे अनुचित हुआ, कौन-सा अच्छा काम किया, कौन-सा गलत काम किया।इन पर पूरी तरह विचार करें और संकल्प करें कि जो अनुचित हुआ है, वह कल नहीं करना। कुछ दिन के अभ्यास से आप में परिवर्तन होना निश्चित है। ये सब अपने आप होने लगेगा, यह देखकर आप आश्चर्य करने लेगेंगे।जब जीवन का क्रम बदलेगा, यम और नियमों का पालन होने लगेगा तथा आपके आसन व प्राणायाम सधने लगेंगे। फिर यह एक साधना होगी। तब आपको ध्यान करना नहीं होगा, ध्यान हो जाएगा।

" प्रज्ञापराध " ( महानाश का कारण )

" प्रज्ञापराध " ( महानाश का कारण )


" प्रज्ञापराध " ( महानाश का कारण )प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम् । मानव - बुद्धि का अनवधानता से होने वाली भूलेँ ही रोगोँ का मूल कारण है । मानसिक रोगोँ का हेतु तो निश्चित रुप से प्रज्ञापराध ही है । - " ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये । मनोविकाराऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजा "।। अर्थात - जो भी मन के विकार हैँ वे सब प्रज्ञापराध से ही उतप्न्न होते हैँ । मानसिक नीरोगता की प्राप्ति का सर्वोपरि उपाय यही है कि इच्छाओँ मेँ अधिक आसक्ति न रख कर जीवन की आवश्यकताओँ को सीमित करेँ और साधन - बहुलता एवं अतिसंग्रह से दुर रहें । निश्चय ही संतोष और संयम मानसिक प्रसन्नता के आवश्यक अंग हैँ । ऋषियोँ ने गाया है - " स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्रो " ।। यानी मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता । तृष्णायुक्त धनवान दरिद्र से बुरा और तृष्णा विरत निर्धन , धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है । संतोष का सम्बल बहुत बड़ी शक्ति है । मन संतोषी होगा तो उसमेँ विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीँ । " ध्यायतो विषयान् पुसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृति भ्रशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। भगवद्गीता ।। विषयोँ पर निरन्तर ध्यान जमा रहने से वही मन मेँ रम जाते हैँ । मन और विषयोँ के इस संग - संयोग से कामवासना उत्पन्न होती है , और उसमेँ किँचित् भी व्यवधान पड़ा कि क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से सम्मोह अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है , उससे स्मृति का नाश हो जाता है । फिर यह ज्ञान नही रहता कि अमुक अहित आचरण से अमुक हानि हुई थी अथवा अमुक वस्तु खाने से अमुक दुःख हुआ था । इस प्रकार का ज्ञान न रहने से मनुष्य बार - बार भूलेँ करता है , उसे ही स्मृति नाश कहते हैँ । स्मृतिनाश से बुद्धिनाश हो जाता है और फिर सर्वनाश निश्चित् है । " रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति " ।। मनुष्य की बुद्धि राग - द्वेष से विमुक्त हो कर विषयोँ का सेवन करे तो अन्तरात्मा मेँ संतोष होता है , मनुष्य को स्वभाविक शान्ति सुलभ रहती है । मनःशान्ति और बुद्धि - नियमन आहार - विहार मेँ - नियमित होने से प्राप्त होते हैँ । " आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलाभे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ।। योगसुत्र ।। आहार की शुद्धता अर्थात खान - पान मेँ नियमित रहने से सत्त्व ( मन ) शुद्धि होती है । सत्त्व शुद्धि से स्मृति अर्थात बुद्धि संतुलित होती है । स्मृति शुद्ध से आत्मज्ञान वढ़ता है , जिससे मानसिक ग्रन्थीयोँ ( Complexes ) का पराभव होता है ।आहार नियम के अतिरिक्त मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है । मनोनिग्रह विषयासक्ति से निश्चित छुटकारा मिलता है । मनोनिग्रह सात्त्विक आचरणोँ से सुगमता पूर्वक साध्य होता है । सात्त्विक आचरणोँ की भूमिका का निर्माण संध्या - वन्दन , अग्निहोत्र , ध्यान , जप और दान आदि आदर्श प्रवृतियोँ से होता है । शरीर और मन का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है । शारीरिक क्षीणता से जब मस्तिष्क कमजोर होता है तो अनिद्रा ,अस्थिरता , भ्रभ , अशान्ति , भय , घबड़ाहट आदि लक्षण उत्पन्न होते है जो मानसिक उद्वेगोँ को बढ़ाते हैँ । बाल्यकाल मेँ हीँ वेदोक्त स्वस्थवृत का अभ्यास रहे तो रात - दिन परिश्रम करने पर भी शारीरिक क्षीणता नही होती और जीवन मेँ मानसिक आनन्द बना रहता है । छात्र जीवन आजकल कुछ विचित्र होता जा रहा है । शिक्षक गुरुओँ के प्राचीन दायित्व से कतराते हैँ और और छात्रोँ का संग भी कुछ विकृत होता जा रहा है , इस कारण बहुत पहले से हीँ बालक या तरुण का मानसिक और शारीरिक विकाश यथोचित नही हो पा रहा । इसलिए माता - पिता या अभिभावक को बालक के विकाश की ओर विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है ताकि उससे * प्रज्ञपराध * न बन पावे । " मानसिक स्वास्थ हमारे शारिरीक स्वास्थ की आधारशिला है " । स्वस्थ मन के बिना स्वस्थ शरीर की कल्पना गलत है । वस्तुतः शरीर की प्रमुख संचालिका गति - शक्ति मन हीँ तो है । मन ही मस्तिष्क है । शरीर उसका आवरण मात्र है। मेरे मित्र । भीतर के तत्त्व का सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव आवरण पर होता है। मेरे मित्र । मन की स्थिति का प्रतिबिम्ब शरीर पर निश्चित पड़ता है । यही कारण है कि क्रोधी , लोभी , कामी और ईष्यालु मनःस्थिति वाले मनुष्योँ की आकृति एवं शारीरिक स्थिति मेँ स्पष्ट विभिन्नता दिखाई देती है । क्रोधी व्यक्ति का शरीर सुखा - सा और मुखाकृति रूखी एवं कठोर देखने मेँ आती है । जिसका अन्तःकरण स्वस्थ होगा , उसका शरीर निश्चित ही स्वस्थ होगा । " मन तो बिज है। मेरे मित्र । बिज के अनुरुप ही बृक्ष और फल होता है । अशक्त बीज से सशक्त बृक्ष और फल मिलता हीँ नहीँ । इसलिए शारीरिक स्वास्थ की उत्तमता के लिए मानसिक स्वास्थ की उत्कृष्टता निश्चित ही अनिवार्य है । इस लिए ,मेरे मित्र हमारा मन सदा स्वस्थ रहे , इसके लिए दैनिक जीवन मेँ संयम - नियम , संतोष और मनोनिग्रह का अभ्यास निरन्तर करना चाहिए । इस अभ्यास का सर्वोत्तम साधन अध्यात्म - भावना पूर्वक परमात्मा की उपासना करना है । इसके लिए आपको कोई धन खर्च करना न पड़ेगा , बस थोड़ा ध्यान , थोड़ा स्मरण और थोड़ा अपने तरफ लोटने का प्रयत्न करना है । नारायण । नारायण ।। नारायण ।।। 

प्रिय साधक मित्रोँ - तीन बातेँ ध्यानमेँ रखेँगे - आपका भला होगा ...

प्रिय साधक मित्रोँ - तीन बातेँ ध्यानमेँ रखेँगे - आपका भला होगा ...


1:-पहली बात , ईश्वर आपको वैराग्यकी ओर चला रहा है कि राग - द्वेषकी ओर ? ईश्वर जब प्रसन्न होकर चलाता है तो वैराग्यकी ओर चलाता है , अन्तर्मुख बनाता है , जब ईश्वरकी प्रेरणा - ईश्वरकी कृपा उसमेँ प्रत्यक्ष होती है ।  2: - दूसरी बात है , शास्त्रमेँ ईश्वरका जो स्वरूप बताया गया है , उसीके अनुसार आपको ईश्वरका दर्शन हुआ है कि मनमाने ढंगका हुआ है ? अगर मनमाने ढ़ंगका ईश्वरका दर्शन हुआ है तो उनमेँ आपकी वासना जुड़ी हुई है । वासनाका नाश तो शास्त्रोक्त पद्धतिसे होता है । प्राकृत - पद्धतिसे से वासनाकी पूर्ति होती है , विकृति होती है । संस्कृति शास्त्रसे आति है । संस्कार शास्त्रसे उत्पन्न किया जाता है और प्रकृतिसे विकार आता है । इसलिए , जो लोग कहते हैँ कि हम पशुओँकी रहनी देखकर कर्तव्यका निर्णय करेगेँ या भोजनका निर्णय या औषधिका निर्णय करेँगे - वह गलत है । शालग्रामकी मूर्ति , राधाकृष्णकी मूर्ति संस्कार करके बनानी पड़ेगी । और , स्त्री - पुरषका जो प्रेम है वह विकारसे ही हो जायगा , परन्तु ईश्वरसे प्रेम , गुरु - दीक्षा , शास्त्रका स्वाध्याय , सतसंग - ये सब भावनाकी उत्पतिसे होगा ।    देखना यह है कि आपका  अनुभव शास्त्रके संस्कारसे अनुविद्ध है कि विरुद्ध है ? यदि आपके भाव शास्त्र संस्कारके अनुरोधी हैँ , तो वे ईश्वरकी प्रेरणा हैँ और यदि शास्त्र विरोधी भाव उठते हैँ तो वे आपके लिए साधन नही है , कृपा नही हैँ ।  3 :- तीसरी बात है , माता - पिताके दिए हुए शरीर और ज्ञानकी अपेक्षा , ईश्वरकी प्राप्तिके मार्गमेँ , गुरुका दिया हुआ शरीर , गुरुका दिया हुआ भाव , अपने लिए विशेष उपयोगी होता है । गुरुने आपके हृदयमेँ जिस रूपका - सखी , सखा , जिज्ञासु , सेवक , दासी , दास , पत्नि आदिके रूपका संस्कार ड़ाला है , उस संस्कारके अनुसार ईश्वरकी ओर चलेगेँ तो ईश्वरकी सच्ची प्राप्ति होगी । मेरे नारायण । इन तीनोँ बातो पर जब आप दृढ़ रहेँगे तो पर्दे पर पर्दा हटता जायेगा और भीतर जो चीज है बाहर आ जायेगा । श्रीमद्मागवत जी मेँ बताया गया है कि - भगवान के दिव्य रूपका दर्शन , उनके साथ बातचीत  - ये सारी बातेँ होती हैँ और , जो उस मार्गमेँ दृढ़ नही होता है , उसको अन्तर्देशके जो रहस्य हैँ , वे प्रकट नही होते हैँ । तो भाई . साधनाके मार्ग जो अग्रसर होता है , उसके लिए कुछ भी असम्भव नही है ।                                         +जय जय शंकर । हर हर शंकर ।। केदार शंकर । काशी शंकर ।। जय जय शंकर । हर हर शंकर ।। कांची शंकर । कामकोटी शंकर ।। जय जय शंकर । हर हर शंकर ।। कैलाश शंकर । कालटी शंकर ।। जय जय शंकर । हर हर शंकर ।। साम्ब शंकर । सदाशिव शंकर ।। जय जय शंकर । हर हर शंकर ।।