Wednesday, September 15, 2010

पाप प्रायश्चित हरिः स्मरण [परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।। ]

पाप प्रायश्चित हरिः स्मरण [परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।। ]


परहित सरिस धरम नही भाई । परपीड़ा सम नहि अधमाई ।।पाप प्रायश्चित हरिः स्मरणपापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः ।प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायम्भुवादयः ।।प्रायश्चित्तान्शेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै ।यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणंम्परम् ।।कृते पापे अनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते ।प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम् ।।प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्लादिषु संस्मरन् ।नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयान्नरः ।।विष्णुसंस्मरणात्क्षीमसमस्तक्लेशसञ्चयः ।मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नो अनुमीयते ।।वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु ।तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम् ।।क्क नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् ।क्क जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् ।।तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो मुने ।न याति नरकं मर्त्य सङ्क्षीणाखिलपातकः ।।मनःप्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः ।नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ।।वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च ।कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ।।तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ।।तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम् ।मनसः परिणामो अयं सुखदुःखादिलक्षणः ।।
हे मैत्रेय, बड़े से बड़े से लेकर छोटे पापों के लिये स्वयम्भुव मनु (ध्रुव जी के पितामहः) आदि ने विभिन्न विभिन्न प्रायश्चित बताये हैं । ये सब प्रायश्चित जो तप कर्म आदि पर आधारित हैं, इस सभी में से कृष्ण भगवान् का अनुस्मरण करना (भगवान् को याद करना) सबसे श्रेष्ठ है ।जिस मनुष्य का हृदय पाप हो जाने के अनन्तर, तप्त हो रहा है (जो दुखी हो रहा है), उसके लिये तो एक ही सबसे परम प्रायश्चित है - और वो है हरि स्मरण । प्रातःकाल में, रात्रि में, सन्धया के समय, और मध्य रात्रि में जो मनुष्य भगवान को याद करता है, उसके सभी पापोंका अन्त हो जाता है और वह भगवान नारायण को प्राप्त करता है । भगवान विष्णु का संस्मरण करने के कारण उसके समस्त दुःख आदि क्षीण हो जाते हैं और वह मुक्ति भागी हो जाता है । ऍसे मनुष्य के लिये तो स्वर्ग भी एक विघ्न की तरह आंका जाता है । जिसका मन भगवान वासुदेव का ही जप, होम, अर्चन आदि (भगवान वासुदेव के ही याद करने) में लगा हुआ है, उसके लिये तो इन्द्रपद का फल भी कोई मायने नहीं रखता । कहां तो पुनर्जन्म की प्राप्ति करवाने वाला स्वर्ग और कहां मुक्ति का अनुत्तम (उत्तम से भी उत्तम) बीज (साधन) भगवान वासुदेव का जप ।इसलिये, हे मुनि, जो पुरुष इस मृत्यु लोक में दिन रात विष्णु भगवान को याद करता है (स्मरण करता है), उसके समस्त (अखिल) पापों का क्षय (अन्त) हो जाने के कारण वह नरक में नहीं जाता ।जो मन को प्रिय लगे वह स्वर्ग है और जो मन को विपरीत लगे वह नरक है । हे द्विजोत्तम, नरक और स्वर्ग ही पाप और पुण्य के दूसरे नाम हैं । जब वास्तव में एक ही वस्तु दुख भी दे सकती है, और सुख भी, और ईर्ष्या का कारण भी हो सकती है और क्रोध का भी, तो वास्तव में यह भाव उस वस्तु के कारण हैं ही कहां । कभी वही वस्तु प्रिय लगने के बाद दुख का कारण हो जाती है, और कभी क्रोध का कारण होने के बाद वही प्रसन्न का कारण बन जाती है । इसलिये, किसी भी वस्तु में न तो दुख है और न ही सुख । यह सुख और दुख तो मन से ही उत्पन्न होते हैं ।(सारः सुख और दुख मिलने के लिये किसी कारणों की भी आवश्यकता नहीं है । पाप का क्षय होने पर मनुष्य दुख के हवाले नहीं होता । पाप के क्षय का परम उपाय भगवान का ही है । उन्हें रात दिन याद करने पर मनुष्य के पापों का क्षय होता है । )।। ॐ नमः भगवते वासुदेवाये ।।

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