Friday, December 9, 2011

ब्रह्म क्या है ? -

intermediary ) की आवश्यकता नहीँ ।

                                                              !!श्रीआद्यशंकरभगवत्पाद !!
                                                           
                                        
ब्रह्म क्या है ? -
श्रुतिभगवती ने उपदेश कर दिया " तच्च ब्रह्म परोक्षभिहितम् " अर्थात् सब कुछ जो है वह ब्रह्म है । लेकिन सब कुछ परोक्ष है । जो कुछ भी हमारे अनुभव मेँ आ रहा है , परोक्ष है , परोक्ष है , क्योँकि कुछ न कुछ बीच मेँ पर्दा रहता है । सोचते है कि सामने दरबाजा दीख रहा है । विचार करके देखेँ तो पता चलता है कि बीच मेँ कई पर्दे पड़े हुए है । पहले उसमेँ प्रकाश पर्दा पड़ा हुआ है । प्रकाश न हो तो दरबाजा कुछ और ही नजर आता है , मेरे भाई । इतना ही नहीँ , दरबाजे पर पेँट हुआ है , उसकी लकड़ी को छीला हुआ है , यह भी उसका पर्दा है । फिर आँख का पर्दा , आँख के द्वारा देख रहे हैँ , इसलिए आँख मेँ जितनी कमियाँ होँगी उनसे युक्त होकर दरबाजा दिख रहा है । मन का पर्दा पड़ा हुआ है। मन के संस्कारोँ के अनुसार दिखेगा । फिर अहं , अविद्या इत्यादि के पर्दे मान लेँ । हर हालत मेँ जिस पदार्थ को एतद् अथवा इदं शब्द से देख रहे हैँ वह कभी भी हम साक्षात् समझ मेँ नहीँ आता । वह हमेशा परोक्ष ही बना रहेगा । जब कहा " सव्र हि एतद् ब्रह्म " तो ब्रह्म परोक्ष ब्रह्म है। इन सब रूपोँ मेँ आने वाला ब्रह कैसा है ? यह पता नहीँ लगा । यह सारे रूप धारण करके जो आता है । जैसे सिनेमा देखने वाले को यह पता है कि अभुक एक्टर भीम कैसे बनता है या अमुक अर्जुन कैसे बनता है , लेकिन जब वह यह सब नहीँ बना हुआ है तब कैसा होता है ? यह किसी को पता नहीँ लगता । इसी प्रकार इन सब रूपो को लेकर ब्रह्म आ रहा है , इन सब रूपोँ मेँ ब्रह्म है , लेकिन उस ब्रह्म का रूप सचमुच कैसा है ? जब वह सब रूप नहीँ लेता है तब कैसा है ? ब्रह्म का परोक्ष रूप से ज्ञान तो हो गया , अब अति अनुग्रह करके श्रुतिभगवती कहती है - " प्रत्यक्षतः विशेषेण निर्दिशति " तुमको हम उसका अपरोक्ष , प्रत्यक्ष रूप बता देते हैँ जहाँ किसी प्रकार का व्यवधान नहीँ है ।
वह कौन सा रूप है ? " अयमात्मा ब्रह्म " जो तुम्हारा अपना स्वरूप है , वह ब्रह्म है । यह उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया । अपने आप को जानने के लिए आप को रोशनी की जरूरत नहीँ है । रोशनी न हो और आप से कोई पूछे कि तु कहाँ बैठे है , तो यह कोई कहता है " मेरे को पता नहीँ क्योँकि अंधेरा है । " प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि मैँ हूँ । कोई व्यक्ति मरा है या नहीँ , इसका पता तब लगेगा कि डाक्टर पहले नाड़ी देखेगा , आँखे देखेगा , हृदय देखेगा । फिर निश्चय होता है कि मर गया । अगर किसी आदमी से पूछेँ कि तू जिन्दा है या मरा , तो क्या वह कहता है कि पहले स्टेथोकोप आ जाये तो पता लगे ? दूसरा मरा या नहीँ , इसका तो पता लगाना पड़ता है , लेकिन अपना स्वरूप तो प्रत्यक्ष सिद्ध है । इसके लिए किसी इन्द्रिय की जरूरत नहीँ है । गहरी निँद मेँ इसका पता लगता है । वहाँ से जब सोकर उठता है तो उससे अगर पूछे कि कैसा था तो कहता है कि बड़े आनन्द से था । यह नहीँ कहता कि पता नहीँ कि जिन्दा था या मर गया था । यहाँ मन भी नहीँ था लेकिन वह स्वयं था । अपना आपा नित्य अपरोक्ष है । यह प्रत्यक्ष है , इसमेँ किसी प्रकार के व्यवधान (
यदि आप उस ब्रह्म के वास्तविक स्वरूपको समझना चाहेँ तो जो कुछ इदं रूप से अनुभव होता है वह सब उसके उपर पर्दा हुआ और जब आप उसको अहम् रूप से अनुभव करते हैँ तो वह उसका पर्दारहित रूप है । अहं के उपर कुछ न कुछ पर्दा लगाकर देखने के आदि हो गये हैँ । इस लिये तो कोई कहता है मैँ ब्राह्मण हूँ । ब्राह्मण तो आप शरीर रूप उपाधि से हो मेरे भाई । इस जन्म के पहले आप हो सकते हो चमार रहे हो या अगले जन्म मेँ इंगलैण्ड मेँ म्लेच्छ पैदा हो जाओ । शरीर को लेकर ही ब्राह्मणत्व धर्म है । मैँ महामुर्ख हूँ , यह बुद्धि की उपाधि है । आपकी बुद्धि मूर्ख हो सकती है । मैँ तो वहाँ वैसा का वैसा है । उसमेँ क्या फरक पड़ता है ? यह उपाधि आपका रूप नहीँ है । आप स्वयं अपरोक्ष ब्रह्म हो । यह उपाधि तो सर्वम से कह दी गई । इसलिये भगवान गोड़पाद कहते हैँ - " विशेषेण निर्दिशति "
संसार मेँ लोग परमेश्वर को किसी अन्य रूप मेँ पकड़ना चाहते है लेकिन वह रूप परमेश्वर का अपना रूप कभी नहीँ हो सकता । क्योँकि अपने से भिन्न जड़ होता है । जिस चीज को हम देखते है वह जड़ है । दूसरे आदमी को नहीँ देखते , उसके शरीर को हम देखते हैँ और वह शरीर जड़ है । उस शरीर मेँ बैठने वाले को देखने का हमारे आपके पास कोई तरीका नहीँ है । जब कभी आप अपने से भिन्न किसी को देखोगे तो उसके उपाधि को , जड़रूपता को पकड़ेँगे । जब अहं अर्थात् मैँ को पकड़ते हैँ तब चेतन का स्पर्श है । " मैँ " इस ज्ञान मेँ किसी प्रकार का जड़ पकड़ मेँ नहीँ आता बल्कि चेतन पकड़ मेँ आता है , और ब्रह्म चेतन स्वरूप है । आपको सामने पहाड़ दिखाई दे रहा है । पहाड़ का ज्ञान हो रहा है लेकिन पहाड़ का ज्ञान किसको ? आपको हो रहा है । बिना पहाड़ का और आपका सम्बन्ध हुए पहाड़ का ज्ञान नही हो सकता और सिवाय ज्ञान के पहाड़ मेँ कोई प्रमाण नहीँ। किसी दूसरे ने बता दिया कि नैनीताल का पानी बिल्कूल खराब हो गया है , उसमेँ जहरीली घास आ गई है , तो वहाँ भी जब आप आपको बताया और वह आपको ज्ञान हुआ तभी नैनीताल के पानी के अन्दर खराबी है यह आपको प्रमाणिक ज्ञान हुआ । इसलिए बिना ज्ञान से सम्बन्धित हुए कोई भी चीज़ ज्ञात नहीँ होती अर्थात् जानी नहीँ जाती । बिना ज्ञान के किसी पदार्थ की सिद्धि नहीँ । किसी भी चीज़ को जानेँगे तभी वह सिद्ध होगी , उसके पहले नहीँ । तो सीधी ही कह देँ कि मैँ हमेशा चेतन ज्ञानस्वरूप हूँ । मेरे साथ अगर हिमालय पहाड़ का तादात्म्य हो गया तो मैनेँ हिमालय पहाड़ को जाना . वह पहाड़ मेरी ही उपाधि बन गया । इसलिए जहाँ जहाँ जिस किसी चीज़ को देख रहे हैँ , देखने के साथ ही वह चीज़ आपकी ही उपाधि बन रही है । इन सब उपाधियोँ को धारण करने वाले आप ही ब्रह्मरूप हो । ऐसा नहीँ कि कोई दूसरा ब्रह्म इन रूपोँ को धारण करके आ रहा है । इसलिए सारे जगत् की उपाधियोँ को आपका अपना ज्ञान ही धारण करता जा रहा है और आप स्वयं ही ब्रह्मरूप हो । इसलिये श्रुतिभगवती ने कहा " अयमात्मा ब्रह्म " " अयं " शब्द के द्वारा क्या बताया ? सामने पड़ी चीज को जब आदमी हाथ से दिखाकर कहता है " यह " । किसी चीज़ को कहने की इच्छा वाला व्यक्ति , उस चीज़ का ज्ञान स्पष्ट हो जाये , इसके लिए जो शरीर से कोई विशिष्ट काम करता है उसको अभिनय कहते हैँ । भगवान् भाष्यकार श्रीआद्य शङ्कर कहते है - " अयमिति चतुष्पात्त्वेन प्रविभज्यमानं प्रत्यगात्मतयाभिनयेन निर्दिशति " अभिनय का मतलब क्या होता है ? " विवक्षितार्थप्रतिप्रत्त्यर्थमसाधारणः शारीरो व्यापारः " हम जिस चीज को कहना चाह रहे हैँ , जो विवक्षित अर्थ है उसका आपको ज्ञान हो इसके लिये किया शारीरिक इशारा । जैसे किसी को केवल मुख से कहा कि यह दरी लाल है तो उसका ज्ञान उतना स्पष्ट नहीँ होता है , लेकिन अगर शरीर व्यापार से दिखा देँ कि " यह दरी " तो झट उसके अनुसार ही चीज को जानते हैँ और ज्ञान हो जाता है । केवल मुख से कहने पर व्यक्ति दाँयेँ बायेँ देखता है कि किधर की दरी की बात कर रहे हैँ। अगर केवल इतना कहेँ कि यह मदन है , तो किसी को पता नहीँ लगेगा । यदि शरीर व्यापार से बता दिया कि यह मदन है , तो मनुष्य की आँख वहाँ टिक जायेगी । ठीक इसी प्रकार यदि श्रुतिभगवती ने " अयम् " इसको अभिनय से न बताया होता तो ज्ञान न होता । आप कहोगे कि श्रुति तो ग्रन्थ हुआ । हमारे आचार्यो ने श्रुति को चेतन माना है । यह बात ठीक से समझेँगे । कारण क्या है ? हमारे आचार्यो ने श्रुति को ग्रन्थ नहीँ माना । श्रुति का अर्थ होता है सुनी जाये । गुरु के मुख से सुनने पर ही हम वेद को श्रुति कहते है ।
शिव ! शिव !! आप चाहे जितनी पुस्तकोँ को बाँच लो , पढ़ लो उसको आचार्यगण श्रुति या वेद नहीँ कहते । श्रुति पारिभाषिक शब्द है अर्थात् जो सुनी जाये । हमारी परम्परा मेँ ब्राह्मणोँ के पूजन का आधार ही यह है । हमलोग ब्राह्मणोँ का पूजन करते है । कई बार लोग शङ्का करते है कि कोई ब्राह्मण " महाकामुक " हो , क्रोधी हो तो क्या उनका भी पूजन कहते हैँ कि जरूर करना चाहिये । क्योँ करना चाहिये ? जैसे कुरान यदि किसी अखबार के कागज पर , मोटे कागज पर लिखी हो , स्याही भी ठीक छपी न हो तो क्या उस कुरान की किताब को मुसलमान पूजा नहीँ मानता ? उस पर कुरान लिखी है इसलिए उस विषय को लेकर पूज्5?कर पूज्य है । कागज या स्याही का पूजन थोड़े ही है । यद्यपि बाहर से किताब की पूजा हो रही है लेकिन उस किताब मेँ जो लिखा हुआ है , उसकी पूजा हो रही है , कागज की नहीँ । अगर वही कागज , स्याही अलग - अलग पास मेँ रख दो तो मुसलमान उसकी पूजा नहीँ करेगा ! ठीक इसी प्रकार से ब्राह्मण को वेद का अध्ययन कराया गया है। ब्रह्म नाम वेद का है । उसने वेद का अध्ययन किया है । उसके शरीर मेँ , दिमाग मेँ , बुद्धितत्त्व मेँ वेद मंत्र लिखे हुए हैँ । जैसे वह कागज मोटा हो सकता है . खराब स्याही से छपा हुआ हो सकता है । इसी प्रकार ब्राह्मण का जो शरीर है , वह कामुक , क्रोधी , लोभी भी हो सकता है। काम , क्रोध , लोभ के कारण उसकी कीमत तो अपने लिये घटती - बढ़ती रहेगी , क्योँकि उसने खुद फायदा नहीँ उठाया तो नरक वह जायेगा । लेकिन उसके हृदय मेँ जो वेद लिखा हुआ है , वह तो ठीक ही लिखा हुआ है । हम लोग चूँकी श्रुति को चेतन मानते है , इसलिये चेतन जो मनुष्य है , उसके उपर उसके दिमाग मेँ वैदिक मंत्र लिखे हुए हैँ , अतः हम उसी को ग्रन्थ मानकर उसकी पूजा करते है ।
ऐसा मानने मेँ हेतु क्या है ? किसी भी भाषा का हमेशा एक रूप नहीँ रह सकता । शब्370?प बदलता रहता है , शब्दोँ का कालान्तर मेँ बुरे भाव वाला हो जाता है । बहुत प्रसिद्ध शब्द है - " राक्षस " " रक्ष एव राक्षसः " राक्षस का मतलब होता है जो रक्षा करने वाला होता है । रक्ष धातु से राक्षस शब्द बना । वर्तमान मेँ जो महादुष्ट हो उ𹨛्ट हो उसे राक्षस कहते हैँ । फिर मन मेँ आता है कि अगर इसका अच्छा मतलब था तो राक्षस का मतलब बुरा क्योँ ? जो आपकी रक्षा करता है , उसी के हाथ मेँ जब शक्ति अधिक दिन तक रहने लगती है तो वही अत्याचारी बनने लगता है । इसलिए वही राक्षस हो गया । पहले जो राक्षा के लिये नियत था , वही जब शक्ति का दुरुपयोग करने लगा तो उसे राक्षस कह दिया। अथवा " असुर " शब्द है । वेदोँ मेँ " असुर " शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिये हुआ है । इन्द्र को कई जगह असुर कहा है। लेकिन वर्तमान मेँ इसका अर्थ भी बुरा हो गया है । " असु " नाम प्राणोँ का है । गीताकार - भगवान् ने श्रीगीता जी मेँ गाया है - " गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः " । जिसे प्राण चलाये और जिसे प्राण न चलाये वह जिन्दा या मरा है । प्राण जिसमेँ खूब रमण करे अर्थात् प्राणशक्ति जिस समय प्रबल हो , वह " असुर " कहा जायेगा । परमेश्वर से अधिक बल वाला कौन होगा ? इसलिये प्राचीन काल मेँ यह शब्द प्रशंसावाची है । उसी शब्द का अपभ्रंश होकर " अहुर्रमजदा " फारसी मेँ परमेश्वर का नाम ही माना गया है । जो बल वाला होता है वही आगे चलकर लोगोँ को दबाने लगता है । जब वह दबाने लगा तो इस शब्द मेँ बुरा भाव आ गया और बुरे अर्थ मेँ यह शब्द रूढ हो गया । हर हालत मेँ शब्दोँ का भाव बहुत ज्यादा बदल जाता है । आज यदि कोई चाहे कि हम " ऋग्वेद " के " असुर " शब्द को लेकर इन्द्र को बुरा सिद्ध करे क्योँकि इसका रूढार्थ वही है तो सारा गड़बड़ हो जायेगा । ये थोड़े से शब्द हैँ , ऐसे अनेक शब्द हैँ जिनका भाव कालान्तर मेँ बदल जाता है । और यदि जड़ पुस तक का सहारा लेँगे तो कभी भी " इदमित्थं " भाव से निश्चय नहीँ हो सकता कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है।
हम लोगोँ ने इसका बचाव ऐसे किया कि शब्द वही रहे लेकिन उसका श्रवण उसके मुख से किया जाये जिसने परम्परा से अध्ययन किया हो । उसने गुरु से उसका अर्थ समझा , गुरु ने आगे अपने गुरु से जाना । इस प्रकार शब्द वे सब रहने पर भी ज्ञान कराने के लिये अर्थ वर्तमान भाषा मेँ बताये । यदि आप कहो कि वे भाषा मेँ ही लिख देते तो क्या हर्ज था ?
शिव ! शिव !! भाषा मेँ अगर लिखते तो समस्या फिर वही होती कि तीन सौ साल बाद उसका अर्थ कौन समझता ? इसलिये हमने माना कि समझाने का काम चेतन अपनी भाषा मेँ करता चला जाये , सहारा वेद मन्त्रोँ का रहे । बजाय इसके कि हर सौ पचास साल बाद एक नया अनुवाद लिखेँ , व्यक्ति प्रधान होगा । दूसरी बात चाहे जितना अनुवाद करेँ हर आदमी एक सा नहीँ समझता। सामने बैठे हैँ तौ नजर से नजर मिलाकर देखते है कि यह शब्द समझ मेँ नहीँ आया तो दूसरे शब्द से कहेँ । इसलिये श्रुति हमारे यहाँ चेतन है । उलटा अर्थ नहीँ कि पैर होते होँगे और चलती होगी ।
श्रुति केवल चेतन व्यक्ति से श्रवण की जाती है , इसलिये चेतन के अभिनय द्वारा भगवान् भाष्यकार बता रहे हैँ कि गुरु जब शिष्य कौ उपदेश देता है तब अभिनय करके श्रुति कह रही है । गुरु बतायेँगे " अयमात्मा ब्रह्म " जिसका आपको अनुभव हो रहा है , आप जिसके द्वारा सबका अनुभव कर रहे हो वही तुम । यदि अभिनय न करके केवल " आत्मा ब्रह्म " कहा गया होता हो आदमी समझता कि ब्रह्म जैसे बड़ी चीज , वैसे ही आत्मा कोई दूसरा होगा । ब्रह्म नपुंसक लिँग वाला और आत्मा पुल्लिँग वाला , इसलिये संसार के दो परमेश्वर हैँ - एक आत्मा और एक ब्रह्म । जैसे कहीँ स्रीलिँग शक्ति वाचक शब्द का प्रयोग और कहीँ शिववाचक पुल्लिँग शब्द का प्रयोग कर लिया तो समझते हैँ कि शिव शक्ति दो जरूर है । वे नहीँ समझ पाते कि वही जिस समय किसी कार्य को नहीँ करता है उसी को शिव , वही जिस समय अपने धर्म को प्रकट करता है उस समय उसको शक्ति कह दिया जाता है । जैसे अंग्रेजी मेँ दो शब्दोँ का प्रयोग होता है " काइनैटिक एनर्जी " और " पोटैँश्यल एनर्जी"\। जिस समय वह एनर्जी काम करने लगी , स्पष्टता के लिये उसे " काइनैटिक " कह दिया । जिस समय वह काम नहीँ करती है उस समय उसे " पोटैँश्यल " कह दिया । इसी प्रकार शिव शक्ति दो चीज नहीँ । स्रीलिँग और पुल्लिँग शब्दो को देखकर कल्पना करते है कि दुनिया को चलाने वाली एक औरत और एक मर्द होँगे । जैसे घर मेँ औरत और मर्द चलाने वाले हैँ । ऐसी भिन्न - भिन्न कल्पनायेँ कर लेते हैँ । इसलिये " अयमात्मा " के द्वारा बताया कि आत्मा कोई दूसरी चीज नहीँ । जिसका आप निरन्तर अनुभव कर रहे हो , जो आपके " अहंप्रत्यय " मेँ प्रत्यक्ष है , वह आत्मा ही ब्रह्म है । समाप्त !शिव ! शिव !!

Friday, November 4, 2011

॥ अद्वैतरसमञ्जरी ॥

श्री गणेशाय नमः ॥
श्री गुरुभ्यो नमः ॥
॥ अद्वैतरसमञ्जरी ॥
अखण्डसत्यज्ञानानन्दामृतस्यात्मस्तव
स्तवादिकं कथं कुर्यां करणागोचरत्वतः ॥ ()स्वभक्तलोकानुजिधृक्षयैवया
समस्तलोकानुगता विराजते ।
अकादिरूपेण शुकादिवन्दितां
नमामि तं श्रीललितां स्वदेवताम् ॥
()गजमुखमुपरिष्टान्मानवाङ्गं त्वधस्ता
नरपरपरमैक्यज्ञापनायभ्युपेत्य ।
परिलसतिपरस्तान्मोहजालान्महोय
त्तदिह मम पुरस्तादस्तु वस्तुपशस्तम् ॥
()वटतरुनिकटे श्रीदक्षिणामूर्तिरूपं
यदधिवसति सच्चिन्मुद्रया भद्रयार्थम् ।
परमममृतमन्तेवासिनां संप्रदातुं
तदिहवरदमेकं भावये भावशून्यम् ॥
()यतीन्द्रमण्डलं ध्यायन्नखण्डरसमण्डलम् ।
अद्वैतरसमञ्जर्याः कुर्वेद्य सुविकासिनीम् ॥
()अबद्धाऽपि सुबद्धैषा सता बद्धसुदृष्टिना ।
भवेत्सन्तोषवन्तो हि सन्तस्सन्ति समेक्षणाः ॥
()पादशून्यपतगायितस्य मे खेरत्वमतिदुर्लभं खलु ।
तद्विदोऽपि तदवाप्तुमिच्छत स्साहसं सहतु सौहृदीजनः ॥
()अद्वैतमेव परमार्थतया विवेक्तु
मङ्गीकृतद्विपनराकृतिसन्निवेशः ।
अद्वैतगोचरमशेषविदोषमन्त
राविष्करोतु वरदो मम विघ्नराजः ॥ १॥
अज्ञानविस्फुरदनेकविधात्मभेद
मज्ञानमाश्रिवतस्सुलभा न मुक्तिः ।
आदर्शगेहममितः प्रतिबिम्बितान्त
र्द्वारं गतस्य न बहिर्गतिरर्भकस्य ॥ २॥
शान्त्यादिसाधनवता पुरुषोत्तमेन
संप्राप्यते निजपदं वरदेशिकोक्त्या ।
चोरैरण्यसरिणीं गमितेन पुंसा
देशो निजो हि तदभिज्ञगिरैव गम्यः ॥ ३॥
भूमा भवानिति गुरूपनिषद्वचोभिः
कर्त्रात्मता गलति सिद्ध्यति भूमभावः ।
राजात्मजस्य निजतत्वनिबोधनेन
व्याधात्मताविगलनादिव राजभावः ॥ ४॥
कूटस्थनित्यसुखबोधतनोः प्रतीचो
बन्धो विमोचनमिति भ्रम दुर्विलासः ।
वन्ध्यासुतस्य वपुरादिगुणप्रपञ्च
स्तत्पञ्चताऽपि सुतरां परिकल्पनैव ॥ ५॥
आपाततः प्रतिभया जगदस्तिवादः
सत्यं निरूपणविधौ न हि किञ्चिदस्ति ।
भीरोर्विभाति परितस्तिमिरं पिशाच
स्तत्रैव दीपकलिकाऽऽनयते किमस्ति ॥ ६॥
c
वस्त्वन्तरं किमपि नास्ति विचार्यमाणे ।
रज्ज्वौ भ्रमाधिकरणादपि रज्जुसर्प
तत्वान्तरं भवितुमर्हति किं कथञ्चित् ॥ ७॥
विश्वं समस्तमपि विभ्रममात्रमेत
दात्मैव सन्नयनन्यसुखप्रकाशः ।
स्फूर्त्यैव विश्वमपि सत्यमितीर्यते चेत्
को नाम शुक्तिरजतेन धनीनभावि ॥ ८॥
नास्ति प्रतीत्यवसरे न पुरा न पश्चा
दाश्चर्यमेतदवभाति तथाऽपि विश्वम् ।
यद्वा किमद्भुतविवेह महेन्द्रजालं
मायाविकल्पितमिति प्रतिभासते हि ॥ ९॥
एकोऽपि सन्नयमनेकतया विभाति
भूमा स्वकल्पिततमः पटलानुषङ्गात् ।
इन्दुर्द्वितीयरहितोऽपि च सद्वितीय
भावेन भाति पुरुषस्य निजाक्षिदोषात् ॥ १०॥
आलोक्यते भुवनचक्रमलातचक्र
मत्यन्तविभ्रमविजृम्भितमस्थिरं च ।
दैवात् भ्रमस्यविरतौ समुपस्थितायां
नालोक्यते किल पुरेव पुनस्तदेव ॥ ११॥
गन्धर्वपत्तनमिदं जगदव्यवस्थं
चैतन्यनामनि विहायसि नश्चकास्ति ।
विद्योतते यदि च विद्युदिवात्मविद्या
सद्यस्तिरोभवति सर्वमिदं तदैव ॥ १२॥
आरोपितस्य जगतः प्रविलापनेन
चित्तं शिवात्मकतया परिशिष्यते नः ।
शत्रून् निहत्य हतयिन्तुरधोनिप्रातात्
गन्धद्विपो भवति केवलमद्वितीयः ॥ १३॥
अद्यास्तमेतु वपुराशितारमास्तां
कस्तावतापि मम चिद्वपुषो विशेषः ।
कुम्भेऽपि नश्यति चिरं समवस्थिते वा
कुम्भांबरस्य नहि कोऽपि विशेषलेशः ॥ १४॥
सङ्कल्पमात्रसविकल्पितमूर्तिविश्वं
विश्वं च सत्यमिति मूर्च्छितमन्दबुद्धिः ।
चिन्ताप्रकर्षजनितां वनितां विदित्वा
शैवेति वल्गति यथा चिरविप्रयुक्तः ॥ १५॥
स्वस्ये मयि स्वरससत्यसुखावबोधे
व्यामोहनाज्जगदिति व्यपदिश्यते यत् ।
अन्यत्र कुत्रचिददृष्टमरूपरूप
मस्थानचित्रमिति निश्चिनुमस्तदेतत् ॥ १६॥
आध्यासिकस्फुरणभेदतिरोहितोऽपि
चिद्धातुरेकरसतां न जहाति जातु ।
नानाचराचरविचित्रविचित्रितोऽपि
चित्रः पटो न पटभावमपास्यति स्वम् ॥ १७॥
सच्चित् सुखात्मकमखण्डितमात्मतत्त्वं
मन्येत कश्चिदहमित्यतिनिश्चितार्थम् ।
देहेन्द्रियादकमपि विभ्रमवासनाभि
व्याप्तो ममाहमितियद्वदविद्वदात्मा ॥ १८॥
विश्वं मृषा विरसमित्यवधार्य धैर्य
मास्वाद्यते मुनिभिरन्तरसौ रसात्मा ।
सन्तापजं मरुमरीचिरसं निरस्य
संसेव्यते सुमतिभिस्सुरसिन्धुपूरः ॥ १९॥
एकान्तसन्निहितमीदृशमात्मतत्त्वं
लोका विमूढमतयो बत नाद्रियन्ते ।
आकाशगोचरमशेषजगत्प्रकाशं
घूका न भास्करमुदीक्षितुमुत्सहन्ते ॥ २०॥
आनन्दविस्फुरणरूपमपि प्रपञ्च
मन्यं विभाव्य परितापमुपैति मुग्धः ।
दीपादिषु स्ववपुषः परिदृश्यमानां
छायां विगाह्य परिमुह्यति किं न बालः ॥ २१॥
माया स्वकीयवियदादिविकारजालै
र्नात्मानमन्यथयितुं प्रभवत्यसङ्गम् ।
आधारपुष्करपलाशकमंबुधारा
स्वीयैः किमार्द्रयितुमर्हति शीकरौघैः ॥ २२॥
आभासमात्रतनवो जगतीविकल्पा
मां न स्पृश्यन्त्यपि विमुक्तसमस्तसङ्गम् ।
आरोपिता मलिनतादिविचित्रधर्मा
लिम्पन्ति किं नु विमलं वियदन्तरालम् ॥ २३॥
स्वप्नस्सुषुप्तिरथजाग्रदिति ह्यवस्था
स्तिस्रोऽपि शश्वदुदयास्तमयैरुपेताः ।
निर्मोकराजय इवोरगराजभोगे
मय्येव साक्षिणि विभान्त्यनुवर्तमाने ॥ २४॥
स्वप्नः प्रजाग्रदिति शब्दकृतो विशेषो
मायामयत्वमुभयोरपि तुल्यमेव ।
प्रत्यग्परागिति नामकृतो विकल्पः
सत्यावबोधसुखतां तु तयोस्स्वरूपम् ॥ २५॥
सर्वेन्द्रियोपरमशान्तजगद्विकल्पाः
स्वानन्दमात्रपरिशेषितचैत्यबोधे ।
ते जाग्रतोऽप्यनुभवन्ति सुषुप्त्यवस्थां
क्रीडन्ति ये सततमात्मनि सत्यबोधे ॥ २६॥
कर्तेति कायिकविचेष्टितदर्शिनो मां
गृह्णन्ति चेत् किमु यथैव तथा भवामि ।
पारिप्लवोऽयमिति पामरधीगृहीत
श्चन्द्रस्तथा नहि चलांबुदसन्निकृष्टः ॥ २७॥
मिथ्या समुल्लसतु नाम जगद्विचित्र
मेतावता विमलतत्वविदो न हानिः ।
स्वप्ने भयङ्करगजादिनिरीक्षणेऽपि
न स्वाप्नकत्वमनुसन्धधतोऽस्ति भीतिः ॥ २८॥
अत्यन्तमेतदसदित्यपि चाव्यवस्थं
मय्यात्मदृष्टिरनुवर्तत एव लोकम् ।
नास्त्यत्र वक्त्रमिति निश्चितवानपि द्रा
गादत्त एव मुकुरं मुखदर्शनाय ॥ २९॥
उद्बोधितोऽपि कबले कबले जनन्या
निद्रालसश्शिशुरिवाविदितान्यभावः ।
आलोकयन्नपि बहिर्जगदिन्द्रजाल
मन्तः कयापि कलया न परिच्युतोऽस्मि ॥ ३०॥
दृश्ये स्फुटीभवति नेक्ष्यत एव भूमा
भूम्नि स्फुटीभवति नेक्ष्यत एव दृश्यम् ।
द्वीपान्तरे स्फुरति भूमिरियं न दृश्या
भूमण्डले स्फुरति तच्च तथा न दृश्यम् ॥ ३१॥
बोधे शनैरुपचयं प्रतिपद्यमाने
विच्छिद्यते हृदि तदा विमलं भ्रमोऽपि ।
चन्द्रे कलाभिरनुवासरमेधमाने
मन्दीभवत्यपि यथैव महान्धकारः ॥३२॥
ब्रह्मानुभूतिरसनिर्भरिते मुनीन्द्रे
कर्मानुबन्धविधयो विमुखीभवन्ति ।
सिद्धोपदर्शितरसायनपानतृप्ते
किन्नु व्यपाकविषया विधयः क्रमन्ते ॥ ३३॥
सर्वात्मतामुपगतोऽपि मुनिस्समाधिं
पूर्वानुवृत्तमयते समयापनुत्यै ।
पर्याप्तसर्वविभवः क्षितिपोऽपि काल
निर्यापणाय जुषते चतुरङ्गलीलाम् ॥ ३४॥
आत्मज्ञमस्तमितसर्वविधिप्रवृत्ति
मानन्दयन्ति निगमाभिमता निषेधाः ।
व्यापारमात्रविमुखस्य महालसस्य
माशब्दकव्यवहृतानि मनोहराणि ॥ ३५॥
तत्त्वानुचिन्तनपरो मुनिसार्वभौमः
स्वच्छन्दतो व्यवहरन्नपि नानुयोज्यः ।
साम्राज्यमेत्य हि यथारुचि वर्तमानो
राजा प्रजाभिरनुयोक्तुमशक्य एव ॥ ३६॥
प्रारब्धजामधिकसंपदमापदं वा
भुञ्जान एव पुरुषः परिशुद्धियेति ।
किं वाऽऽहितुण्डिकगृहीततनुर्भुजङ्ग
स्तत्क्लृप्तदण्डनविधिं परिहर्तुमीष्टे ॥ ३७॥
पूर्वोत्तरार्जितशुभाशुभकर्मभिस्स्व
संपद्विपश्च न भवेत् परमार्थदृष्टेः ।
जात्योषरस्य धनवर्षजलाभिषेकै
रत्योष्मणा च नहि सस्यविवृद्धिहानी ॥ ३८॥
प्रारब्धकर्मपरिपाकवशंवदो न
क्लिश्नाति निश्चितपरावधिरात्मवेदी ।
ग्रामान्तमार्गपरिमाणविदध्वनीनो
मध्येपथं न हि विषीदति दुःखितोऽपि ॥ ३९॥
अन्तर्बहिश्च परमार्थतयानुपश्यन्
न क्लिश्यति व्यसनमुत्कटमप्युपेतः ।
धीरः किलाहमुखे विजयैकदृष्टिः
प्रत्यर्थिभिः प्रमथितोऽपि न विक्लवस्स्यात् ॥ ४०॥
प्रापञ्चिकस्तु विभवः परमाद्भुतोऽपि
धीरं न रञ्जयति दृष्टतदीयतत्वम् ।
स्त्रीवेषभूषिततनुः पुरुषो विलासै
स्तज्ञं युवानमपि मोहयितुं हि नालम् ॥ ४१॥
अन्तर्निरन्तरनिगूढनिजात्मतत्वो
न प्रागिव व्यसनितां विषयेषु धत्ते ।
भाग्यात् कुतश्चिदपि लब्धनिधिर्मनस्वी
किं पूर्ववत् कृपणतामुररीकरोति ॥ ४२॥
अध्यास्थितस्वमहिमानमलक्रिया व
दाध्यात्मिकाश्शुभगुणास्स्वयमाविशन्ति ।
स्वाधीनिते सुहृदि राजनि तस्य भृत्या
एतेऽपि च स्वयमुपेत्य तमाश्रयन्ते ॥ ४३॥
अज्ञानमेव न कुतो जगतः प्रसङ्गो
जीवेशदेशिकविकल्पकथाऽपि दूरे ।
एकान्तनिर्मलचिदेकरसस्वरूपं
ब्रह्मैव केवलमहं परिपूर्णमस्मि ॥ ४४॥
इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजक सदाशिव ब्रह्मेन्द्र विरचिता
अद्वैतरसमञ्जरी सम्पूर्णा ॥
इज्ज्योतिरेव जगदात्मतया चकास्ति

" धर्म मनुष्यकृत नही ! "

" धर्म मनुष्यकृत नही ! "नारायण । धर्म किसी एककी बाप की बपौती नहीँ । यह समझ लेनेसे मेरा धर्म और तेरा धर्मरूप कलह स्वयं शान्त हो जाएगा । हमारे पूर्वज ऋषियोँने केवल मानवधर्म का ही विचार किया । ऋषियोँ की दृष्टि मेँ धर्म मेँ कोई भेद नहीँ थे । वे तो केवल यही देखते थे कि वह मनुष्य है या नहीँ और मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए ही प्रयन्त करते थे । जिस प्रकार शक्कर मेँ मिठास
वस्तुतः तो मेरा धर्म और तेरा धर्मरूप कलह उत्पन्न होने का कारण ही नहीँ है । क्योँकि सभी मानवोँ मेँ ये शक्तियाँ तो है ही । इसलिए तेरा और मेरा का भेद होना नहीँ चाहिए । सभी मनुष्योँ का एक ही मानवधर्म होना चाहिए । मानवधर्म के जैसे विचार ऋषियोँ के बाणी मेँ प्रकट हुए है । उसी तरह वे इतर पैगम्बरोँ की बाणी मेँ प्रकट हुए नहीँ दिखाई देते । इस प्रकार जो धर्म शान्ति बढ़ाने का कारण बनना चाहिए था
ऋषि प्रतिपादित धर्म
इस धर्म मेँ सब मानवोँ का एकत्र लाने का सामर्थ्य है । श्रेष्ठ मनुष्योँ का निर्माण करना हो तो इसी धर्म का आश्रय लेना चाहिए । धर्म के विषय मेँ वैर
भारतीय संस्कृति इस धर्म के साथ सुसम्बद्ध है । अतः भारतीय संस्कृति का विचार करनेवालोँ को इस स्वाभाविक सहज जन्म के साथ मनुष्य के साथ जुडजानेवाले धर्म का ही ही विचार करना चाहिए ।
धर्म या संस्कृति साथ
श्री नारायण हरिः
, मिर्च मेँ तीक्षणता , और करेले मेँ कडवापन स्वाभाविक है , उसी तरह मनुष्य की आत्मा मेँ सामर्थ्य , बुद्धि मेँ ज्ञान , मन मेँ मनन शक्ति , ज्ञानेन्द्रियोँ मेँ ज्ञानग्रहण शक्ति और कर्मेन्द्रियोँमेँ कर्म करने की शक्ति स्वाभाविक है । ये शक्तियाँ अनेक प्रकार की है । ये सभी शक्तियाँ मनुष्यकृत न होकर ईश्वरीय हैँ । इन शक्तियोँ को सन्मार्ग मेँ प्ररित करना , योग्य मर्यादा तक उनको बढ़ाना , उन सबको अपने अधिन रखना , उन्हे उन्नतिकारक मार्ग मेँ प्रवृत्त करना , ये सब काम धर्म के है। इस धर्म से जनसमुदाय का महान् हित होना चाहिए , पारस्परिक प्रेम बढ़ना चाहिए , पारस्परिक द्वेष और वैर न्यून होना चाहिए । इन्हीँ सब प्रयोजनोँ के लिए धर्म का आचरण करना होता है ।, वही द्वेष बढ़ाने का कारण बन रहा है । सभी मनुष्योँ मेँ आत्मा - बुद्धि - मन और इन्द्रिय समान है । भले और बुरे गुणधर्म भी सब मनुष्योँ मेँ है । उनको संयम मेँ रखने की शक्ति भी समान है । तो भी सब मानवधर्म का विचार छोड़कर मेरा धर्म तेरा धर्म का नगाडा बजाते हुए एक दूसरे मारेँ . अपने ही पंथ मेँ लोगोँ को खीँचने की कोशिश करेँ , मानवधर्म के बारे मेँ निष्कारण स्पर्धा करेँ , इससे बढ़कर शोक का विषय और क्या हो सकता ? अतः मनुष्य विभिन्न पंथो का विचार तज देँ और मानवीय शक्ति का एक ही लक्ष्य अपने सामने रखेँ , ऐसे विचारकोँ के विचारोँ का जो संग्रह होगा , वही मानवधर्म होगा । और वह ऋषि प्रतिपादित धर्म की तरह होगा ।- " सहजधर्म " है । " सहजधर्म " अर्थात् जन्मके साथ उत्पन्न हुआ धर्म । मनुष्य के शरीर की शक्तियाँ उसके शरीर के साथ ही जन्म लेती है । उनके गुणधर्म भी जन्म के साथ ही आते हैँ , इसलिए उनके विकाश का मार्ग भी सबके लिए समान ही होगा , यह स्पष्ट है । इसलिए यह धर्म जन्म के साथ आता है , जीवनपर्यन्त साथ - साथ रहता है और मृत्यु के बाद साथ ही साथ चला भी जाता है । - द्वेष आदिको दूर भगाने का सामर्थ्य इस धर्म है ।- साथ चल सकते है या नही . यह प्रश्न ही नहीँ उठता । क्योँकि इन दोनोँ का सहगमन शाश्वत है और सनातन हैँ । भारतीय संस्कृति इसी मानवधर्म के साथ सुसम्बद्ध है । इस धर्म के अभाव मेँ भारतीय संस्कृति भी नहीँ रह सकती । इसलिए भारतीय संस्कृति का विचार करने वालोँ को इस स्वाभाविकधर्म का भी विचार करना चाहिए ।
श्री नारायण हरिः !

Tuesday, September 6, 2011

" सद् धर्म सदाचार " -

" सद् धर्म सदाचार " -
चरित्र शुद्धि : अपने देशमेँ या अपनी भारतीय संस्कृति मेँ अपने मनकी वासना पूरी करना - इस बातको महत्त्व नहीँ देते हैँ । महत्त्व देते हैँ चारित्र्यको । अपना चरित्र शुद्ध रहे । तो , अनुशासनके अनुसार चलनेसे चरित्र शुद्ध रहता है और वासनानुसारी होनेसे चरित्र अशुद्ध रहता है । शासनानुसारी और वासनानुसारी दो प्रकारका चरित्र होता है । यदि अपनी - अपनी वासना पूरी करते रह जायेँगे तो अभिमान बढ़ जायेगा , वासनाएँ बड़ जायेँगी , मांगे बढ़ जायेँगी और एक दिन उनके पूरी न होने पर दुःख होगा । दुःखकी सृष्टि बढ़ाने का उपाय है अपनी वासना को बढ़ाना । वस्तुतः कोई एक बड़ा होना चाहिए , जिसके सामने हम अपनी वासना को रोक सकेँ । और जब किसी को बड़ा मानना हो तो अपने पतिको ही अपने से बड़ा मानो । इसीको गौरवका भाव कहते हैँ । आदरका भाव रखना - आदर करेँगे तो आदर पायेँगे । और अनादर करेँगे तो अनादर पायेँगे । जो आपको पाना है वही आपको देना चाहिए । " न तपरस्य संदध्यात् प्रतिकुलं यदात्मनः " । जो बात अपने प्रतिकूल पड़ती हो वह दूसरे के लिए भी नही करनी चाहिए ।
छोटा आदमी बड़ा कार्य : छोटी नदी बड़ी नदी से मिल जाती है तो समुद्रमेँ पहुँच जाती है  । यदि वह स्वतन्त्र पहुँचने की कोशिश करे तो मार्ग मेँ ही सूख जायेगी । इसलिए पहले बड़ी नदीसे मिलकर चलो । छोटी नदी भी पहुँच जायेगी ।
" बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति "
छोटे - से - छोटा आदमी भी बड़ेकी मदत लेकर बड़ा - से बड़ा कार्य कर सकता है ।
" सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगाः " । एक छोटा सा झरना भी महानदी से मिलकर समुद्र तक पहुँच जाती है ।
मातापिताका कर्त्तव्य : मैने सुना है कि इंगलैण्डके राजकुमार जहाजमेँ जैसे कुली कोयला झोँकते हैँ , वैसे आजकल कोयला झोँकनेका काम कर रहे है । ऐसा क्योँ होता है ? इसलिए होता है कि हमारे राजकुमार हैँ ये केवल कोमल - कोमल कामोँके ही अभ्यासी न रह जाँए , भोग - विलासके अभ्यासी न रह जाँये , परिवारके मोहमेँ ही फँसे न रह जाँय - बालक को परिवारसे अलग रखना , परिवारके मोहसे मुक्त रखना , उसको निष्पक्ष बनाना , परिश्रमी बनाना , सेवक बनाना , शिक्षित करना माता - पिताका  परम कर्त्तव्य है । व्यवहार मेँ सरलता : जो दृसरेके मनकी परवाह नहीँ करेगा वह तो कभी भी व्यवहारमेँ सफल नहीँ होगा । कोई मशीनसे तो काम नहीँ लेना पड़ता है कि जो बटन दबाया और काम ले लिया ।  आखिर तो मनुष्यसे काम लेना पड़ता है । उसके मनका ख्याल नहीँ करेँगे तो वह आपके मनका ख्याल क्योँ करेगा ?
विश्वास : जहाँ विश्वास परस्पर नहीँ होगा - वहाँ क्या होगा ? वहाँ सेवा नहीँ होगी , वहाँ आग जलेगी , आग । प्रेम विश्वासमेँ से निकलता है - प्रेमका बाप विश्वास है । जहाँ परस्पर विश्वास होगा वहीँ प्रेम होगा । जो हमसे प्रेम नहीँ करता है , उससे उदासीन होना नहीँ पड़ता है , उससे उदासीनता तो स्वाभाविक हो जाती है ।
श्री नारायण हरिः ।           ]

Monday, September 5, 2011

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 5 ) समाप्त ।

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 5 ) समाप्त ।

 
नारायण । अनन्त जन्मार्जित कर्मो के गुरु - भार से शिष्य जब बिल्कुल अतल जलधि - जल मेँ डूब रहा होता है , घोरता , मुढ़ता प्रभृति गुणोँ के द्वारा यह कर्मभार जब क्रमशः वृद्धि को पार होता रहता है , तब प्रलय - पयोधि - जल मेँ पृथ्वी के मग्न हो जाने के समय श्रीभगवान् ने - " वराहरूप " मेँ अवतीर्ण होकर द्रंष्टा ( दाँत ) द्वारा वसुन्धरा को ऊर्ध्व मेँ धारण किया था , वैसे ही श्रीगुरु भी गुरु -भाराक्रान्त पृथ्वी की भाँति अनन्त भाराक्रान्त शिष्य को " लीलया " अर्थात् अनायास अथवा करुणावशतः उर्ध्व मेँ धारण करते हैँ ।
पुनः श्रीगुरु श्रुति - पथ मेँ " बीजमन्त्र " धारण करते हैँ । इस मंत्र से ही आत्मचैतन्य उद्भासित होता है । " मीन अवतार " मेँ जैसे भगवान् समस्त पृथ्वी का बीज धारण किया था एवं उसी से समस्त पृथ्वी पुनः आविर्भूत हुई थी , श्रीगुरु भी उसी प्रकार इस बीजमन्त्र को धारण करते हैँ और उसे शिष्य के श्रुति - पथ का गोचर बनाते हैँ । एवं इस बीज से भी मूलतत्त्व आविर्भूत होता है । ( यहाँ पृथ्वी " earth " नहीँ है ) । आत्मवस्तु सर्वदा ही विद्यमान है , तथापि उसका मानो बीजमन्त्र से आविर्भाव होता है । उपलब्धि ही उसका आविर्भाव है । समस्त सृष्टि भी बीजाकार मेँ रहती है , बाद मेँ इस बीज से पुनः आविर्भूत होती है ।
नारायण । फिर " कूर्मावतार " मेँ जैसे श्रीभगवान् ने समुद्र मन्थन के समय " मन्थनदण्ड " धारण किया था , श्रीगुरु भी उसी प्रकार ब्रह्मवर्च्चस् - प्राप्ति के निमित्त शिष्य के आत्मा के मन्थन करने का दण्ड स्वयं धारण किये रहते हैँ ।
श्रीनृसिँहावतार मेँ श्रीभगवान् ने जैसे " हिरण्यकशिपु " को विदीर्ण करके पृथिवी का पाप - हरण किया था , वैसे ही श्रीगुरु भी शिष्य के क्लेश - व्युह अर्थात् अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश - इस पञ्चक्लेश की समष्टि का निःशेष रूप से विनाश करते है ।
अन्त मेँ " श्रीवामनावतार " मेँ श्रीभगवान् ने उरुक्रम - रूप से जैसे बलि के यज्ञ का भरण किया था , उसी प्रकार श्रीगुरु भी शिष्य का " उरु " अर्थात् विस्तीर्ण पद अर्थात् अभ्युदय - लाभ के लिये जो " मख " अर्थात् यज्ञ है उसका भरण या पालन किया करते हैँ ।
।। ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः ।।
समाप्त ।
श्री नारायण हरिः ।

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 4 )

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 4 )

 
तो आइए नारायण । थोड़ा गुरु - शक्ति पर बात करे - नारायण । गुरु - शक्ति पराङ्मुखी अथवा बर्हिमुखी समस्त वृत्तियो को पत्यङ्गमुखि अथवा अन्तर्मुखी कर के शिष्य को धीर बना देती है . जिससे वह बाहर के विषयोँ मेँ आवृतचक्षुः अर्थात् ढ़की हुई आँख वाला हो कर अन्तराआत्मा का , प्रत्यगात्मा का दर्शन करने मेँ समर्थ होता है , एवं अमृत्व - लाभ कर सकता है । बाहर बहुदिशाओँ मेँ प्रसारित , बहु - विषयोँ मेँ प्रधावित . शक्ति - विषय को शिष्यरूप मेँ अङ्गीकार करते ही वे उसे परम प्रसन्न , ब्रह्मानन्द के अनुभव योग्य बना देती है । शिष्य - रूप मेँ इस स्वीकार का प्रतिग्रह के द्वारा इस अङ्गीकार के लेशमात्र द्वारा ही त्रिविधताप - क्लिष्ट दुःखतप्त जीव को वे सर्वोत्तम " भजनानन्द " एवं अपार " ब्रह्मानन्द " के अनुभव योग्य बना देते हैँ । यही उनकी " प्रतिग्रह " - शक्ति की महिमा है ।
श्रीगुरु अपने " विग्रहशक्ति " द्वारा मूर्त हो कर प्रकट रूप मेँ दिखाई दे कर , अर्थात् देह - रूप - विग्रह - धारी बन कर मूर्त वा स्थूल घट - पट आदि विषय को अर्मूत परम - तत्त्व मेँ लीन वा लय करा देते हैँ । स्वयं स्वरूतः अमूर्त होते हुए भी मूर्ति धारण कर के , आकर , मूर्त को अमूर्त मेँ ले जाने का कारण बनते हैँ । ऐसा ही उनका मूर्ति धारण का विचित्र रहस्य है । जो मूर्ति वे धारण करते है वह भी अमायिक , अप्राकृत है ।
मूर्त विग्रह के रूप मेँ उनका यह जो अवतरण है , यही उनकी " परिग्रशक्ति " है । श्रीभगवान के अवतार - रूप - परिग्रह नैमित्तिक हैँ , किन्तु श्रीगुरु विग्रह - रूप मेँ अवतरण नित्य है ।
उनका संग्रह , प्रतिग्रह . विग्रह . परिग्रह - सभी कुछ उनकी करुणा है ।
परम शिव के मस्तक से माँ गङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ , किन्तु शिव की प्रकटमूर्ति श्रीगुरु के श्रीचरण से ही गंङ्गा का उद्भव है । हर - जटाजाल से तो एक ही गङ्गा की उत्पत्ति है , और साक्षात् शंकर - मूर्ति श्रीगुरु के श्री - पाद पद्म से पंचगङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ है । संग्रह , प्रतिग्रह , विग्रह , परिग्रह और अनुग्रह - यह पञ्चशक्तिरूपा पञ्चगङ्गा , श्रीगुरु की यह शक्तिधारा परमपावनी मन्दाकिनी धारा के समान ही शुद्ध करने वाली है ।
।। श्रीआचार्य चरणकमलेभ्यो नमः ।।
श्री नारायण हरिः ।

।। श्रीआचार्य च

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 3 ) -

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 3 ) -
" श्रीगुरुः " इनमेँ पाँच वर्ण हैँ । श्री , ग् , उ , र , उ , एवं विसर्ग । उपरोक्त दोनोँ " उ " को एक ही वर्ण मानना होगा । " गकार " का उच्चारण स्थान है जिह्वामूल । यह क्या सूचित करता है ? मूल से भ्रष्ट जो दीन लोग हैँ ( जीव ) की वाक् , बुद्धि और प्राण के मूल मेँ जो श्रुतिसिद्ध आत्म तत्त्व स्थित है , उस आत्मतत्त्व की प्राप्ति करता है  यह " गवर्ण " है , और " रकार " का उच्चारण स्थान " मूर्धा " है इसलिए यह मानेँ कि बताता है कि " गुरु "  - शब्दस्थ रकार क्षयशील विषय मेँ तृष्णायुक्त , अथवा जिसकी तृष्णा क्षय - प्रवण हो गयी है , ऐसे कातर जीव को मूर्धास्थित तेज वा प्रकाश द्वारा संजीवित करता है । और दोनोँ " उकारो " मेँ से एक , मोह के मूल मेँ जो अविद्या है , उसे उत्पाटित करता है , अर्थात् समूल विनाश करता है , और दूसरा " उकार " जो है वह मिमल ज्ञान का उदय कराता है । एक उकार द्वारा अज्ञान का उच्छेद और दूसरे उकार द्वारा ज्ञान का उदय समझना चाहिए ।  इसके द्वारा एकभक्तिरूप जो उत्कृष्ट ज्ञान है उसे भी समझना होगा । उकार की यह द्विविध वृति है । उकार का उच्चारण स्थान है " ओष्ट " । इस " ओष्ठ " के द्वारा ही सभी वर्ण नियन्त्रित है । अर्थात् ओष्ठ के द्वारा किसी - किसी स्थल मेँ वर्ण छिन्न ( inhibited )  होते हैँ , एवं उसके द्वारा ही वर्ण का बहिःप्रकाश का उदय ( exhibition या expression ) भी होता है । ओष्ठ हमारे मुख मेँ मानो वाल्ब ( valve ) की तरह काम करता है - सब कुछ की गतागति मानो यही नियन्त्रित करता है ।
और मेँ " श्री " शब्द , जो शीर्णता के कारण श्रीहीन हो गया है उसे श्रीसम्पन्न सौन्दर्यमण्डित कर देता है - यही समझाता है । और " श्रीगुरुः " पद मेँ सबके अन्त मेँ जो विसर्ग -  ( : )  है , उसके द्वारा समस्त प्रपञ्च का उपशमात्मक परम उपरम वा " शान्तं शिवम् अद्वैतम् " रूप परम तत्त्व सूचित होता है । तदनुसार " श्रीगुरुः " पद के पाँच वर्ण  -
* मूलतत्त्वप्रापण ( गमयति ) ।
* तेजःसञ्चार वा बलाधान 
* अज्ञान का उच्छेद एवं ज्ञान का उदय
* अभ्युदय ( श्री ) ।
* निःश्रेयस् ( विसर्ग ) ।
इन पाँच को सूचित करते है । " श्रीगुरुः " शब्द मेँ ही इतना अपूर्व रहस्य है ।
जय जय शंकरहर हर शंकर ।।
कामकोटी शंकरकाँची शंकर ।।
सर्वज्ञ शंकर कालटी शंकर ।।
जय जय शंकरहर हर शंकर ।।
श्रीजयेन्द्रगुरुभ्यो नमः ।   

" शान्तं शिवम् अद्वैतम् "सर्वज्ञ शंकर । कालटी शंकर ।।

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 2 )

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 2 )

श्रीगुरु की जो दिव्य अंगगन्ध है , वह समस्त इन्द्रियवर्ग के जो स्थूल व सूक्ष्म भोग्य हैँ , उन्हे शुद्ध करती है । जो अन्न - रूप मेँ खाया या पीया जाता है , केवल वही नहीँ , अन्यान्य इन्द्रयोँ द्वारा भी जितका आहरण किया जाता है , वह समस्त आहार ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध द्वारा शोधित हो जाता है । समस्त इन्द्रियवर्ग की आहारशुद्धि ही श्रीगुरु की दिव्य अङ्गगन्ध के आस्वादन का फल है , यह क्षितितत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरू के वदनकमल का जो मधुर हास्य है , उनके नयनकमल की जो प्रसन्न ( प्रसादमय ) दृष्टि है , उनके मुखकमलावयव की जो स्निग्ध , शान्त , मधुर भङ्गी है - ये सभी जिस अमृतरस का क्षरण करते रहते हैँ , उसके द्वारा शिष्य आचार शुद्ध हो जाता है । एवं तब वह साधु , शोभन अनुष्ठान करने मेँ प्रवृत्त होता है । श्रीगुरु की परम सुन्दर , परम रमणीय , शुद्ध , मधुर , विमोहन भङ्गी के दर्शन से प्राण पुलकित एवं शुद्ध होते हैँ । प्राणशुद्धि के फल से समस्त आचार , अनुष्ठान पवित्र हो जाते हैँ । जिसने एक बार श्रीगुरु के मुखकमल से क्षरित अमृत - रस - कणोँ के पान का आस्वादन पाया है , उसके द्वारा अब असाधु , अशोभन कर्म अनुष्ठित हो ही नहीँ सकते । यह अप् ( जल ) तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु का विश्वविमोहन रूप जिसके मन मेँ प्रतिफलित होता है , जो सर्वदा उसी मनोहर मूर्ति का ध्यान करता है , जिसका चित्त उसी शुद्ध अपापविद्ध परम पवित्र मूर्ति द्वारा सर्वता भरित रहता है , उसके विचार व चित्त शुद्ध हो ही जाते हैँ । अन्य कोई भी चिन्ता या विचार उसके मन मेँ स्थान पाता ही नहीँ । श्रीगुरु की विशुद्ध मूर्ति के ध्यान मेँ उसका मन निविष्ट रहता हुआ पवित्र हो जाता है । यह " तेजस " तत्त्व की शुद्धि है ।
श्रीगुरु के मुखनिःसृत वाक्योँ द्वारा शिष्य की " धी " अथात् बुद्धि बढ़ती है । श्रीगुरु ही सर्व - " धी " अर्थात् बुद्धि साक्षी है । श्रीगुरु के वाक्य द्वारा , उपदेश द्वारा शिष्योँ की बुद्धि सत्पथ पर चालित होती है । श्रीगुरु का वाक्य ही " महामन्त्र " है । " मन्त्रमूलं गुर्रोवाक्यम् । श्रीगुरु का वाक्य , उनका उपदेश हृदय मेँ रह कर बुद्धि का प्रेरक बनता है । बुद्धि को शुद्ध करने मेँ , प्रस्फुटित करने मेँ श्रीगुरुवाक्य की भाँती शक्तिधर और कोई नहीँ है । श्रीगुरु का वाक्य हृदय मेँ धारण करने से बुद्धि विपथ पर चालित या प्रचारित नहीँ हो सकती । इसीलिए श्रीगुरुवाक्य ही आचारशुद्धि का हेतु है । बुद्धि के पार जो परमतत्त्व है , उसकी उपलब्धि का उपाय भी गुरुवाक्य से ही होता है । यह " आकाव - तत्त्व " की शुद्दि है ।
किन्तु उसके पूर्व , " श्रीगुरुपादपद्म " का दिव्य स्पर्श शिष्य के सर्वाङ्ग मेँ " आनन्दलहरी " उत्पन्न कर देता है । श्रीचरणस्पर्शमात्र से ही शिष्य मानो एक दिव्य आनन्द , एक मधुर सिहरन , एक दिव्य पुलक का अनुभव करता है । माने की एक शक्ति का संचार इस स्पर्श के फलस्वरूप धटित होता है । जीव की स्वाभाविक आनन्दमात्रा के पोषण और परिपूरण मेँ यह सर्वोतम है , यही " वायुतत्त्व " की शुद्धि है ।
यद्यपि श्रीगुरु की यह अङ्गगन्ध , मुखपद्म के अमृतरस - कण , अपरूप रूप , शुद्ध शान्त हृत्कर्ण - रसायन शब्द एवं आनन्दमय स्पर्श - आहार , आचार , विचार , प्रचार व संचार की पंचविध शुद्धि करते हैँ . तथापि परमार्थतः , श्रीगुरु अशब्द , अस्पर्श , अरूप . अगन्ध , अरस अर्थात् ब्रह्माभिन्न ब्रह्मस्वरूप ही है । इससे मूलशुद्धि अर्थात् मूला अविद्या की शुद्धि होती है । श्रीगुरु -तत्त्व मेँ शुद्ध सच्चिदानन्द तत्त्व का पर्यवसान होने पर भी श्रीगुरु भगवान् के प्रतित्रय अर्थात् अपरा , परा और परमा , शक्तित्रय अर्थात् अन्तरंगादि के त्रिवेणीसंगम हैँ ।
* श्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् *
सर्वज्ञ शङ्कर । कामकोटी शङ्कर ।।
जय जय शंकर । कालटी शंकर ।।

।। श्रीचन्द्रशेखरेन्द्रगुरुभ्यो नमः ।।

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 1 )

" गुरु तत्त्व दर्शनम् " - ( 1 )श्रीगुरु " तार " अथवा प्रणव अथवा ॐकार की मूर्ति है ॐकार की जो तीन मात्रा - . , एवं म् हैँ , यदि प्रस्न्न हो तो शिष्य के जो त्रिविध मल हैँ - अर्थात् स्थूल , सूक्ष्म , कारण मल , अथवा जो अणु , तनु एवं पृथु मल , अथवा तन्त्रोक्त आणवादिक मल - इत्यादि संज्ञाओँ से निर्दिष्ट मल हैँ - उन त्रिविध मलोँ का नाश कर देती है ; तथा अन्नमय . प्राणमय , मनोमय एवं आनन्दमय - इन पञ्चकोशोँ की जड़ता का परिहार घटित करके जो अति विशुद्ध ब्रह्मवचर्यस् अथवा तेज है , उसे प्रकाशित कर देती है ओँकार की जो अर्द्धमात्रा है , वह व्यक्त से अव्यक्त तत्त्व की ओर ले जाने के लिये सेतु - स्वरूपिणी है इस अर्द्धमात्रा का आश्रय लिये बिना किसी प्रकार भी परम अव्यक्त तत्त्व मेँ प्रवेश नहीँ पाया जा सकता एक ओर व्यक्त रूप जो , , म् - इस त्रिमात्रा द्वारा गृहित होता है और दूसरी ओर परम अव्यक्त जो अमात्र या मात्रातीत है अर्थात् जो किसी मात्रा द्वारा गृहित नही होता - इन्हीँ दोनोँ के मध्यस्थल मेँ अवस्थित है ॐकार की अर्द्धमात्रा यह नित्य एवं विशेषरूपेण अनुच्चार्य है यह दोनोँ का संयोगकारक सेतु है अर्थात् इसका आश्रय लेने पर ही व्यक्त से अव्यक्त लाभ होता है ॐकार मेँ छन्दः , प्रयोग आदि सब है एवं उसी से उत्पन्न ब्रह्माण्ड सम्पुटित रहता है - इस प्रकार कही जाने वाली जो ॐकार शक्ति है , वह सामान्य को दृष्टिगोचर नहीँ होती , किन्तु यह श्रीगुरुरूप मेँ प्रकट जो प्रणवमूर्ति है , वह नियत यशोमण्डित है - उसमेँ समस्त शक्तियाँ सम्यक रूप से प्रस्फुटित हैँ - वे सर्वलोकनयनगोचर हो कर अपनी अनन्त महिमा का स्थापन करते हैं ॐकार का यह प्रकृत ( गुरुरूप ) स्वरूप मात्रातीत अथवा अमात्र है इस मात्रातीत स्वरूप को अक्षुण रखते हुए ही वह ( ओँकार ) त्रिमात्रा एवं अर्द्धमात्रा मेँ क्लृप्त अथवा कल्पित है जय जय शंकर कामकोटी शंकर

 

Saturday, January 29, 2011

Guru’s Darshan – Renunciation – Head of Kamakoti Peetam

  Guru’s Darshan – Renunciation – Head of Kamakoti Peetam


            In the year of Vishwavasu (1906), young Swaminathan’s father, Sri Subramania Sastrigal took his family with him to obtain the darshan of then Sankaracharya, Sri Chandrashekarendra Saraswathi, and the 66th Peetadhipathi of the Kanchi Kamakoti Peetam. He was camping in a small town called Perumukkal, near Tindivnam. The Acharya, while performing his nithya puja, bestowed his benevolent grace upon young Swaminathan. After the conclusion of the puja, the Swamigal spoke to Sri Subramania Shastrigal and made kind enquiries about his family. Perhaps he saw in this boy, a worthy successor to himself who was fit to adorn the Kamakoti Peetam. The events that unfolded after this first meeting make us wonder whether the Swamigal had made the decision at that moment itself.
            Sri Subramania Shastrigal and his family stayed on in Perumukkal for two days to get the benefit of Swamigal’s continued darshan. During this occasion, the Acharya interacted closely with young Swaminathan and asked him many questions. Pleased with the young boy’s brilliance and attractive personality, Sri Acharya was heard commenting: “He will turn out to be a Maha Purusha.” Hearing this, his father’s pleasure new no bounds. However, he had absolutely no inkling that his 13 year old son would be leaving him and his family soon to obtain sannyas. He took leave from the Acharya and returned to Tindivanam where he was stationed for work. The Acharya had, meanwhile, requested Sri Subramania Shastrigal to bring Swaminathan frequently to the mutt. As per his request, Shastrigal took his son several times to get Acharya’s darshan. During these frequent meetings, the grace of the Guru started flowing in full abundance over young Swaminathan.
            One day, Swaminathan was found missing from his house in Tindivanam.  His parents were very anxious and they searched everywhere including wells and ponds in the vicinity. But he was nowhere to be found. His parents were beside themselves with anxiety, unable to eat or sleep. Two days later, a messenger came from the Acharya’s camp which was five miles away. He conveyed the news that Swaminathan had come there for the Acharya’s darshan on his own, and he was safe. He added that the Acharya had sent him to convey this message to the parents. One cannot measure the relief and happiness of his parents and friends on hearing the news. Swaminathan was sent home from the mutt two days later.      

Renunciation - Pontification


            In the first week of February in 1907, Sri Subramania Shastrigal’s house received a telegram from the Sri Mutt camp. The telegram requested Shastrigal to come to the mutt immediately and to Swaminathan. However, Sri Subramania Shastrigal had gone to Tiruchi on official work at that time. Assuming that the Acharya must have summoned him for some important purpose, Sri Subramania Shastrigal’s friends arranged for Swaminathan to travel by steam engine to Kanchipuram. The Acharya was camped at Kalavai, which was 30 miles from Kanchipuram, the mutt officials, without divulging any information to Swaminathan’s mother, immediately took Swaminathan in a separate horse cart, and headed straight out to Kalavai.
            At the time that the telegram was sent to Tindivanam, the Acharya Swamiji’s health was in decline. Believing that his time was limited, the Acharya had sent the summons to Tindivanam with the intention of installing Swaminathan as the next Acharya. However, the 66th Acharya unexpectedly attained siddhi on Maha Krishna Ashatami in the Prabhava year, well before Swaminathan’s arrival. Before attaining siddhi, he initiated an 18 year old brahmachari, Sri Lakshmikanthan, who was well versed in Rig Veda and was staying in the mutt, serving him as his sishya. It is the tradition of the Kamakoti Acharya Parampara that they are Rig Vedics who take sannyas from the brahmacharya ashram itself. The 67th Acharya adorned the Sri Kamakoti Peetam for seven days. Having served his Guru during his illness, he unexpectedly contracted the illness as well and attained siddhi after seven days. Before attaining siddhi, in accordance with his Guru’s wishes, he took a mental sankalpa, appointing young Swaminathan as the next Peetathipathi.
            Swaminathan was later formally initiated into the sannyas ashram. This holy event took place on the second Wednesday of the lunar month of Maasi, in the Prabhava year (February 13, 1907) when he was just 13 years old.  He took the name of Sri Chandrashekarendra Saraswathi and became the 68th Shankaracharya to grace the Sri Kamakoti Peetam.  
            An incident happened before Swamigal took sannyas which was an unforgettable and heart warming in nature.  It is not an ordinary task to take upon one self the discipline of an ascetic with restrictions on food, rigors of religious schedule, daily pujas and meditation at such an early age of 13.  The mother and father could not bear to let their most lovable son take up grueling lifestyle of a sannyasi nor could they bear to part him. On the other hand, the mutt’s administrators were persuading them to give their permission saying “When you have three other sons, what is your hesitation to give up one son for the sake of goodness of this world and to bless the devotees and followers of this mutt?” They were perturbed and could not come to a conclusion immediately. At this time, Swaminathan prostrated to them and politely said “Please do not hesitate. I have the complete blessing of my Gurunathar and I will preserve this. Please give your permissions whole heartedly”. There is no doubt that his words melted his parents’ hearts and made them give their approval for the change, but never saw him again. Swaminathan who was transformed to appear like Adi Sankara with shaved head, kamandalu, saffron robes and staff, was never seen by his parents. Traditionally, relatives keep their distances from sannyasis as they are required to give up all emotional attachments.  We wonder if our swamigal’s parents were proud of their son for taking up the task of eradicating the sorrows of the people of this world or if they were miserable that they cannot see their own son while the rest of the world praises and adores him. But one thing was certain. In future, whenever somebody came up to them and enquired about Swamigal, both of them maintained silence.


An excerpt of how he became the 68th pontiff was best told by Acharya himself and published in Bhavan’s Journal, Bombay:
            “ In the beginning of the year 1907, when I was studying in a Christian Mission School at Tindivanam, a town in South Arcot District, I heard one day that the Sankaracharya of Kanchi Kamakoti Peetam who was amidst us in our town in the previous year, attained siddhi at Kalavai, a village about 10 miles from Arcot and 25 miles from Kanchipuram. Information was received that a maternal cousin of mine who, after some study in Rig Veda, had joined the camp of the Acharya offering his services to him, was installed on the Peetam.”
            “He was the only son of the widowed and destitute sister of my mother and there was not a soul in the soul in the camp to console her. At this juncture, my father who was a supervisor of schools in the Tindivanam taluk, planned to proceed with his family to Kalavai, some 60 miles from Tindivanam, in his own bullock cart. But on account of an educational conference at Tiruchirapalli, he cancelled the programme.”
            “My mother with myself and other children started to Kalavai to console her sister on her son assuming sannyas ashram. We traveled by rail to Kanchipuram, and halted at Sankaracharya mutt there. I had my ablutions at the Kumara-koshta Tirtha. A carriage of the Mutt had come there from Kalavai with persons to buy articles for the Maha Pooja on the 10th day after the passing away of the late Acharya Paramaguru. But one of them, a hereditary Maistri of the mutt, asked me to accompany him. A separate cart was engaged for the rest of the family to follow me.”

            “During our journey, the maistri hinted to me that I might not return home and that the rest of my life might have to be spent in the mutt itself. At first I thought that my elder cousin having become the head of the mutt, it might have been his wish that I was to live with him. I was then only 13 years of age and so I wondered as to what use I might be to him in the institution.”
            “But the maistri gradually began to clarify as miles rolled on, that the Acharya, my cousin in the poorvashram had fever which developed into delirium and that was why I was being separated from the family to be quickly taken to Kalavai. He told me that he was commissioned to go to Tindivanam and fetch me, but he was able to meet me at Kanchipuram itself. I was stunned by this unexpected turn of events. I lay in a kneeling posture in the cart itself, shocked as I was, repeating Rama Rama, the only spiritual prayer I knew, during the rest of the journey.”
            “My mother and the other children came some time later only to find that instead of her mission of consoling her sister, she herself was placed in the state of having to be consoled by someone else.”
            “My robes of sannyas were not the result of any renunciation on my part, nor had I the advantage of living under a Guru for any length of time. I was surrounded from the very first day of sannyas by all the comforts and responsibilities of a gorgeous court.”
                 Jaya Jaya Sankara Hara Hara Sankara .

" स्वयं से पूछेँ " ?

" स्वयं से पूछेँ " ?
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नारायण । अमेरिका मेँ ऑपेन हायमर नाम के एक बड़े वैज्ञानिक थे । अब वे संसार मेँ नही रहे । वे अपने साथ जर्मनी का एक बड़ा बुड्ढा अध्यापक रखते थे जो गणित - शास्त्री था । नारायण । नाम था उसका " षुट्ज " । ऑपेन हायमर कोई भी सिद्धान्त बनाते थे तो उसे सामने बैठाकर सुनाते थे ! कई लोग ऑपेन हायमर से पूछते थे " तुम्हारी बात इनकी समझ मेँ आती होगी ? " ऑपेन हायमन कहते थे " इन्हे गणित बहुत आता है । मैँ कोई भी सिद्धान्त बनाता हूँ , तो वह गणित की दृष्टि से ठीक है या गलत , इसे जानने के लिये इन्हे सुनता हूँ और ये समझकर तुरंत जबाब दे देते हैँ । " ऑपेन हायमन से उनके एक वैज्ञानिक मित्र ने कहा - " यह जमाना ऑटोमेटान का है , ऐसी मशीन आति हैँ जो गणित का सवाल तुरंत हल कर देती हैँ । इस जमाने मेँ अपने साथ इस बुड्ढे - खूसट को क्योँ रख छोड़ा है ? मशीन से जबाब लिया करो । हायमर को यह जच गई कि इन बेचारोँ को क्योँ तकलीफ देँ । क्योँकि कई बार समय - बे समय इन्हे बैठाकर पूछना पड़ता था और वे 90 नब्बे वर्ष के थे । हायमन ने मशीन रख ली । अपना एक सिद्धान्त मशीन को सुनाया तो उसका जबाब आया कि तुम्हारा " सिद्धान्त गलत है ।" दुसरे ही दिन सबेरे " षुट्ज से कहा कि " आज बड़ी गड़बड़ी हो गई । एक सबाल किया लेकिन गलत निकल आया ।" षुट्ज को पहले ही अनुभव था कि इसका प्रातिभ ज्ञान कभी गलत होने वाला नही है । उसने कहा , " सुना । " सुनाया तो षुट्ज उसी समय कहने लगा " तेरा सिद्धान्त ठीक है ।" हायमर को विश्वास था कि षुट्ज ने कह दिया तो गलती नहीँ हो सकती । नारायण , चार आदमी बैठकर उस हिसाब को छह महिने मेँ पूरा कर पाये । जब पूरा हुआ तो पता लगा कि मशीन ने गलती की थी । नारायण , हमलोगोँ को संस्कार बैठा दिया गया है कि यन्त्र से आने वाला जबाब सही होता है । लेकिन हायमर ने उस दिन से कान पकड़ लिया कि " मशीन को अब अपना सिद्धान्त नही सुनाऊँगा । " मशीन गलती कर सकती है लेकिन जिसने " गुर " का अभ्यास किया है , उसके दिमाग से गलत जबाब नही आयेगा । मशीन का कोई खटका खराब हो जाये तो सारे जबाब गलत ही आते रहेँगे , जब तक " चेतन " मिलान करके न देखे तब तक पता ही नही चलेगा कि गलती होती चली जा रही है । योँ यंत्र गलती कर सकता है लेकिन जिसने " गुर " याद कर रखा है , वह चेतन गलती नही खायेगा ।
ऐसे ही हमारे मन , बुद्धि मशीन हैँ । सिर्फ मन , बुद्धि के भरोसे रहने पर जबाब गलत निकल सकता है । लेकिन यदि आपने अभ्यास पक्का कर रखा है तो आपका आनन्दरूपता का जबाब तुरंत आ जायेगा । यंत्र गलत बता सकता है लेकिन जिनने अभ्यास से अपने को पुष्ट कर लिया है वह गलत नहीँ बता सकता । इसी प्रकार हर परिस्थिति के अन्दर यदि अभ्यास किया है कि किस प्रकार अपने स्वरूप आनन्द मेँ पहुँचे तब चाहे किसी प्रकार के राग , द्वेष आदि का सवाल आये , तुरन्त अपने स्वरूप मेँ आनन्दरूप मेँ पहुँच जायेँगे । जैसे राजा के लिये उसके राज्य मेँ रहने वाली प्रजा है , इसी प्रकार आपके - हमारे शरीर मेँ रहने वाली " कर्मेन्द्रियाँ , ज्ञानेन्द्रयाँ , अन्तःकरण - ये सारे आपके - हमारे प्रजा हैँ , मन मेँ उत्पन्न होने वाली जितनी वृत्तियाँ हैँ , वे मन की प्रजा हैँ । क्या कारण है कि आज घर - घर मेँ राग , द्वेष . काम , क्रोध छोटी - छोटी बातोँ पर लोभ , मोह बढ़ता जा रहा है । क्योँकि हमारा राजा इन सब दोषोँ से भरा है । जब राज्य करने वाले मेँ ये भरेँ हैँ तब प्रजा मेँ आने ही हुए । यह वही देश है : यहाँ एक ब्राह्मण का जवान मर गया था । वह ब्राह्मण उसे लाकर श्री भगवान रामचन्द्र जी के दरबाजे पर ले गया । कहा - " तुम्हारा राज्य अधर्म का राज्य है । मेरा जबान लड़का क्योँ मर गया ? " " निज पुत्रोँ का श्राद्ध पिता रो - रो कर करता है , हे जगदीश्वर तुम्हारी क्या यही ईश्वरता है ! " भगवान श्री राम ने पता लगाया कि किस अपराध के कारण ब्राह्मण का जबान लड़का मर गया । उनका निश्चय था क्योँकि " मेरी प्रजा को दुःख हुआ तो जिम्मेवारी मेरी है ।" आज उसी देश मेँ हजारोँ आदमियोँ को मार ड़ालेँ , उनका सामान फेँक देँ तो भी राजा कहता है " मेरा कोई कसूर नही है , कसूर तुम लोगोँ का है । उसे यह साहस नही है कि पता लगाऊँ किस अधर्म के कारण ऐसा हुआ है । जैसे राज्य मेँ ऐसे ही घर मेँ पिता छाती पर हाँथ रखकर नहीँ कहता कि " लड़के को मैँने बिगाड़ा है । " कहता है " आजकल के लड़के बिगड़ गये हैँ ।" राजा को यह कहने की हिम्मत होनी चाहिये कि मेरी प्रजा के अन्दर जितनी खराबियाँ आ रही है , वे मेरी हैँ । घर के अन्दर बड़े को यह अभिमान होना चाहिये कि मैने लड़के को ठीक नही रखा तब वह बिगड़ गया । दूसरे पर जिम्मेवारी डालना बेकार है । इसी प्रकार सारे शरीर मेँ यह अभिमान होना चाहिये , " मन मेँ गलत वृति आई है तो मेरी गलती से आई है । ऐसा बहाना न बनायेँ की पूराने जमाने के संस्कार उदय हो गये होँगे या किसी को देख कर ऐसी वृत्ति आ गई होगी ।
नारायण । आज जोधपुर ( राजस्थान ) मेँ जहर मिला शराब पी कर कितने गरीब मर रहे है मुख्यमंत्री मरने बाले लोगोँ को लाख - लाख रुपये सहायता राशी बाँट रहे हैँ और हाँथ उठवा - कर पीनेवालोँ से संकल्प करवा रहे हैँ कि शराब नही पीयेँगे । दूसरी तरफ उन्ही के कारीन्दे मंत्री तो साथ - साथ चल रहे हैँ वे कहते है कि सरकारी दूकान से खरीद कर पीओ । आज हमारी मनसा ऐसी हो गई है कि हजार- पाँच सौ रुपयोँ के लिये किसी की हत्या कर देते हैं तो अगर लाख - पाँच लाख रुपया सरकार से मरने के बाद मुआबजा मिल जाये तो ऐसे बहुत दुष्ट प्रकृति के लोग हैँ जो अपने ही घर मेँ रुपयोँ की लालच मेँ या सरकारी नौकरी पाने के लिये अपने घर के सदस्य की हत्या कर देँगे । विहार मेँ एक शिक्षक के पुत्र ने अभी रिटायर नही हुये पीता की हत्या करके सानत्वना रूप मेँ नौकरी पा लीया । यह सरकारी मुआबजा का राजनितिक खेल बन्द होना चाहिये । आज भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वर्तमान सरकार से यह मांग कर रहे हैँ कि जो जहर मिले शराब पीने जो मरे है उनके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दो । क्या इस देश मेँ ऐसा ही खेल होता रहेगा ?हम दूसरोँ पर जिम्मेदारी ड़ालते रहेँगे और खुद अपने मन ,बुद्धि , इन्द्रयोँ पर नियन्त्रण नही रखेँगे तो हमारा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा ।
 नारायण हरिः ।।

" श्री भगवन्नाम जपयज्ञ " ?

                        " श्री भगवन्नाम जपयज्ञ " ?                                                                               श्री गीता जी मेँ श्रीभगवान् ने - " जपयज्ञ " को अपनी " विभूति " बताया है " यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि " इस यज्ञ का द्रव्य क्या है ? वाणी के द्वारा उच्चारण किया जाने वाला " मंत्र " या कोई उन श्री सच्चिदानन्द का नाम । जीसे आपने जान लिया है ,मान लिया है । नारायण । कहने को लोग बड़ी सरलता से कहते हैँ कि " हम तो जप यज्ञ कर रहेँ है , यानी उस श्री सच्चिदानन्द जी नामजप कर रहे हैँ , मंत्र का जप कर रहे हैँ । नारायण , पर यह इतना सरल नहीँ है , बड़ा टेढ़ा है मामला है क्योँकि यज्ञ के अन्दर जो सामग्री ड़ालेँगे , वह शुद्ध होनी चाहिये । कीड़ा खाये हुए गेँहूँ से तो यज्ञ होने वाला नही है । जिस तिल का तेल निकल चुका है , उस बचे हुए खली से भी यज्ञ नही होना है और जो चावल सड़ चुका है , उससे भी यज्ञ होने वाला नही है । यज्ञ होने के लिये द्रव्य शुद्ध होना चाहिये । अगर " जपयज्ञ " करते हैँ तो पहले विचार करना पड़ेगा कि वाणी मेँ कोई अशुद्धि तो नही है । वाणी की सबसे बड़ी अशुद्धि झूठ बोलना है । इसलिय हमारे मंत्रद्रष्टा पुराणकारोँ ने कहा कि " कलियुग " मेँ रहने वालोँ को मंत्रसिद्धि क्योँ नही होती ? उसमेँ कारण ही बताया " असत्यवदन " ( असत्य बोलने ) के द्वारा वाणी दग्ध हो गई है । जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ है , इसी प्रकार जो वाणी झूठ बोलती है , उससे क्या " जपयज्ञ " हो सकेगा ! ऐसे ही दूसरे की निन्दा करना भी वाणी का दोष है ।जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा करता है , क्या वह " जपयज्ञ " कर सकेगा ? इसलिये " द्रव्ययाग " करना सरल है , " जपयज्ञ " करना कठीन है । योँ कहने को लोग बड़ी जल्दी कह देते हैँ कि " हम जपयज्ञ करेँगे । " अच्छे चावलोँ को बीनना सरल है , धी बढ़िया खरीद कर लाना सरल है , तिलोँ को भी अच्छा चुनकर लाना सरल है , लेकिन वाणी को शुद्ध रखना बड़ा कठीन है । नारायण । सम्पूर्ण जीवन मेँ भी अगर उस प्रभु के नाम का , मंत्र का एक माला भी हो तो जीवन सफल ।
लेकिन बड़ा कठीन है ।                                                                                             श्री नारायण हरिः ।।